Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं
होकर वे राजा ऋषभ के पास आए और सारी बात कही। ऋषभ बोले- 'आग के आसपास की घास को काट डालो।' तब हाथियों और घोड़ों ने सारी घास को मर्दित कर दिया। अग्नि शान्त हो गयी।
___ अग्नि उत्पन्न होने पर भगवान् ने उन्हें भोजन पकाने की बात कही। वे पकाना नहीं जानते थे। उन्होंने धान्य को सीधा अग्नि में डाल दिया। इससे सारा धान्य जल गया। वे पुनः ऋषभ के पास उपस्थित हुए और बोले- 'आग ने हमारे सारे धान्य को खा लिया है। भगवान् ने उन्हें मिट्टी लाने को कहा। वे हाथी पर आरूढ़ थे। यौगलिक गीली मिट्टी ले आए। भगवान् ने उसे हाथी के कुंभस्थल पर ढालकर बर्तन बनाने की विधि बताई। फिर कहा- 'इस प्रकार बर्तन बनाकर उसमें धान्य पकाओ।' उन्होंने वैसा ही करना प्रारंभ किया। इस प्रकार सर्वप्रथम कुंभकारों की उत्पत्ति हुई तथा पाकविद्या और पात्र-निर्माण विद्या का प्रारम्भ हुआ। ३६. ऋषभ का अभिनिष्क्रमण
कौशल देश में उत्पन्न ऋषभ प्रथम राजा, प्रथम भिक्षाचर तथा प्रथम तीर्थंकर थे। बीस लाख पूर्व तक कुमारावास में रहकर ६३ लाख पूर्व तक राज्य का पालन किया। लेख, गणित आदि ७२ कलाओं, ६४ स्त्री-कलाओं और अनेक शिल्पों का उपदेश दिया। कलाओं एवं शिल्पों का प्रशिक्षण देकर अपने सौ पुत्रों का राज्याभिषेक किया। लोकांतिक देवों द्वारा संबोध दिए जाने पर सांवत्सरिक दान देकर ऋषभ ने भरत को विनीता (अयोध्या) तथा बाहुबलि को बहली का राज्य सौंपा।
कच्छ, महाकच्छ' आदि चार हजार व्यक्ति भगवान् के साथ प्रव्रजित हुए। चैत्र कृष्णा अष्टमी को दिवस के अंतिम भाग में सुदर्शना शिविका में देव, मनुष्य और असुरों के साथ राजधानी के मध्य से निकलते हुए भगवान् ऋषभ सिद्धार्थ वन के अशोक वृक्ष के नीचे गए। अशोक वृक्ष के नीचे शिविका से उतरकर भगवान् ने स्वयं चतुःमुष्टि लोच किया। जब भगवान् पंच मुष्टि लोच कर रहे थे तब इंद्र ने भगवान् को निवेदन किया- 'भगवन् ! आपके कनक के समान अवदात शरीर पर अंजन रेखा की भांति ये काले बाल सुशोभित होंगे अतः आप इनको ऐसे ही रहने दें। भगवान् ने इंद्र की बात मान ली अतः भगवान् का चतु:मुष्टि लोच हुआ। लोच करके निर्जल बेले की तपस्या में आषाढ़ा नक्षत्र में उग्र, भोग आदि क्षत्रिय राजाओं के साथ भगवान् ने दीक्षा स्वीकार कर ली। उन चार हजार व्यक्तियों का पंचमुष्टि लोच हुआ। दीक्षा के समय भगवान् के शरीर पर एक देवदूष्य था।सामायिक चारित्र स्वीकार करके भगवान् ने अनेक घोर अभिग्रह स्वीकार किए। भगवान् ऋषभ एक वर्ष से अधिक समय तक चीवरधारी रहे। ३७. नमि-विनमि की याचना
कच्छ और महाकच्छ वन में तापस-जीवन जीने लगे। उन्होंने अपने पुत्रों नमि और विनमि को कहा-'हमने जो वनवास विधि स्वीकृत की थी, वह कठोर है इसलिए तुम ऋषभ के पास जाओ, वे
१. आवभा. ५-३०, आवनि. १३८-१४१/१, आवचू. १ पृ. १५४-१५६, हाटी. १ पृ. ८६-८८, मटी. प. १९६-२०१ । २. कुछ आचार्यों के अभिमत से कच्छ और महाकच्छ को भी ऋषभ ने राज्य दिया। ३. आवनि. १९५, आवचू. १ पृ. १६०, १६१, हाटी. १ पृ. ९०, ९१, मटी. प. २१५ ।
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