Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं
जनहानि से क्या प्रयोजन ? हम दोनों परस्पर युद्ध करें। दूसरे दिन दोनों रथ पर आए। आयुध क्षीण हो जाने पर चक्र फेंका। चक्र ने उसकी छाती विदीर्ण कर शिरच्छेद कर डाला । देवों ने उद्घोषणा की - यह त्रिपृष्ठ नामक प्रथम वासुदेव है। तब सभी राजे उसे प्रणिपात करने लगे। उसने अर्धभरत को अपने अधीन किया। अपने बाहु और दंड से कोटिशिला धारण की। यह युद्ध रथावर्त पर्वत के समीप हुआ । त्रिपृष्ठ का संपूर्ण आयुष्य ८४ लाख वर्ष का था । उसको पूरा कर वह सातवें नरक के अप्रतिष्ठान नरक में उत्पन्न हुआ। वहां तीस सागर की उत्कृष्ट स्थिति वाला नारक बना ।
५०. भगवान् महावीर का गर्भ-संहरण और जन्म
आषाढ़ शुक्ला षष्ठी के दिन महाविजय के पुष्पोत्तर विमान से च्युत होकर भगवान् महावीर ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानंदा की कुक्षि में अवतरित हुए । अर्धजागृत अवस्था में देवानंदा ब्राह्मणी चौदह स्वप्न देखकर प्रतिबुद्ध हुई । उसने प्रसन्नमन से ऋषभदत्त ब्राह्मण को स्वप्नों की बात कही। उसने कहा - 'देवानुप्रिय ! तुमने उत्तम स्वप्न देखे हैं।' इससे तुमको अन्नलाभ, भोगलाभ, पुत्रलाभ और सौख्यलाभ होगा। तुम नौ मास और ८ दिन व्यतीत होने पर अत्यन्त सुकुमाल, पांचों इन्द्रियों से परिपूर्ण, समस्त लक्षणों से युक्त बालक का प्रसव करोगी। यह सुनकर देवानंदा प्रसन्न होकर बोली- 'देवानुप्रिय ! आपने जो कहा, वह यथार्थ है ।'
उस समय सौधर्म कल्प का देवेन्द्र सौधर्मवतंसक विमान की सुधर्मा सभा में सिंहासन पर सुखपूर्वक निषण्ण था। उसने अचानक अवधिज्ञान से जंबूद्वीप को देखा। देवानंदा के गर्भ में श्रमण भगवान् महावीर को व्युत्क्रान्त होते देखकर वह परम प्रसन्न हुआ । उसका हृदय हर्ष के वशीभूत होकर उछलने लगा। उसने सिंहासन से नीचे उतरकर अपनी रत्नमय पादुकाओं को एक ओर रखकर, एक शाटक से उत्तरासंग कर, तीर्थंकराभिमुख होकर, सात-आठ पैर पीछे हटकर, भूमि पर वंदना की मुद्रा में बैठकर, हाथ जोड़कर, मस्तक को भूमि पर टिकाकर 'नमोत्थुणं' का पाठ दो बार कहा और बोला- 'मैं यहां से आपको वंदना करता हूं।' फिर वह पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन पर बैठ गया। तब उसके मन में यह विचार आया कि भगवान् महावीर देवानंदा ब्राह्मणी की कुक्षि में उत्पन्न हुए हैं परन्तु ऐसा न कभी हुआ है, न होता है और न होगा कि अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि अंत-प्रांत तथा तुच्छ और दरिद्र कुलों में जन्मे हों, जन्मते हों अथवा जन्मेंगे। वे उग्र, भोग, राजन्य और इक्ष्वाकु आदि विशुद्ध जाति-कुलों में, महान् राज्यों का परिभोग करने वाले कुलों में जन्म लेते हैं । भगवान् महावीर का ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होना अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी काल का महान् आश्चर्य होगा। यह सच है कि नीचगोत्र कर्म के उदय से अरिहंत आदि अंत-प्रांत कुलों में उत्पन्न स्त्रियों के गर्भ में आते हैं, परन्तु जन्म नहीं लेते। इसलिए देवराज शक्र का यह जीत-व्यवहार है (परंपरागत नियम है) कि तीर्थंकर के जीव का अंत - प्रांत कुल से विशुद्धजाति वाले कुलों में आहरण करे । इसलिए चरमतीर्थंकर भगवान् महावीर को ब्राह्मणकुंडग्राम नगर से क्षत्रियकुंडग्राम नगर में काश्यपगोत्रीय क्षत्रिय सिद्धार्थ की भार्या वासिष्ठगोत्रीय क्षत्रियाणी त्रिशला की कुक्षि में गर्भरूप में
१. आवनि. २६५ - २६८, आवचू. १ पृ. २३० - २३५, हाटी. १ पृ. ११५-११८, मटी. प. २४८ - २५१ ।
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