Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति साधर्मिक-मुनि हैं। इनमें उत्तरोत्तर से पूर्व-पूर्व बाधित होता है। जैसे---राजावग्रह से देवेन्द्रावग्रह बाधित होता है।' यह सुनकर देवेन्द्र ने भगवान् से कहा- 'भंते ! ये सारे श्रमण मेरे अवग्रह में विहरण कर रहे हैं, मैं इनको अवग्रह की आज्ञा देता हूं', इतना कहकर वह भगवान् के उपपात में बैठ गया। भरत ने सोचा, 'मैं भी अपना अवग्रह समर्पित कर कृतार्थता का अनुभव करूं।' भगवान् के समक्ष उसने अपने अवग्रह की आज्ञा दी। फिर उसने देवेन्द्र से पूछा- 'जो भक्तपान लाया गया है, उसका मैं क्या करूं?' देवेन्द्र बोला'स्वयं से गुणों में उत्तम की पूजा करो।' भरत ने सोचा कि साधुओं के अतिरिक्त मेरे से उत्तर कौन है? सोचते-सोचते उसने जाना कि विरताविरत होने के कारण श्रावक उत्तर हैं। उसने आनीत सारा भक्तपान श्रावकों को दे दिया।
भरत ने श्रावकों को बुलाकर कहा- 'तुम सब प्रतिदिन मेरे यहीं भोजन करो। खेती आदि मत करो, निरंतर स्वाध्याय में निरत रहो। भोजन करने के पश्चात् मेरे भवन के द्वार पर स्थित होकर प्रतिदिन मुझे प्रतिबोधित करो।' वे प्रतिदिन भरत को कहने लगे-'जितो भवान् वर्धते भयं तस्मान् मा हन मा हनेति' भोगप्रमत्त भरत ने उन शब्दों को सुनकर तत्काल सोचा, 'मैं किनके द्वारा जीता गया हूं। ओह, जान गया। कषायों ने मुझको जीत लिया है। उनसे ही भय बढ़ता है'- यह सोचकर भरत को संवेग उत्पन्न हुआ।
इधर भोजन करने वालों की संख्या अधिक हो जाने के कारण रसोडये रसोई बनाने में असमर्थ हो गए। वे भरत के पास आकर बोले- 'हम नहीं जान पाते कि कौन श्रावक है और कौन नहीं।' लोग बहुत आते हैं। भरत बोला- 'तुम उनको पूछ-पूछ कर भोजन दिया करो।' वे पूछने लगे- 'आप कौन हैं?' वे कहते- 'हम श्रावक हैं।' जब उनको पूछा जाता कि श्रावकों के कितने व्रत होते हैं तो वे कहते- 'श्रावकों के कोई व्रत नहीं होते।' कुछेक कहते-हमारे पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत हैं। जो ऐसे थे, उनके विषय में राजा को बताया गया। भरत ने उन श्रावकों को काकिणीरत्न से चिह्नित कर दिया। छह महीने बाद जो अन्य श्रावक बनते उनको भी चिह्नित कर दिया जाता। इस प्रकार छह-छह मास बाद अनुयोग (परीक्षण) होने लगा। इस प्रकार ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई। उन्होंने अपने पुत्रों को साधुओं के चरणों में समर्पित किया। वे प्रव्रजित हो गए। शेष व्यक्ति परीषहों के भय से मुनि नहीं बने, श्रावक ही बने रहे। यह भरत के राज्य की स्थिति थी। जब भरतपुत्र आदित्ययश राजा बना, उसके पास काकिणीरत्न नहीं था। उसने स्वर्णमय यज्ञोपवीत बनवाए। महायश आदि राजाओं ने चांदी के तथा किसी ने सूत के यज्ञोपवीत बनवाकर पहनाए। यह यज्ञोपवीत के प्रवर्तन की कहानी है।
कालान्तर में भगवान् अष्टापद पर्वत पर समवसृत हुए। भरत वहां ऋद्धि के साथ भगवान् के दर्शनार्थ गया। भगवान् की महिमा और ऋद्धि को देखकर उसने भगवान से पूछा- 'भगवन् ! क्या आपके समान इस भरतक्षेत्र में और भी तीर्थंकर होंगे?' भगवान् ने कहा- 'मेरे समान तेवीस तीर्थंकर और होंगे।' भरत ने पुनः पूछा- क्या मेरे जैसे चक्रवर्ती भी और होंगे?' भगवान् ने कहा- 'तुम्हारे जैसे सगर आदि ग्यारह चक्रवर्ती और होंगे।' भगवान् की पर्युपासना कर भरत वापिस अपने स्थान पर लौट गया।
१. आवनि २२७, आवचू. १ पृ. २१२-२१५, हाटी. १ पृ. १०४, १०५, मटी. प. २३४-२३६ ।
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