Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि.३: कथाएं
रूप से सुंदर नहीं है।' इस प्रकार चिन्तन करते हुए अपूर्वकरणध्यान में उपस्थित भरत को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई। देवराज शक्र ने आकर कहा- 'आप द्रव्यलिंग धारण करें, जिससे हम आपका निष्क्रमणमहोत्सव कर सकें।' तब भरत ने पंचमुष्टि लुंचन किया। देवता ने रजोहरण, पात्र आदि उपकरण प्रस्तुत किए। महाराज भरत दस हजार राजाओं के साथ प्रव्रजित हो गए।। शेष नौ चक्रवर्ती हजार-हजार राजाओं से प्रवजित हुए। शक्र ने भरत को वंदना की। भरत एक लाख पूर्व तक केवली-पर्याय का पालन कर मासिक संलेखना में श्रवण नक्षत्र में अष्टापद पर्वत पर परिनिर्वृत हो गया। भरत के बाद इन्द्र ने आदित्ययश का अभिषेक किया। इस प्रकार एक के बाद एक आठ पुरुषयुग अभिषिक्त हुए। उसके बाद के राजा उस मुकुट को धारण करने में समर्थ नहीं हुए। ४८. मरीचि का भव-भ्रमण
भगवान् के परिनिर्वृत होने पर मरीचि साधुओं के साथ विहरण करता था। उसके पास जो भी व्यक्ति प्रवचन सुनने आता उसे दीक्षा देकर वह साधुओं को उपहृत कर देता। एक बार वह ग्लान हो गया। साधु असंयत की सेवा नहीं करते इसलिए संक्लिष्ट परिणामों के साथ वह सोचने लगा-'अहो, ये साधु अनुकंपा रहित हैं अतः मुझे किसी सेवाभावी को दीक्षा देनी चाहिए।' कालान्तर में वह रोगमुक्त होकर पुनः विहरण करने लगा। एक बार कपिल नामक राजकुमार उसके पास धर्म-श्रवण करने आया। मरीचि ने उसे अनगार धर्म में प्रव्रजित होने की प्रेरणा दी। कपिल ने पूछा- 'आपने यह अलग मार्ग क्यों अपना रखा है?' मरीचि बोला- 'साधुओं का धर्म ही सही है। मैं भारीकर्मा इस पथ पर चलने में समर्थ नहीं हूं। इन साधुओं में पूरा धर्म है पर कुछ धर्म यहां भी है।' इस एक दुर्भाषित से उसने संसार की वृद्धि कर ली और कोटाकोटि सागरोपम तक संसार में भ्रमण करता रहा।
कपिल भी कर्मोदय से साधुधर्म की ओर अभिमुख नहीं हुआ। मरीचि ने सोचा कि यह साधुधर्म स्वीकार नहीं करता अत: उसे सहायक समझकर दीक्षित कर दिया। कपिल अब मरीचि के साथ विहरण करने लगा।
दुर्भाषित एवं गर्व का प्रतिक्रमण किए बिना मरीचि ८४ लाख पूर्व का आयुष्य पूर्ण कर ब्रह्मलोक में दस सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। कपिल शास्त्र एवं पुस्तक के ज्ञान से विकल था। वह प्रवचन करना नहीं जानता था। उसने एक शिष्य आसुरी को दीक्षित किया और उसे आचार का प्रशिक्षण दिया। कालान्तर में वह भी मरकर ब्रह्मलोक में उत्पन्न हुआ। कपिल ने अवधिज्ञान का उपयोग किया और सोचा- 'मैंने कौन सा यज्ञ और हवन किया? क्या दान दिया, जिससे मुझे यह दिव्य ऋद्धि प्राप्त हुई है?' अवधिज्ञान से उसने आसुरी को देखा। उसे चिंता उत्पन्न हो गयी कि मेरा शिष्य आसुरी कुछ भी नहीं जानता है अत: उसे तत्त्वों का उपदेश देना चाहिए। कपिल पांच वर्ण का मंडल बनाकर आकाश में स्थित हो गया और तत्त्वों की जानकारी दी। तभी षष्टितंत्र का निर्माण हुआ। इस प्रकार कुतीर्थ का प्रवर्तन हो गया।
१. आवनि. २५७, आवचू. १ पू. २२७, २२८, हाटी. १ पृ. ११३, ११४, मटी. प. २४६ । २. आवनि. २५८-२७१, आवचू. १ पृ. २२८, २२९, हाटी. १ पृ. ११४, ११५, मटी. प. २४७, २४८ ।
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