Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
३६४
परि. ३: कथाएं
४५. शक्रोत्सव का प्रारम्भ
भरत ने देवेन्द्र का दिव्य रूप देखकर पूछा- 'क्या तुम इसी रूप में देवलोक में रहते हो या अन्य रूप में?' देवेन्द्र बोला-'नहीं, यह उत्तर रूप है। हमारा मूलरूप मनुष्य नहीं देख सकता क्योंकि वह बहुत तेजस्वी होता है।' भरत बोला-'उस आकति को देखने के लिए हमारे मन में कतहल है। आप हमें दिखाएं।' देवराज ने कहा- 'तुम उत्तमपुरुष हो इसलिए शरीर का अवयव मात्र दिखाता हूं।' तब देवेन्द्र ने योग्य अलंकारों से विभूषित अत्यंत भास्वर अंगुलि मात्र दिखाई। उसे देखकर भरत अत्यन्त प्रसन्न हुआ। भरत ने इन्द्रांगुलि के रूप में इंद्रध्वज की स्थापना कर अष्टाह्निक महिमा का आयोजन किया। यही शक्रोत्सव का प्रारंभ था, जो प्रतिवर्ष मनाया जाने लगा। ४६. ऋषभ का निर्वाण
____ अष्टापद पर्वत पर भगवान् ने बेले की तपस्या में प्रायोपगमन अनशन स्वीकार कर लिया। भरत ने जब यह समाचार सुना तो शोक-संतप्त हृदय से पैदल ही अष्टापद पर्वत की ओर दौड़ा। उसने दुःखी हृदय से भगवान् को वंदना की। उस समय शक्र का आसन चलित हुआ। अवधिज्ञान से उसने सारी स्थिति को जाना। भगवान के पास आकर अश्रपर्ण नयनों से उसने भगवान को वंदना एवं पर्यपासना की। उस समय वे अनेक देवी-देवताओं से संवृत थे। छट्ठमभक्त में दस हजार अनगारों के साथ भगवान् निर्वाण को प्राप्त हो गए।
भगवान् का निर्वाण होने पर शक्र ने देवों को आदेश दिया- 'नंदनवन से शीघ्र ही गोशीर्ष चंदन लाकर चिता की रचना करो। गोलाकार आकृति वाली चिता पूर्व में निर्मित करो, वह तीर्थंकर ऋषभ के लिए होगी। एक त्र्यंस आकार वाली चिता दक्षिण दिशा में निर्मित करो, जो इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न अनगारों के लिए होगी। एक चतुरन चिता उत्तरदिशा में निर्मित करो, जो शेष अनगारों के लिए होगी।' देवताओं ने उसी रूप में चिताओं का निर्माण किया। इसके पश्चात् इंद्र ने आभियोगिक देवों को बुलाकर उन्हें आदेश दिया'शीघ्र ही क्षीरोदक समुद्र से पानी लेकर आओ। देवताओं ने उस आदेश का पालन कर दिया। तब शक्र ने तीर्थंकर के शरीर को क्षीर समुद्र के पानी से स्नान करवाया। स्नान कराकर श्रेष्ठ गोशीर्ष चंदन का शरीर पर लेप किया। भगवान् को श्वेत वस्त्र धारण करवाए तथा सब प्रकार के अलंकारों से उनके शरीर को विभूषित किया। इसके पश्चात् भवनपति और व्यंतर देवों ने गणधर और शेष अनगारों के शरीर को स्नान करवाकर अक्षत देवदूष्य पहनाए।
तब इन्द्र ने भवनपति और वैमानिक देवों को आदेश दिया कि अनेक चित्रों से चित्रित शिविकाओं का निर्माण करो। एक भगवान् ऋषभ के लिए, एक गणधर के लिए तथा एक अवशेष साधुओं के लिए। देवताओं ने आदेश के अनुसार शिविकाओं का निर्माण कर दिया। इन्द्र ने भगवान् के शरीर को शिविका में ले जाकर दु:खी हृदय और अश्रुपूर्ण नयनों से चिता पर स्थापित किया। अनेक भवनपति और वैमानिक देवों ने गणधरों और शेष अनगारों के शरीर को चिता पर रखा। तब इंद्र ने अग्निकुमार देवों को बुलाकर तीनों चिताओं में अग्निकाय की विकुर्वणा करने का आदेश दिया। अग्निकुमार देवों ने मुख से अग्नि का प्रक्षेप १. आवनि. २२७, आवचू. १ पृ. २१३, मटी. प. २३५ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org