Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं किया। राजा ने भी देवी का सम्मान किया। वहां भी अष्टाह्निक महोत्सव करके भरत ने वैताढ्यगिरि कुमार की आराधना की। उसका भी आसन विचलित हुआ। वहां से चलकर तमिस्रगुफा के कृतमाल देव से मिला। तब सुषेण सेनापति ने अर्धसेनाबल के साथ दाक्षिणात्य सिन्धुनिष्कूट तथा उसके पश्चात् तमिस्रगुफा का उद्घाटन किया। सुषेण सेनापति मणिरत्न से प्रकाश कर, दोनों पार्यों में पांच-सौ धनुष्य लम्बे-चौड़े उनपचास मंडलों को उत्कीर्ण कर, प्रकाश में दृश्यमान उन्मग्ना-निमग्ना नदी को सेतु से पार कर तमिस्रगुफा से बाहर आया। वहां चिलातों से युद्ध कर उन्हें पराजित किया। पराजित चिलातों ने अपने कुलदेवता मेघमुखकुमारों की आराधना की। कुलदेवता ने सात दिन-रात तक मुसलाधार वर्षा बरसाई। भरत ने भी अपने चर्मरत्न पर स्कंधावार (सेना) को स्थापित कर ऊपर छत्ररत्न स्थापित कर दिया। छत्ररत्न के दंड के मध्य में मणिरत्न रखा। तब लोगों में यह भावना स्थापित हुई कि जगत् अंडे से उत्पन्न हुआ। (यह ब्रह्माण्ड पुराण है।)
पूर्वाह्न में भरत ने शालि को उप्त किया और अपराह्न में उसका भोजन बना लिया। इस प्रकार भरत सात दिन वहां रहा। फिर आभियोगिक देवों ने मेघमुख आदि देवों को डराया-धमकाया। उनके वचनों से चिलात भरत चक्रवर्ती को प्रणाम कर समर्पित हो गए। वहां से वे क्षुल्लकहिमवगिरि कुमार देव के पास आए। बाण फेंकने पर वह ७२ योजन ऊपर गया। वहां से ऋषभकूट पर नामांकन किया। सेनापति सुषेण उत्तरदिशा वाले सिन्धुनिष्कूट के पास आया। भरत गंगा के पास गया। फिर सेनापति सुषेण उत्तर में गंगा निष्कूट के पास आया। भरत ने गंगा के साथ हजार वर्ष तक भोग भोगे। फिर वैताढ्य पर्वत पर नमि-विनमि के साथ बारह वर्ष तक युद्ध लड़ा। वे दोनों पराजित हो गए। तब विनमि स्त्रीरत्न लेकर तथा नमि अन्य रत्न लेकर भरत के समक्ष उपस्थित हुआ। भरत वहां से खंडप्रपात गुफा के नृत्यमाल देव के पास आया। खंडप्रपात गुफा से निकल कर गंगा के कूल पर आया, जहां उसे नवनिधियों की प्राप्ति हुई। उसके पश्चात् सुषेण सेनापति दाक्षिणात्य गंगानिष्कूट पर आया।
साठ हजार वर्षों तक विजय-अभियान का संचालन कर भरत विनीता राजधानी में आया। बारह वर्षों में महाराज्याभिषेक संपन्न हुआ। सभी राजे अपने-अपने स्थान पर चले गए। तब भरत ने अपने पारिवारिक वर्ग को याद किया। पारिवारिक लोगों में उसने क्रमशः सुन्दरी को देखा। वह अत्यंत कृश और पांडुर हो गई थी। जिस दिन से उसे अन्तःपुर में अवरुद्ध किया, उसी दिन से उसने आचाम्ल तप करना प्रारम्भ कर दिया था। उसे देखकर भरत ने रुष्ट होकर कौटुंबिक जनों को कहा- 'क्या मेरे घर में भोजन नहीं है, जो इसकी यह अवस्था हो गई? क्या वैद्य नहीं थे, जिसके कारण चिकित्सा नहीं हो सकी?' उन्होंने कहा-'महाराज! यह आचाम्ल तप करती है।' तब भरत का सुन्दरी पर अनुराग अल्प हो गया। उसने सुंदरी से कहा- 'यदि तुम चाहो तो मेरे साथ रहो, भोग भोगो। यदि यह इच्छा न हो तो प्रव्रजित हो जाओ।' सुन्दरी भरत के चरणों में गिरी। भरत ने उसे विसर्जित कर दिया। वह भगवान् के पास प्रवजित हो गई।
एक बार भरत ने अपने भाइयों के पास दूत भेजकर कहलाया कि मेरे राज्य के अधीनस्थ हो जाओ। उन्होंने कहा- 'हमको राज्य पिताश्री ने दिए हैं और तुम्हें भी। चलो, हम पिताश्री को पूछेगे। वे जो कहेंगे, वैसा ही हम करेंगे। उस समय विहरण करते-करते भगवान् अष्टापद पर्वत पर आए। वहां सभी
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