Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
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का घोष। वहां देवताओं के समूह को देखकर लोग श्रेयांस के भवन पर आए। कुछ तापस और अन्य राजा भी आए। तब श्रेयांस ने उन्हें कहा-'ऐसे भिक्षा दी जाती है। ऐसे मुनियों को भिक्षा देने से सुगति होती है।' तब सभी ने पूछा- 'तुमने कैसे जाना कि स्वामी को भिक्षा देनी है।' श्रेयांस बोला- 'मैंने जातिस्मृति ज्ञान से यह जान लिया कि मैंने पूर्वभव में स्वामी के साथ आठ जन्म साथ-साथ ग्रहण किए हैं।' यह सुनकर लोगों के मन में कुतूहल हुआ। वे बोले- 'हम जानना चाहते हैं कि तुम आठ भवों में स्वामी के साथ किस रूप में रहे?' उनके पूछने पर श्रेयांस ने ऋषभ के साथ अपने आठ भवों के विषय में उन्हें बताया
१. ईशान देवलोक के श्रीप्रभ विमान में भगवान् ललितांगक देव थे और मैं भगवान् की स्वयंप्रभा
देवी थी। २. पूर्वविदेह के पुष्कलावती विजय के लोहार्गल नगर में भगवान् वज्रजंघ थे और मैं उनकी भार्या
श्रीमती थी। ३. उत्तर-पूर्व में भगवान् और मैं युगलरूप में जन्मे। ४. सौधर्म कल्प में हम दोनों देव बने। ५. अपरविदेह में भगवान् वैद्यपुत्र और मैं जीर्णश्रेष्ठी पुत्र केशव भगवान् का छठा मित्र था। ६. अच्युत कल्प में हम दोनों देव बने। ७. पुंडरीकिनी नगर में भगवान् वज्रनाभ बने और मैं सारथी बना। ८. सर्वार्थसिद्ध विमान में हम दोनों देव बने।
इस भव में मैं भगवान् का प्रपौत्र बना। तीनों स्वप्नों की फलश्रुति यही थी कि भगवान् को भिक्षा दी गई। यह सुनकर जनता ने श्रेयांस का अभिवादन किया और सभी अपने-अपने स्थान की ओर प्रस्थित हो गए। जहां भगवान् को दान दिया था, उस स्थान को कोई पैरों से आक्रान्त न करे इसलिए श्रेयांस ने वहां भक्तिभाव से एक रत्नमय पीठ बनवाया। त्रिसंध्य उसकी अर्चना होने लगी। विशेषतः पर्व के दिनों में वह उस पीठ की अर्चना-पूजा करने के बाद ही भोजन लेता था। लोगों ने पूछा- 'यह क्या है ?'श्रेयांस बोला- 'यह आदिकर भगवान् ऋषभ का मंडल है।' तब लोगों ने भी जहां-जहां भगवान् ठहरे, वहां-वहां पीठों का निर्माण किया। कालान्तर में वे आदित्यपीठ हो गए। ३९. भगवान् का तक्षशिलागमन तथा कैवल्यप्राप्ति
एक बार भगवान् ऋषभ विहरण करते-करते बाहुबलि की राजधानी तक्षशिला में गए। भगवान् के विषय में समाचार सुनाने के लिए नियुक्त व्यक्तियों ने महाराज बाहुबलि को भगवान् के पदार्पण के समाचार सुनाए। भगवान् बहली नगरी में विकाल में पधारे थे अत: बाहुबलि ने सोचा-'कल प्रात:काल मैं अपने समस्त पारिवारिक जनों तथा पूर्ण समृद्धि के साथ उद्यान में जाकर भगवान् के दर्शन करूंगा। प्रातःकाल वह दर्शन करने के लिए प्रस्थित हुआ। स्वामी वहां से अन्यत्र विहरण कर गए। स्वामी को वहां न देखकर बाहुबलि अत्यंत खिन्न हो गया। उसने जहां भगवान् रहे थे, वहां धर्मचक्र का चिह्न बनवाया। वह १. आठों भवों का विस्तार चूर्णि पृ. १६४-१८० एवं मलयगिरि टीका प. २१८-२२६ में विस्तार से मिलता है। २. आवनि. २००-२०३, आवचू. १ पृ. १६२-१६४, हाटी. १ पृ. ९७, ९८, मटी. प. २१७-२२६ ।
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