Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
२५९ ६२०. यह आचार्यनमस्कार सभी पापों का प्रणाशक है तथा सभी मंगलों में तीसरा मंगल है। ६२१. उपाध्याय के चार निक्षेप हैं-नाम उपाध्याय, स्थापना उपाध्याय, द्रव्य उपाध्याय और भाव उपाध्याय। द्रव्य उपाध्याय में शिल्पशास्त्र के ज्ञाता, उपदेष्टा तथा निह्नवों का समावेश होता है। ६२२. अर्हत् प्रणीत द्वादशांगी को गणधरों ने स्वाध्याय कहा है। उस स्वाध्याय का उपदेश (वाचना आदि) देने वाले को उपाध्याय कहा जाता है। ६२३. 'उ' उपयोगपूर्वक, 'ज्झ' ध्यान का निर्देश अत: ‘उज्झा' का अर्थ है-उपयोगपूर्वक ध्यान करने वाले। यह उपाध्याय का अन्य पर्याय है। ६२४. उवज्झाओ में 'उ' का अर्थ उपयोगपूर्वक, 'व' का अर्थ पापपरिवर्जन, 'झ' का अर्थ ध्यान के लिए तथा 'ओ' का अर्थ कर्मों का अपनयन करना है। उपाध्याय का समुच्चयार्थ है-उपयोगपूर्वक पाप का परिवर्जन करते हुए ध्यानारूढ होकर कर्मों का अपनयन करने वाले। ६२५. उपाध्याय को भावनापूर्वक किया गया नमस्कार जीव को सहस्रभवों से मुक्त कर देता है। यह नमस्कार उसके बोधिलाभ के लिए होता है। ६२६. भवक्षय करने वाले धन्य व्यक्तियों के हृदय में निरंतर बना रहने वाला यह 'णमो उवज्झायाणं''उपाध्याय नमस्कार' उनके विस्रोतसिका का वारक होता है। ६२७. इस प्रकार उपाध्याय नमस्कार महान् अर्थ वाला वर्णित है। मृत्युकाल के निकट होने पर इसका स्मरण बार-बार और अनवरत किया जाता है। ६२८. यह उपाध्याय नमस्कार सभी पापों का प्रणाशक है तथा सभी मंगलों में चौथा मंगल है। ६२९. साधु शब्द के चार निक्षेप हैं-नाम साधु, स्थापना साधु, द्रव्य साधु और भाव साधु। द्रव्य साधु हैंलौकिक साधु । भावसाधु हैं-संयत साधु । ६३०. घट, पट, रथ आदि को करने वाले द्रव्य साधु हैं अथवा भाव-पर्याय से शून्य जो साधु हैं, वे द्रव्य साधु हैं। ६३१. जो निर्वाण-साधक योग अर्थात् सम्यग्दर्शन आदि की साधना करते हैं, समस्त प्राणियों के प्रति सम रहते हैं, वे भावसाधु हैं। ६३२, ६३३. (अर्हत्, सिद्ध, आचार्य और उपाध्यायों में गुणों की अधिकता होती है अत: वे वन्दनार्ह हैं।) परन्तु साधु तो सामान्य तप, नियम और संयमगुणों से युक्त होते हैं तो तुम उन्हें वंदना क्यों करते हो? यह पूछने पर वह कहता है-जो विषयसुखों से निवृत्त हैं, विशुद्ध चारित्र तथा नियमों से युक्त हैं, क्षांति आदि
१. अभिनिवेश दोष के कारण एक पदार्थ को भी अन्यथा प्ररूपित करने के कारण निव मिथ्यादृष्टि होते हैं, इसीलिए उन्हें
द्रव्य उपाध्याय कहा गया है।
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