Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
२६१ ६४४. नमस्कार के जप से इहलोक में अर्थ, काम, आरोग्य तथा अभिरति की प्राप्ति होती है तथा परलोक में पुण्य-निष्पत्ति, सिद्धि, स्वर्ग तथा सुकुल में उत्पत्ति होती है। ६४५. त्रिदंडी', सादिव्य-कामनिष्पत्ति तथा मातुलिंगवन आदि इस लोक से संबंधित तथा चंडपिंगल, हुंडिकयक्ष आदि परलोक संबंधी दृष्टान्त हैं। ६४५/१. नंदी, अनुयोगद्वार तथा उपोद्घात को विधिवत् जानकर पंच मंगल अर्थात् पंच नमस्कार करके सूत्र का आरंभ किया जाता है। ६४५/२. पंच नमस्कार करने वाला सामायिक करता है इसलिए पंच नमस्कार का कथन किया गया है। यह सामायिक का ही एक अंग है। शेष सामायिक का सूत्र-पाठ कहता हूं। ६४५/३. अस्खलित सूत्र का उच्चारण करके संहिता आदि व्याख्यानचतुष्टयी का कथन करने के पश्चात् सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति का विस्तार इस प्रकार होता है६४६. करण, भय, अंत, सामायिक, सर्व, वर्ज, योग, प्रत्याख्यान, यावज्जीवन, त्रिविध-ये सामायिक के व्याख्येय द्वार हैं। ६४७. करण शब्द के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव। ६४७/१. क्षेत्र का करण नहीं होता क्योंकि आकाश अकृत्रिम-अकृतक पदार्थ है किन्तु क्षेत्र के अभिव्यञ्जक पुद्गलों की अपेक्षा से क्षेत्रकरण होता है, जैसे-इक्षुक्षेत्रकरण, शालिक्षेत्रकरण आदि। ६४७/२. काल का करण नहीं होता लेकिन व्यंजन-प्रमाण से काल का करण होता भी है क्योंकि बव, वालव आदि करणों से अनेकधा व्यवहार होता है। ६४७/३. भावकरण दो प्रकार का है-जीवभावकरण और अजीवभावकरण। अजीवभावकरण है-वर्ण आदि। जीवभावकरण के दो प्रकार हैं-श्रुतभावकरण तथा नोश्रुतभावकरण। ६४७/४. श्रुतभावकरण के दो भेद हैं-बद्ध और अबंद्ध । बद्ध है-निर्दिष्ट द्वादशांगी। इसके विपरीत अबद्ध है। निशीथ और अनिशीथ बद्धश्रत हैं। ६४७/५. भूतापरिणतविगत - यह शब्दकरण है। यह निशीथ नहीं है। निशीथ वह होता है, जो प्रच्छन्न/गूढार्थ/रहस्यपूर्ण होता है, जैसे-निशीथ नामक अध्ययन।
१-५. देखें परि. ३ कथाएं। ६. बद्ध-गद्य-पद्य में निबद्ध शास्त्रोपदेश आचारांग आदि।
अबद्ध-अशास्त्रोपदेश रूप केवल कंठगत श्रुत। ७. आवहाटी. १ पृ. ३१०; रहस्यपाठाद् रहस्योपदेशाच्च प्रच्छन्नं निशीथमुच्यते, प्रकाशपाठाद् प्रकाशोपदेशत्वाच्चानिषीथमिति
यहां निशीथ का अर्थ है-रहस्योपदेश, प्रच्छन्न सूत्र। अनिशीथ का अर्थ है-स्पष्ट उपदेश वाला सूत्र। ८. भूत का अर्थ है-उत्पत्ति, अपरिणत का अर्थ है-ध्रौव्य और विगत का अर्थ है-व्यय। यह स्पष्ट है। निशीथ स्पष्ट
नहीं है क्योंकि वह रहस्य पाठ वाला, रहस्य-उपदेश वाला तथा गुप्तार्थ प्रकट करने वाला है (आवहाटी. १ पृ. ३१०)।
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