Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
२६५ ६६९. 'जीवित' शब्द के दस निक्षेप हैं-नामजीवित, स्थापनाजीवित, द्रव्यजीवित, ओघजीवित, भवजीवित, तद्भवजीवित, भोगजीवित, संयमजीवित, यशोजीवित तथा कीर्तिजीवित।' ६६९/१. चक्रवर्ती आदि का जीवन भोगजीवित तथा संयमी साधुओं का जीवन संयमजीवित है। कीर्ति और यश का जीवन यशजीवित और कीर्तिजीवित है, यह तीर्थंकर भगवान् के होता है। ६७०. गृहस्थों का प्रत्याख्यान १४७ भेद वाला है। मुनियों का प्रत्याख्यान तीन करण तीन योग से होता है। उसके २७ भेद हैं। यह भेद जाल समिति-गुप्तियों के कारण होता है। इस प्रकार सूत्र-स्पर्शिकनियुक्ति का विस्तृत अर्थ संपन्न हुआ। ६७१. 'सामायिक करता हूं', सावद्ययोग का प्रत्याख्यान करता हूं तथा 'प्राक्कृत का प्रतिक्रमण करता हूं'-इसमें वर्तमान, अनागत तथा अतीत का क्रमश: ग्रहण है। ६७२. सामायिक के पाठ में 'त्रिविधेन' यह पद अयुक्त है क्योंकि प्रतिपद विधि से अर्थात् मणसा ,वयसा, कायसा-इस पाठ से त्रिविध स्वयं समाहित है। अर्थ विकल्पना तथा गुणभावना में पुनरुक्ति दोष मान्य नहीं होता। ६७३. प्रतिक्रमण दो प्रकार का है-द्रव्यप्रतिक्रमण और भावप्रतिक्रमण। द्रव्यप्रतिक्रमण निह्नवों का है, इसमें कुलाल' का दृष्टान्त है। भाव प्रतिक्रमण है-प्रतिक्रमण में उपयुक्तता, इसमें मृगावती का उदाहरण है। ६७४. सचरित्र व्यक्ति का पश्चात्ताप निन्दा है। उसके चार निक्षेप हैं-नामनिन्दा, स्थापनानिन्दा, द्रव्यनिन्दा
और भावनिन्दा। द्रव्यनिन्दा में चित्रकार की पुत्री का तथा भावनिन्दा में अनेक उदाहरण हैं। ६७५. गर्दा भी निन्दा की सजातीय है। केवल इतना ही अंतर है कि दूसरे के समक्ष दोष-कथन गर्दा है। द्रव्य गर्दा में मरुक' का तथा भावगर्हा के अनेक उदाहरण हैं। ६७६. द्रव्य व्युत्सर्ग में प्रसन्नचन्द्र राजा का तथा भाव व्युत्सर्ग में पुन: संवेगप्राप्त प्रसन्नचन्द्र राजर्षि का उदाहरण है।
१. १. ओघजीवित-सामान्य जीवन।
२. भवजीवित-नारक, देव आदि की अपने भव में स्थिति। ३. तद्भवजीवित-तिर्यक्, मनुष्य आदि की उसी भव में पुन: उत्पत्ति । यह केवल औदारिक शरीर वालों के होता है। ४. भोगजीवित-चक्रवर्ती, वासुदेव आदि का जीवन। ५. संयमजीवित-संयमी व्यक्तियों का जीवन।। ६. यशजीवित कीर्तिजीवित-भगवान् महावीर का जीवन (आवहाटी. १ पृ. ३२०)। आवश्यक दीपिका प. २१३; तत्र दानजा कीर्तिः, पराक्रमजं यशः, तयोर्जीविते भगवतोऽर्हतः, अन्ये तु यशकीर्तिजीवितमेकमेवाहुः, किन्तु संयमविपक्षमसंयमजीवितं ख्याति, ततो दशधा-दान देने से कीर्ति तथा पराक्रम से यश प्राप्त होता है। कुछ आचार्य यश जीवित और कीर्ति जीवित को एकार्थक मानते हैं तथा संयम के प्रतिपक्ष असंयमजीवित
को स्वीकार करके जीवित के दश भेद करते हैं। ३-७.देखें परि. ३ कथाएं।
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