Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
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के घर जाना नहीं चाहता था, फिर भी मित्र बलपूर्वक उसे भोजन के लिए घर ले गया। जब वह घर से चला गया तब उन पांच सौ कन्याओं ने सोचा- 'हमें उस स्वर्णकार से क्या प्रयोजन ? आज हम यथेच्छ स्नान आदि कर स्वर्णालंकार धारण करें।' सभी ने उद्वर्तन किया। स्नान कर उन चौदह प्रकार के अलंकारों को पहन कर सभी कन्याएं कांच में अपना रूप निहारती हुई बैठ गईं।
इतने में ही वह स्वर्णकार मित्र के घर से भोजन कर आ पहुंचा। उसने कन्याओं को देखा । अत्यंत रुष्ट होकर उसने एक को इतना पीटा कि वह मर गई। दूसरी विवाहित कन्याओं ने सोचा, यह हम सबको इसी प्रकार एक-एक कर मार डालेगा। अच्छा है, हम सब अपने-अपने कांच से मारकर इसको ढेर कर दें । सभी ने एक साथ उस पर कांच फेंके। चार सौ निन्यानवें काचों की मार से वह स्वर्णकार वहीं मर गया । वहां कांचों का ढेर हो गया। फिर उन सभी को पश्चात्ताप हुआ कि पतिमारक स्त्रियों की क्या गति होगी ? संसार में हमें अवहेलना सहन करनी पड़ेगी। यह सोच घर के कपाटों को बंद कर चारों ओर अग्नि प्रज्वलित कर उन सभी ने अपनी-अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली। पश्चात्ताप तथा करुणा के कारण अकामनिर्जरा के फलस्वरूप वे सभी मनुष्यरूप में उत्पन्न हुईं। अवस्था प्राप्त करने पर वे पांच सौ चोर बन गए और एक पर्वत पर रहने लगे। स्वर्णकार ने भी मर कर तिर्यञ्च योनि में जन्म लिया । स्वर्णकार ने जिस कन्या की हत्या पहले की थी, वह भी मर कर तिर्यञ्च योनि में गई। फिर वहां से मर कर वह एक ब्राह्मणकुल में बालक बनी। बालक पांच वर्ष का हुआ। उस स्वर्णकार का जीव भी तिर्यञ्चयोनि से उसी ब्राह्मणकुल में एक लड़की के रूप में उत्पन्न हुआ। वह बालक उस कन्या को उठाकर खेलता था, क्रीडा करता था । वह कन्या निरंतर रुदन करती तब वह ब्राह्मणपुत्र उसके उदर को पंपोलता। एक बार उसका हाथ लड़की की योनि को छू गया। लड़की ने रोना बंद कर दिया। लड़के ने सोचा कि मुझे उपाय मिल गया । अब जब कभी लड़की रोती, लड़का उसकी योनि पर धीरे से हाथ फेरता । माता-पिता को यह ज्ञात हुआ । तब उन्होंने बालक को पीटा और उपालंभ दिया। लड़की बड़ी हुई तब वह घर से भाग गई। लड़का भी घर से पलायन कर गया । दुर्जनों के सहवास से उस लड़के का आचार खराब गया। वह उस चोरपल्ली में पहुंचा, जहां वे चार सौ निन्यानवे चोर रहते थे। वह लड़की भी अकेली घूमती हुई एक गांव में पहुंची। उसी गांव में उन चोरों ने धावा बोला। उन चोरों ने उसको पकड़ लिया और पांच सौ चोर उसका उपभोग करने लगे। उन सब चोरों को यह आश्चर्य हुआ कि यह अकेली इतने चोरों को कैसे सहन कर पा रही है ? यदि दूसरी स्त्री प्राप्त हो जाए तो बेचारी इसको छुटकारा मिल सकता है, विश्राम मिल सकता है। एक बार चोरों ने किसी दूसरी स्त्री को प्राप्त कर लिया। वे उसे अपनी पल्ली में ले आए। उसी दिन से वह ब्राह्मणपुत्री उसके छिद्र देखने लगी और सोचने लगी कि किस उपाय से इसको मारा जाए। एक दिन उसने उससे कहा - 'देख, कूंए में कुछ दीख रहा है क्या ?' वह कूंए में देखने लगी। उसको पीछे से धक्का मार कूंए में गिरा दिया। चोरों ने उससे पूछा - 'वह कहां गई ?' तब उस ब्राह्मणपुत्री ने कहा- 'अपनी स्त्री की सारसंभाल क्यों नहीं करते?' चोरों ने सोचा- 'इसी ने उसको मारा है। तब उस चोर बने ब्राह्मणपुत्र ने मन ही मन निश्चय कर डाला कि यह पापकर्म करने वाली मेरी भगिनी ही है। भगवान् महावीर सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं, यह सुनकर वह ब्राह्मणपुत्र महावीर के समवसरण में उपस्थित हुआ । उसने ही भगवान् से पूछा- 'जा
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