Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
३३७ देखते ही वह बोल पड़ा- “ऐसा अवसर बार-बार देखने को मिले तथा यह स्थिति सदा बनी रहे।' आरक्षिकों ने उसे पीटते हुए कहा- 'ऐसे व्यक्ति शीघ्र मुक्त हों, ऐसा कहना चाहिए।'
आगे उसने देखा कि एक स्थान पर अनेक मित्र मिलकर गोष्ठी कर रहे थे। उनको देखते ही वह बोल उठा- 'आप सब लोग शीघ्र मुक्त हो जाएं अर्थात् अलग-अलग हो जाएं।' वहां भी उसे मार पड़ी। वहां से मुक्त होकर वह एक दंडिककुलपुत्र के घर गया और एक सेवक के रूप में रहने लगा।
एक बार दुर्भिक्ष में कुलपुत्र के घर राबड़ी रांधी गई। कुलपुत्र की वधू ने उससे कहा- 'तुम जाओ, लोगों के बीच बैठे कुलपुत्र को बुला लाओ।' उन्हें कहना-‘राबड़ी ठंडी होने पर खाने लायक नहीं रहेगी अतः जल्दी आकर खा लो।' उसने जाकर कुलपुत्र से कहा- 'घर शीघ्र चलो। राबड़ी ठंडी हो रही है।' लोगों के बीच ऐसा कहने पर कुलपुत्र लज्जित हुआ। घर पहुंचने पर उसने उस सेवक को उपालंभ देते हुए कहा- 'ऐसे कार्य को कान में धीरे से कहना चाहिए।' सेवक बोला— 'आगे से ध्यान रखूगा।'
एक बार कुलपुत्र के घर में आग लग गई। वह सेवक दौड़ा-दौड़ा गया और कुलपुत्र के कान में धीरे से बोला-'घर में आ लग गई है।' इस विलंब में घर जलकर राख हो गया। दंडिकपुत्र ने उपालंभ दिया। उसे ताड़ित करते हुए कहा- 'ऐसे अवसरों पर स्वामी को बताने के लिए दौड़धूप नहीं करनी चाहिए। स्वयं ही पानी से आग बुझाने का प्रयत्न करना चाहिए। गोरस आदि फेंक कर भी ज्यों-त्यों आग को बुझाना चाहिए।' एक बार कुलपुत्र धूम्रपान कर रहा था सेवक ने उसे आग समझ कर बुझाने के लिए गोबर आदि फेंका। जो दूसरों के कहने पर अन्य कार्य करता है, वह अननुयोग है। १४. श्रावकभार्या
एक श्रावक ने अपनी पत्नी की सखी को आभूषण आदि से सजा हुआ रूप देखा। वह उसमें आसक्त हो गया और उसकी स्मृति में दिनोंदिन दुर्बल होने लगा। पत्नी ने हठपूर्वक दुर्बल होने का कारण पूछा। उसने अपने मन की बात बता दी। पत्नी बोली- 'तुम चिन्ता मत करो। मैं उसको आपके पास ला दूंगी।' पति विश्वस्त हो गया। एक दिन पत्नी अपनी सखी के वस्त्राभूषण पहनकर अंधकार में पति के साथ सो गई। पति ने अपनी इच्छा पूरी की। दूसरे दिन वह एकपत्नी व्रत खंडित हो जाने के कारण अत्यंत दु.खी हो गया। पत्नी ने तब प्रमाणपूर्वक उसे विश्वास दिलाया कि सखी के रूप में वह स्वयं ही थी। १५. साप्तपदिक
किसी सीमान्त गांव में एक साप्तपदिक सेवक मनुष्य रहता था। वह साधु और ब्राह्मणों को न सुनता, न उनकी सेवा करता और न उनको आवास-स्थान ही देता था। वह मानता था कि उनको सम्मान देने से वे मेरे घर आएंगे, मुझे धर्म की बात कहेंगे। उनकी बात सुनकर मैं श्रद्धालु न हो जाऊं अतः अच्छा है उनसे दूर ही रहूं। एक बार उस गांव में साधु आ गए। उन्होंने रहने के लिए स्थान मांगा। साप्तपदिक के
१. आवनि ११८, आवचू. १ पृ. ११०, १११, हाटी. १ पृ. ६०, ६१, मटी. प. १३४, १३५, बृभाटी. पृ. ५३, ५४ । २. आवनि ११९, आवचू. १ पृ. १११, हाटी. १ पृ. ६१, मटी. प. १३५, बृभाटी. पृ. ५४, ५५ । ३. जो सात पदों से व्यवहार करता है, वह साप्तपदिक कहलाता है।
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