Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं
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से क्या प्रयोजन! मैं तो प्रव्रज्या ग्रहण करूंगा।' अभयकुमार ने सोचा- राजा भी कहीं दुःख से प्राण न त्याग दे इसलिए वह बोला- 'राजन् ! मैंने अन्त: पुर को आग नहीं लगाई, हस्तिशाला को ही जलाया है।' राजा प्रसन्न हो गया।
२१. रोगग्रस्त गाय
एक धूर्त के पास एक बहुक्षीरा गाय थी । वह रोगग्रस्त होने के कारण उठ नहीं सकती थी । एक व्यक्ति ने उस बैठी हुई गाय को पचास रुपयों में खरीद लिया। गाय बेचकर वह धूर्त भाग गया। खरीदने के पश्चात् उस व्यक्ति को यह ज्ञात हुआ कि वह रोगिणी थी। उसने उस गाय को बेचना चाहा । ग्राहक आते और कहते - ' भाई ! गाय को चला कर दिखाओ, फिर हम खरीदेंगे।' वह कहता- 'मैंने भी गाय को बैठी हुई ही खरीदा था। यदि आपको गाय पसंद हो तो बैठी हुई को ही खरीद लें।' उन्होंने कहा-' - 'तुम ठगे गए तो क्या हम भी ठगे जाएंगे ? २
२२. चन्दनकन्था
द्वारिका नगरी में वासुदेव के पास तीन प्रकार की भेरियां थीं- सांग्रामिकी, आभ्युदयिकी तथा कौमुदि । तीनों प्रकार की भेरियां गोशीर्षचन्दन से बनी हुई तथा देवताधिष्ठित थीं। वासुदेव के पास चौथी भेरी थी, जो अशिव का उपशमन करने में समर्थ थी । उसकी प्राप्ति का वृत्तान्त इस प्रकार है
एक बार इन्द्र ने देवसभा में वासुदेव का गुणोत्कीर्तन करते हुए कहा- 'अहो ! उत्तम पुरुषों के गुणों को क्या कहा जाए ? वे अवगुण ग्रहण नहीं करते तथा अधर्म युद्ध नहीं करते।' देवसभा में उपस्थित एक देव ने इन्द्र के कथन पर विश्वास नहीं किया । वह परीक्षा करने वासुदेव के पास आया। उस समय वासुदेव भगवान् को वंदना करने के लिए प्रस्थित हो रहे थे । देवता मरे हुए, सड़े-गले, दुर्गन्ध युक्त एक काले कुत्ते का रूप बनाकर मार्ग के पास लेट गया। उसकी दुर्गन्ध से सभी लोग भाग गए। वासुदेव ने कुत्ते के कलेवर को देखकर कहा - 'अहो ! काले वर्ण के कुत्ते पर सफेद दांत कितने सुन्दर लग रहे हैं । ' देवता ने सोचा - 'सच है, सच है, वासुदेव वस्तुतः गुणग्राही हैं। फिर वह देवता वासुदेव के अश्वरत्न को लेकर भाग गया। अश्वपालक ने यह देख लिया। वह रुष्ट हो गया। अनेक कुमार और राजा अश्व हरण करने वाले के पीछे दौड़े। देवता ने उन सबको हत-विहत कर भगा दिया । वासुदेव भी अश्व को मुक्त कराने निकले । उन्होंने कहा- 'अरे! तुम मेरे अश्व का अपहरण क्यों कर रहे हो ?' देवता बोला- 'अश्व लेना चाहते हो तो पहले मुझे पराजित करो।' वासुदेव बोले- 'ठीक है, पर हम कैसे युद्ध करें ? तुम भूमि पर हो और मैं रथ पर आरूढ हूं, तुम भी रथ ग्रहण कर लो।' देव बोला- 'रथ को रहने दो।' वासुदेव के कहने पर भी देवता अश्व, हाथी सभी का निषेध करता रहा। अन्त में वह बोला-'मैं भूमि पर ही हूं। तुम रथ पर आरूढ़ होकर मेरे से युद्ध करो।' तब वासुदेव बोले- 'मैं पराजित हो गया। तुम अश्वरत्न ले जाओ। मैं निम्नस्तर का युद्ध नहीं करता।' देवता संतुष्ट हुआ और बोला- 'महानुभाव ! कोई वरदान मांगो, मैं तुम्हें क्या दूं?'
१. आवनि ११९, आवचू. १ पृ. ११४, ११५, हाटी. १ पृ. ६४, मटी. प. १३८, बृभाटी. पृ. ५७, ५८ । २. आवनि १२१, आवचू. १ पृ. ११७, हाटी. १ पृ. ६५, मटी. प. १३९ /
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