Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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परि. ३ : कथाएं देखकर उसने एक उदाहरण देते हुए कहा- 'गिरिनगर में कोई रत्नवणिक् था। वह अपने घर में रत्नों को भरकर उनमें आग लगा देता था। उसको देखकर सब लोग उसकी प्रशंसा करते कि अहो! यह धन्य है जो भगवान् अग्नि को इस प्रकार तर्पण देता है। एक दिन उसने घर में आग लगाई। वायु का वेग प्रबल होने के कारण घर के साथ सारा नगर जल गया। राजा ने जब यह बात सुनी तो उसने उसका सर्वस्व हरण व लिया। दूसरे नगर में भी एक रत्नवणिक् ऐसा ही करता था। उस नगर के राजा ने जब यह बात सुनी तो उसका सर्वस्व हरण कर उसे देश निकाला देते हुए कहा- 'तुम अग्नि को अटवी में क्यों नहीं जलाते?' संविग्न साधु आचार्य को प्रेरणा देते हुए बोला- 'जिस प्रकार उस प्रथम वणिक् ने अपने अवशेष धन को भी जला दिया उसी प्रकार तुम भी उसकी प्रशंसा करते हुए अन्य साधुओं को भी विनष्ट कर दोगे। यदि इसका निग्रह नहीं किया जाएगा तो अन्य साधु भी भ्रष्ट हो जाएंगे। ४. जामाताओं की परीक्षा
एक नगर में एक ब्राह्मणी रहती थी। उसके तीन पुत्रियां थीं। वे सुखी कैसे रह सकती हैं इसलिए वह अपने जामाताओं की परीक्षा करना चाहती थी। एक दिन उसने बड़ी पुत्री को बुलाकर कहा-'जब तेरा पति आए तब उसके सिर पर एडी से प्रहार करना।' बड़ी लड़की ने वैसा ही किया। प्रहार से आहत होकर भी पति प्रसन्न रहा। वह पत्नी के पैर दबाने लगा। उसने अपनी पत्नी को किसी प्रकार का कष्ट नहीं दिया। उसने मां से सारी बात कही। मां बोली- 'बेटा! तुम जो करना चाहो, वह करो। पति तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।' दूसरी बेटी को भी मां ने यही शिक्षा दी। उसने भी पति पर वैसा ही प्रहार किया। प्रहार से खिन्न होकर पति कुछ देर बड़बड़ाया और फिर शान्त हो गया। बेटी ने आकर मां को सारी बात बताई तो मां बोली- 'पुत्री! तुम भी विश्वस्त होकर रहो। तुम्हारा पति कुछ भी हो जाने पर बड़बड़ा कर शान्त हो जाएगा।' तीसरी बेटी ने भी पति के सिर पर एडी से प्रहार किया। पति ने तत्काल रुष्ट होकर उसको खूब पीटा और उसकी भर्त्सना करते हुए कहा- 'क्या तुम निम्न कुल की हो, जो पति के साथ ऐसा बर्ताव करती हो?' उसने अपनी मां को सारी बात बताई। मां बोली- 'बेटी ! तुम अपने पति की देवता की भांति आराधना करना। उसको कभी छेड़ना मत।' पुत्री को समझाकर वह ब्राह्मणी अपने जामाता के पास गयी और बोली- 'पुत्र ! यह हमारा कुलधर्म है। तुम उसे बुरा मान गए।' इस प्रकार अनुनय करके उसे अनुकूल बनाया। ५. गणिका की बुद्धिमत्ता
एक नगर में चौसठ कलाओं में निपुण एक गणिका रहती थी। उसका रतिगृह अत्यंत विशाल था। उसने दूसरों के भावों को जानने के लिए सब प्रकार के हाव-भाव वाली स्त्रियों के भित्तिचित्र बनवाए। वहां जो भी बढ़ई आदि व्यापारी आते, वे जिस शिल्प की प्रशंसा करते गणिका उसके माध्यम से उनके भावों को जान जाती और तदनुरूप बर्ताव करती। तब वह आगन्तुक व्यक्ति उसके अनुकूल आचरण से प्रसन्न होकर
१. आवनि. ७५/१, आवचू. १ पृ. ७९, हाटी. १ पृ. ३५, मटी प. ८८ । २. आवचू. १ पृ. ८१, हाटी. १ पृ. ३७, मटी. प. ९२।
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