Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१. गोकुल का धनी कुचिकर्ण
इस भरतक्षेत्र के मगध जनपद में कुचिकर्ण नामक धनपति था । उसके पास अनेक गोकुल थे । उसने अपने गोकुलों को अनेक वर्गों में विभक्त कर उनके संरक्षण के लिए अलग-अलग ग्वालों की नियुक्ति कर दी। वे सब अपने-अपने गो-वर्ग को एक ही चारागाह में चराने के लिए ले जाते । विभिन्न गो-वर्ग की गाएं आपस में मिल जातीं। गायों की संख्या अधिक होने के कारण वे चरवाहे 'यह गाय मेरी है, तुम्हारी नहीं' इस प्रकार बोलकर आपस में कलह करने लगते। उनके इस कलह के कारण गायों के संरक्षण में प्रमाद होता और उस प्रमाद के कारण सिंह, व्याघ्र आदि हिंस्र पशु गायों को मार डालते । उचित संरक्षण के अभाव में वे गाएं विषम दुर्गों या खाइयों में गिरकर अंगविहीन हो जातीं अथवा मर जातीं।
कुचिकर्णगृहपति को जब यह स्थिति ज्ञात हुई तो उसने उन चरवाहों की असम्मूढता के लिए रंगों के आधार पर गायों को बांटकर भिन्न-भिन्न गायों के अलग-अलग गो-वर्ग बना दिए। काली, नीली, लाल, सफेद और चितकबरी गायों को रंगों के आधार पर तथा उनकी सींगों की आकृतियों के आधार पर उन्हें पृथक्-पृथक् गो-वर्गों में विभक्त कर ग्वालों को संरक्षण का भार दे दिया। अब वे ग्वाले अपनी गायों को पहचानने में संमूढ नहीं होते तथा कलह भी नहीं करते।"
२. कछुए का शोक
सेवाल से आच्छादित एक विशाल हृद था । उसमें अनेक जलचर जीव रहते थे। एक कछुआ उन जलचरों से व्यथित था। एक बार वह उस हद में घूम रहा था। उसे सेवाल -पटल में एक छिद्र दिखाई दिया। उसने अपना मुंह उस छिद्र से बाहर निकाला और शरदपूर्णिमा की चांदनी का सुखद स्पर्श अनुभव किया। वह अपने परिवार को भी उस सुखद अनुभूति का आस्वाद कराने के लिए निमज्जन कर अपने परिवार को साथ लेकर वहां आया और सेवाल में छिद्र की खोज करने लगा। सेवाल के कारण छिद्र न मिलने पर वह शोक करने लगा।
३. दोष-निवारण
बसन्तपुर नगर में अगीतार्थ साधुओं का एक गच्छ रहता था। उनमें एक गीतार्थ साधु, जो श्रमणगुणों से रहित था, प्रतिदिन सचित्त जल और आधाकर्मी आहार का सेवन करता था । संध्या के समय वह अपने दोषों की अत्यन्त संवेग के साथ आलोचना करता था । उस गच्छ के आचार्य अगीतार्थ थे अतः प्रायश्चित्त देते हुए कहते- 'अहो ! यह कितना पापभीरु साधु है । प्रतिसेवना करना सरल है पर स्पष्टता से आलोचना करना अत्यन्त कठिन है। यह कितनी सूक्ष्मता से अपने दोषों की आलोचना करता है। इसमें माया और शठता नहीं है अतः यह प्रतिसेवना करके भी शुद्ध है।' यह देख-सुनकर अन्य गीतार्थ श्रमण भी उसकी प्रशंसा करने लगे ।
एक बार कोई गीतार्थ और संविग्न साधु विहार करते हुए वहां आया। उसकी प्रतिदिन की चर्या
१. आवनि, ३७, आवचू. १ पृ. ४४, ४५, हाटी. १ पृ. २३, मटी. प. ५७ ।
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