Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति ६५९. कारक कौन है ? जो करता है, वह कारक है। कर्म क्या है ? जो करना है, वह कर्म है। कारक और करण का परस्पर अन्यत्व है या अनन्यत्व? यह आक्षेप है। ६६०. मेरी आत्मा ही कारक है, सामायिक कर्म है तथा आत्मा ही करण है। परिणाम के होने पर सामायिक ही आत्मा है, यही प्रसिद्धि है। ६६१. कर्ता, कर्म और करण का अभेद-जैसे कोई मुट्ठी बांधता है। (इसमें देवदत्त कर्ता है, उसका हाथ कर्म है और उसी का प्रयत्न विशेष करण है।) अर्थान्तर में (कर्ता, कर्म, करण का भेद होने पर) जैसे कुलाल घट आदि का कर्ता है-घट कर्म है तथा दंड-चक्र आदि करण हैं। द्रव्य का अर्थान्तरभाव-गुणी से सर्वथा भिन्न होने पर गुण का किसके साथ कौन सा संबंध होगा? ६६२. सर्व शब्द के सात निक्षेप हैं-नामसर्व, स्थापनासर्व, द्रव्यसर्व, आदेशसर्व, निरवशेषसर्व, सर्वधत्तसर्व तथा भावसर्व। ६६३. जो गर्हित अनुष्ठान है, वह सावध कहलाता है अथवा क्रोध आदि चार कषाय अवद्य हैं। अवद्य के साथ जो योग अर्थात् प्रवृत्ति होती है, वह सावध कहलाती है। सावध योग का प्रत्याख्यान होता है। ६६४. योग के दो प्रकार हैं-द्रव्ययोग, भावयोग । मन, वचन और काया के योग द्रव्ययोग हैं। भावयोग दो प्रकार का है-सम्यक्त्व आदि प्रशस्त भावयोग तथा मिथ्यात्व आदि अप्रशस्त भावयोग। ६६५. प्रत्याख्यान के छह निक्षेप हैं-नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, अतीच्छ और भाव। ६६६,६६७. निह्नव आदि का प्रत्याख्यान द्रव्य प्रत्याख्यान है। निर्विषय अर्थात् देशनिकाला मिलने वाले का क्षेत्र प्रत्याख्यान है। भिक्षा आदि का अदान अतीच्छ प्रत्याख्यान है (भिक्षा न देकर तू चला जा ऐसा कहना) भावप्रत्याख्यान दो प्रकार का है-श्रुतप्रत्याख्यान और नोश्रुतप्रत्याख्यान। श्रुतप्रत्याख्यान दो प्रकार का हैपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान तथा अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान । नोश्रुतप्रत्याख्यान के दो भेद हैं-मूलगुणप्रत्याख्यान और उत्तरगुणप्रत्याख्यान। ६६८. यावद् शब्द अवधारण अर्थ में तथा जीवन शब्द प्राणधारण अर्थ में प्रसिद्ध है। आप्राणधारणात्अर्थात् प्राणधारण तक पापनिवृत्ति होती है। १. वृत्तिकार कहते हैं कि गुण का किसी के साथ कोई संबंध नहीं है। ज्ञान आदि भी गुण हैं। वे आत्मा आदि गुणी से
एकान्त भिन्न हैं (आवहाटी. १ पृ. ३१८)। २. धत्त अर्थात् निहित। ३. १. पूर्वश्रुतप्रत्याख्यान-नौवां प्रत्याख्यान पूर्व।
२. अपूर्वश्रुतप्रत्याख्यान-आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक ग्रंथ। ३. मूलगुणप्रत्याख्यान-सर्वमूलगुण (महाव्रत), देशमूलगुण (अणुव्रत)। ४. उत्तरगुणप्रत्याख्यान-सर्वउत्तरगुण (अनागत आदि दस प्रत्याख्यान)।
५. देशउत्तरगुण-तीन गुणव्रत चार शिक्षाव्रत (आवहाटी. १ पृ. ३१९)। ४. आवहाटी. १ पृ. ३२० ; इह च जीवनं जीव इति क्रियाशब्दोऽयं न जीवतीति जीव आत्मपदार्थः, जीवनं तु प्राणधारणम्।
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