Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति उत्कृष्ट अन्तर काल देश न्यून अर्द्धपुद्गलपरावर्तन है। नानाजीवों की अपेक्षा से अन्तर काल शून्य है। भाव की अपेक्षा से नमस्कार (बहुलतया) क्षायोपशमिक भाव में होता है। ५८०. नमस्कार प्रतिपन्नक जीव जीवों का अनन्तवां भाग है। शेष अनन्तगुणा जीव नमस्कार अप्रतिपन्नक हैं। अर्हत् आदि पंच परमेष्ठी वस्तुत्व से वंदनीय हैं। उसका हेतु यह है। ५८०/१. पांच प्रकार की प्ररूपणा-आरोपणा, भजना, पृच्छा, दर्शना अथवा दापना तथा निर्यापना, अथवा चार प्रकार की प्ररूपणा होती है-नमस्कार, अनमस्कार, नोनमस्कार, नोअनमस्कार। (इन दोनों प्रकार की प्ररूपणाओं को मिलाने पर प्ररूपणा (५+४) नौ प्रकार की होती है।) ५८१. मैं इन हेतुओं से पंचविध नमस्कार करता हूं-मार्ग, अविप्रणास, आचार, विनय और सहायत्व । ५८२. अर्हत् अटवी में मार्ग-देशक, समुद्र में निर्यामक तथा षट्काय की रक्षा के लिए महागोप हैं, यह कहा जाता है। ५८२/१, २. जैसे निपुण मार्गदर्शक के उपदेश से पथिक अपाय-बहुल अटवी को पारकर अपने गंतव्य स्थान को पा लेता है, वैसे ही प्राणी जिनोपदिष्ट मार्ग पर चलते हुए निर्वृतिपुरी (मोक्ष) को पा लेते हैं। इससे जिनेन्द्र देव का अटवी में देशिकत्व जानना चाहिए। ५८२/३, ४. अमुक नगर या गांव में जाने का इच्छुक व्यक्ति परम उपकारी उस सार्थवाह को भक्तिपूर्वक नमस्कार करता है, जो उसे उस नगर या गांव में निर्विघ्न पहुंचा देता है। उसी प्रकार मोक्षार्थियों के लिए जिनेश्वर देव सार्थवाह की भांति होते हैं। अर्हत् भाव-नमस्कार के योग्य हैं क्योंकि वे राग, मद' और मोह को क्षीण कर चुके हैं। ५८२/५. मिथ्यात्व तथा अज्ञान से मोहित पथ वाली संसार रूपी अटवी में जो पथदर्शक बनें, उन अर्हतों को मैं नमस्कार करता हूं। १. आवहाटी. १ पृ. २५५, प्राचुर्यमंगीकृत्यैतदुक्तम्, अन्यथा क्षायिकौपशमिक्योरप्येके वदंति, क्षायिके यथा श्रेणिकादीनाम,
औपशमिके श्रेण्यन्तर्गतानाम्-बहुलता की अपेक्षा से क्षयोपशम भाव लिया है। अन्यथा क्षायिक और औपशमिक भाव
भी रहता है। क्षायिक जैसे श्रेणिक के तथा श्रेणी में वर्तमान जीव के औपशमिक भाव होता है। २. आवहाटी. १ पृ. २५५; परस्परावधारणम् आरोपणा-परस्पर अवधारण करना आरोपणा है। ३. आवहाटी.१ पृ. २५५; दापना प्रश्नार्थव्याख्यानम्-प्रश्न द्वारा अर्थ का व्याख्यान करना दापना अथवा दर्शना है। ४. आवहाटी. १ पृ. २५५; निर्यापना तु तस्यैव निगमनमिति-निगमन या उपसंहार करना निर्यापना है। ५. अर्हत् नमस्कारार्ह हैं क्योंकि वे मोक्षमार्ग प्रदर्शित करते हैं। सिद्ध नमस्कारार्ह हैं क्योंकि वे अविप्रणास-शाश्वत हैं। आचार्य नमस्कारार्ह हैं क्योंकि वे आचार का पालन करते हैं, कराते हैं। उपाध्याय नमस्कारार्ह हैं क्योंकि वे विनय-कर्मों का विनयन करते हैं।
साधु नमस्कारार्ह हैं क्योंकि वे मोक्षावाप्ति में सहायभूत होते हैं। ६. देखें परि. ३ कथाएं। ७. आवहाटी. १ पृ. २५७ ; मदशब्देन द्वेषोऽभिधीयते-यहां 'मद' शब्द द्वेष अर्थ में प्रयुक्त है।
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