Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति ५९५/२. वह पृथ्वी निर्मल-श्लक्ष्ण उदक कणिका के समान वर्ण वाली, तुषार, गोक्षीर तथा हार के सदृश वर्णवाली है। वह उत्तानछत्र जैसे संस्थान वाली है-ऐसा जिनेश्वर देवों ने कहा है। ५९५/३. इसका प्रमाण (परिधि) है-एक करोड़, बयालीस लाख, तीस हजार दो सौ उनपचास योजन। ५९५/४. इसके मध्यभाग की ऊंचाई आठ योजन है। यह चरमान्त में अंगुल के असंख्य भाग जितनी पतली
५९५/५. एक-एक योजन आगे चलने पर इसकी मोटाई में अंगुलपृथक्त्व की हानि होती जाती है। उसके पर्यन्तभाग मक्षिका की पांखों से भी अधिक पतले हो जाते हैं। ५९५/६. ईषत्प्राग्भारा सीता पृथ्वी के एक योजन का ऊपरवर्ती जो कोश है, उसके छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना कही गई है। ५९५/७. सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना है-३३३ धनुष्य तथा धनुष्य का तीसरा भाग (१ हाथ ८ अंगुल)। यह कोश का छठा भाग है इसीलिए कोश के छठे भाग में सिद्ध कहे गए हैं। ५९५/८. सिद्ध होने वाला जीव सीधा सोया हुआ, पार्श्वस्थित या तिर्यस्थित हो, बैठा हुआ हो अथवा जो जिस स्थिति में मृत्यु प्राप्त करता है, वह उसी स्थिति में सिद्ध अवस्था में स्थित हो जाता है। ५९५/९. कर्मों की परवशता के कारण ही जीव भवान्तर में इस जन्म से भिन्न आकार वाला होता है। सिद्ध होने वाले के लिए ऐसा नहीं होता। वह तदाकार-पूर्वभव के आकार वाला ही होता है। ५९५/१०. जो जीव जिस संस्थान में शरीर छोड़ता है, चरम समय में प्रदेशों के घनत्व के कारण सिद्ध होने पर वही संस्थान होता है। ५९५/११. चरम भव में दीर्घ या हस्व जो भी संस्थान होता है, उससे तीन भाग हीन (एक तिहाई) सिद्ध की अवगाहना होती है। ५९५/१२-१४. सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना ३३३ धनुष्य तथा धनुष्य का तीसरा भाग (१ हाथ ८ अंगुल), मध्यम अवगाहना ४ हाथ १६ अंगुल तथा जघन्य अवगाहना १ हाथ ८ अंगुल होती है।
१. सिद्ध होने से पूर्व देह का शुषिर भाग आत्मप्रदेशों से पूरित होने के कारण सधन हो जाता है, उनका आकार पूर्ववत् स्थिर नहीं रहता। पूर्व आकार के तीसरे भाग में वे प्रदेश व्यवस्थित हो जाते हैं। यद्यपि सिद्ध अमूर्त होते हैं, उनका कोई
आकार नहीं होता लेकिन पूर्व आकार की अपेक्षा सिद्धों की अवगाहना स्वीकृत की गयी है। २. सिद्ध होने वाले जीवों की उत्कृष्ट अवगाहना पांच सौ धनुष, मध्यम अवगाहना सात हाथ और जघन्य अवगाहना दो हाथ
होती है। विस्तार के लिए देखें श्रीभिक्षु आगम विषय कोश पृ. ७०९, ७१० ।
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