Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति गणधर शिष्य रहित थे। ३६८. गणधरों के संशय क्रमशः इस प्रकार थे
जीव है या नहीं? कर्म है या नहीं? जीव और शरीर एक है। पृथ्वी, अप् आदि भूत हैं या नहीं? इस भव में जैसा है, परभव में भी वैसा ही होता है। बंध-मोक्ष हैं या नहीं? देव हैं या नहीं? नारक हैं या नहीं?
पुण्य है या नहीं? १०. परलोक है या नहीं? ११. निर्वाण है या नहीं? ३६९. प्रथम पांच गणधरों के ५००-५०० शिष्यों का परिवार था, दो गणधरों का ३५०-३५० शिष्यों का, दो गणधरयुगल अर्थात् चार गणधरों का ३००-३०० शिष्यों का परिवार था। ३६९/१. भवनपति, व्यंतर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक-इन चारों प्रकार के देवताओं ने अपनी सम्पूर्ण ऋद्धि एवं परिषद् के साथ भगवान् महावीर के केवलज्ञान की उत्पत्ति का उत्सव मनाया। ३७०. जिनेश्वर देव की देवताओं द्वारा की जाने वाली पूजा-अर्चा को सुनकर अहंमानी इन्द्रभूति मात्सर्यभाव से समवसरण में आया। ३७१, ३७२. जन्म, जरा और मरण से विप्रमुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी भगवान् महावीर इन्द्रभूति के नाम और गोत्र का उल्लेख करते हुए बोले, 'गौतम ! तुम्हें यह संशय है कि जीव है या नहीं? तुम वेद-पदों के अर्थ को नहीं जानते। उनका अर्थ इस प्रकार है।' ३७३. जरा और मरण से विप्रमुक्त जिनेश्वर देव द्वारा गौतम का संशय मिट जाने पर वह अपने पांच सौ शिष्यों के साथ उनके पास प्रव्रजित होकर श्रमण बन गया। ३७४. अपने भाई इन्द्रभूति को प्रव्रजित सुनकर दूसरा गणधर अग्निभूति समवसरण में आया। उसके मन में भी अमर्ष था। उसने सोचा कि मैं जाऊं और उस श्रमण ऐन्द्रजालिक को पराजित कर इन्द्रभूति को ले आऊं। ३७५, ३७६. जन्म, जरा और मृत्यु से विप्रमुक्त, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी जिनेश्वर महावीर ने अग्निभूति को नाम और गोत्र से संबोधित किया- 'हे अग्निभूति! तुम्हें यह संशय है कि कर्म का अस्तित्व है या नहीं? तुम वेद-पदों का अर्थ नहीं जानते। सुनो, उनका मर्म यह है।'
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