Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
२४३ ५४८. सम्यक्त्वसामायिक, विरताविरतिसामायिक और विरतिसामायिक की प्राप्ति के ये उपाय हैं-१. अभ्युत्थान, २. विनय, ३. कषायजय में पराक्रम तथा ४. साधु-सेवा। ५४९. सम्यक्त्वसामायिक तथा श्रुतसामायिक की स्थिति कुछ अधिक छासठ सागरोपम की है। देशविरति
और सर्वविरति सामायिक की स्थिति देशोन पूर्वकोटि की है।' ५५०. सम्यक्त्वसामायिक तथा देशविरतिसामायिक के प्रतिपत्ता प्राणी एक समय में उत्कृष्टतः क्षेत्रपल्य के असंख्येयभाग में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उतने होते हैं। श्रेणी के असंख्येय भाग प्रदेशों जितने श्रुतसामायिक वाले तथा विरतिसामायिक के प्रतिपत्ता श्रेणी के सहस्राग्रशः भाग जितने प्रदेश वाले होते हैं। ५५१. वर्तमान में सम्यक्त्वसामायिक तथा देशविरतिसामायिक वाले पूर्वप्रतिपन्नक की अपेक्षा असंख्येय
और चारित्रसामायिक वाले संख्येय हैं। तीनों अर्थात् चारित्रसामायिक, देशचारित्रसामायिक तथा सम्यक्त्वसामायिक-आपस में अनन्तगणा प्रतिपतित हैं। ५५२. वर्तमान में श्रुतसामायिक के प्रतिपन्नक प्रतर के असंख्यभाग मात्र हैं। शेष सभी संसारी प्राणी श्रुतप्रतिपतित हैं अर्थात् सम्यक्त्व प्रतिपतित से भी अनंत गुणा अधिक श्रुतप्रतिपतित हैं। ५५३. श्रुतसामायिक का उत्कृष्ट अंतर एक जीव की अपेक्षा से अनंतकाल का होता है। सम्यक्त्वसामायिक आदि का जघन्य अंतर अंतर्मुहूर्त काल तथा उत्कृष्ट अंतर देशोन अर्द्धपुद्गलपरावर्तन काल का होता है। यह उत्कृष्ट अंतर आशातना बहुल जीवों का होता है। ५५४. सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक तथा देशविरतिसामायिक का नैरन्तर्य प्रतिपत्तिकाल आवलिका का असंख्येय भाग मात्र है। चारित्रसामायिक का नैरन्तर्य प्रतिपत्तिकाल आठ समय का तथा सभी सामायिकों
१. तेतीस सागर की स्थिति वाले विजय आदि विमानों में दो बार उत्पन्न होने पर अथवा बाईस सागर की स्थिति वाले
अच्युत विमान में तीन बार उत्पन्न होने पर सम्यक्त्वसामायिक और श्रुतसामायिक की स्थिति छियासठ सागर की होती है। इन देव-भवों के मध्य में होने वाले मनुष्य भव की स्थिति मिलाने पर वह कुछ अधिक छियासठ सागर की हो जाती
है (आवहाटी. १ पृ. २४१) । २. आवहाटी. १ पृ. २४१; तत्र चरणप्रतिपतिता अनंताः, तदसंख्येयगुणास्तु देशविरतिप्रतिपतिताः, तदसंख्येयगुणाश्च
सम्यक्त्वप्रतिपतिता इति-प्राक्प्रतिपन्नों से प्रतिपद्यमान अनन्तगुणा, उससे चरणप्रतिपतित अनन्तगुणा, उससे
देशविरतिप्रतिपतित असंख्येयगुणा तथा उससे असंख्येयगुणा हैं सम्यक्त्वप्रतिपतित। ३. श्रुत सामायिक का जघन्य और उत्कृष्ट अंतर काल मिथ्या अक्षरश्रुत की अपेक्षा से है। कोई द्वीन्द्रिय आदि जीव श्रुत प्राप्त
कर मृत्यु के पश्चात् पृथ्वी आदि में उत्पन्न होता है, वहां अंतर्मुहूर्त रहकर पुनः द्वीन्द्रिय आदि में उत्पन्न होकर श्रुत प्राप्त करता है, उसके अंतर्मुहूर्त का अंतर काल होता है तथा जो द्वीन्द्रिय आदि जीव मरकर पृथ्वी, वनस्पति आदि एकेन्द्रिय में पुनः पुनः उत्पन्न होता है और वहां अनंतकाल तक रहता है तत्पश्चात् द्वीन्द्रिय आदि में उत्पन्न हो श्रुत प्राप्त करता है उसकी अपेक्षा से अनंतकाल का उत्कृष्ट अंतर काल कहा गया है। यह अनंतकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन जितना
होता है। ४. आवहाटी. १ पृ. २४१; तित्थगरपवयणसुयं, आयरियं गणहरं महिड्डीयं। आसायन्तो बहसो, अणंतसंसारिओ होइ॥
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