Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक निर्युक्ति
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५३२. केश', अलंकार, शयन आदि का परित्यक्ता/ अपरित्यक्ता अथवा परित्याग करता हुआ व्यक्ति चारों में से किसी एक सामायिक का प्रतिपन्नक होता है ।
५३३. सम्यक्त्वसामायिक का विषय सर्वगत ( अर्थात् सभी द्रव्यों और पर्यायों का ) होता है। श्रुतसामायिक और चारित्रसामायिक' का विषय सर्व पर्याय एवं सर्व विषय नहीं हैं। देशविरतिसामायिक के प्रसंग में सर्व द्रव्य और सर्व पर्याय दोनों का प्रतिषेध है।
५३४. लोक में इनकी प्राप्ति दुर्लभ है - मनुष्यजन्म, आर्यक्षेत्र, जाति, कुल, रूप, आरोग्य, आयुष्य, बुद्धि, श्रवण, अवग्रह - धर्म का धारण, श्रद्धा तथा संयम ।
५३५. मनुष्य-जन्म की दुर्लभता के दस दृष्टान्त हैं - १. चोल्लक, २. पाशक, ३. धान्य, ४. द्यूत, ५. रत्न, ६. स्वप्न, ७. चक्र, ८. चर्म, ९. युग और १०. परमाणु ।
५३६. समुद्र के पूर्वान्त में जूआ है तथा पश्चिमान्त में उसकी समिला (जूए की कील) है । उस समिला का जू के छिद्र में प्रवेश संशयपूर्ण है इसी प्रकार मनुष्य का जन्म पुनः मिलना दुर्लभ है।
५३६/१, २. जैसे आरपार रहित समुद्र के पानी में प्रभ्रष्ट समिला निरंतर घूमती हुई प्रवहमान जूए के छिद्र में ज्यों-त्यों प्रवेश कर भी जाए, प्रचंड वायु से तरंगित तरंगों से प्रेरित होकर ज्यों-त्यों युग छिद्र को प्राप्त कर भी ले, परंतु मनुष्य जन्म से भ्रष्ट जीव पुनः मनुष्य जन्म नहीं पा सकता।
५३७. इस प्रकार दुर्लभता से प्राप्य मानुषत्व को प्राप्त कर जो जीव परत्रहित - परलोक हितार्थ धर्म का आचरण नहीं करता, वह संक्रमणकाल - मरणकाल में दुःखी होता है ।
५३८-५४०. जैसे कीचड़ के बीच फंसा हुआ हाथी, गलगृहीत मत्स्य, मृगजाल में फंसा हुआ मृग तथा
में फंसा हुआ पक्षी दुःखी होता है, वैसे ही जीव मृत्यु और जरा से व्याप्त तथा त्वरितनिद्रा - मरणनिद्रा अभिभूत होकर त्राता को प्राप्त न करता हुआ कर्मभार से प्रेरित होकर, अनेक जन्म-मरण तथा सैकड़ों परावर्तन करता हुआ कठिनाई पूर्वक यथेच्छ मानुषत्व को प्राप्त करता है ।
५४१. दुर्लभता से प्राप्य तथा विद्युलता की भांति चंचल मनुजत्व को प्राप्त कर जो व्यक्ति प्रमाद करता है, वह कापुरुष है, सत्पुरुष नहीं ।
५४२, ५४३. अत्यंत दुर्लभ मनुष्य जन्म को प्राप्त करके भी जीव आलस्य, मोह, अवज्ञा, अहंकार, क्रोध, प्रमाद, कृपणता, भय, शोक, अज्ञान, व्याक्षेप, कुतूहल तथा रमण-क्रीडा- इन कारणों से हितकारी तथा
१. आवहाटी १ पृ. २२७ ; केशग्रहणे कटककेयूराद्युपलक्षणम् - यहां 'केश' शब्द कटक, केयूर आदि के लिए भी प्रयुक्त है। २. द्रव्य में अभिलाप्य और अनभिलाप्य दोनों प्रकार के पर्याय होते हैं । श्रुत केवल अभिलाप्य पर्यायों को ही ग्रहण कर सकता है अतः उसका विषय सर्व पर्याय नहीं होता । चारित्रसामायिक का विषय सर्व द्रव्य तो है परन्तु सर्व पर्याय नहीं है ( आवहाटी. १ पृ. २२७ ) ।
३. वह न सर्वद्रव्य विषयक होता है और न सर्वपर्याय विषयक ।
४. दस दृष्टान्तों की कथा हेतु देखें निर्युक्ति पंचक परि. ६ पृ. ५२९ - ५४६ ।
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