Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति यावज्जीविका-जीवनपर्यन्त की थी। शेष निह्नवों के दो-दो दोष जानने चाहिए।' ४९०. ये सातों निर्ग्रन्थरूप दृष्टियां जन्म-जरा-मरण-गर्भवसतिरूप संसार का मूल कारण हैं। ४९१. निह्नव प्रवचन के प्रति अकिंचित्कर होते हैं। जिस क्षेत्र और काल में जो अशन आदि उनके लिए बनाया जाता है, वह मूलगुण से संबंधित हो अथवा उत्तरगुण से, वे उसका परिहार वैकल्पिकरूप से करते हैं अर्थात् कभी करते हैं, कभी नहीं भी करते। ४९२. मिथ्यादृष्टि वालों के लिए जिस काल और जिस क्षेत्र में जो अशन आदि बनाया जाता है, वह चाहे मूलगुण से संबंधित हो अथवा उत्तरगुण से, वह सारा शुद्ध है-कल्प्य है। ४९३. तप और संयम-ये दोनों मोक्षांग के रूप में अनुमत हैं। (इनसे सर्वविरति सामायिक तथा विरताविरति सामायिक-दोनों गृहीत हैं।) निर्ग्रन्थ प्रवचन से श्रुतसामायिक तथा सम्यक्त्वसामायिक गृहीत है। व्यवहारनय (नैगम और संग्रहनय सहित) में चारों प्रकार की सामायिक अनुमत है। शब्दनय और ऋजुसूत्र नय निर्वाण को ही संयम मानता है। ४९४. आत्मा सामायिक है। सावध योग का प्रत्याख्यान करने वाला आत्मा है। वह प्रत्याख्यान समवायरूप से समस्त द्रव्यों का होता है। ४९५. पहले महाव्रत का विषय है-सर्व जीव जगत्। दूसरे और पांचवें महाव्रत का विषय है-सर्व द्रव्य । शेष दो महाव्रतों-तीसरे तथा चौथे का विषय है-द्रव्य का एक देशमात्र। ४९६. द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से गुणप्रतिपन्न जीव सामायिक है। पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा से जीव का वही गुण सामायिक है। ४९७. गुण ही उत्पाद और व्ययरूप में होते हैं, द्रव्य नहीं। द्रव्य से गुण उत्पन्न होते हैं लेकिन गुण से द्रव्य उत्पन्न नहीं होते। ४९८. प्रयोग और विस्रसाभाव से द्रव्य जो-जो और जिन-जिन भावों को परिणत करता है, केवली उनको वैसा ही जानता है। अपर्याय अर्थात् निराकार का ज्ञान नहीं होता। ४९९. सामायिक के तीन प्रकार हैं-सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक तथा चारित्रसामायिक। चारित्रसामायिक के दो प्रकार हैं-अगारचारित्रसामायिक तथा अनगारचारित्रसामायिक। ५००. अध्ययन के तीन प्रकार हैं-सूत्र विषयक, अर्थ विषयक तथा तदुभय विषयक। शेष अध्ययनों में भी यही नियुक्ति है।
१. बहरतवादी जीवप्रदेशवादियों को कहते कि तुम दो बातों से मिथ्यादृष्टि हो- तुम एक प्रदेश को जीव तथा क्रियमाण को
कृत कहते हो। गोष्ठामाहिल बहुरतवादियों को कहते कि तुम तीन दृष्टियों से मिथ्यादृष्टि हो-कृत को कृत, बद्धकर्म का वेदन तथा यावज्जीवन प्रत्याख्यान (आवहाटी. १ पृ. २१७)।
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