Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक निर्युक्ति
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३६२/२५. जैसे बरसात का पानी एक रूप होता है, किन्तु भाजन विशेष से उसमें अनेक वर्ण आदि प्रतीत होते हैं। वैसे ही जिनेश्वर देव की भाषा एक रूप होती है, किन्तु वह सभी प्राणियों की अपनी-अपनी भाषा में परिणत हो जाती है।
३६२/२६. भगवान् की वाणी साधारण तथा अद्वितीय होती है, इसलिए श्रोताओं का उसमें अर्थोपयोग होता है। ग्राह्य होने के कारण उनकी वाणी सुनते-सुनते श्रोता नहीं अघाता। यहां वणिक् की स्थविरा दासी का उदाहरण जानना चाहिए।
३६२/२७. यदि तीर्थंकर सतत धर्म देशना देते रहें तो श्रोता अपना पूरा जीवन उनके पास सर्दी-गर्मी, भूख-प्यास, परिश्रम आदि भयों से अतीत होकर बिता देता है ।
३६२/२८,२९. चक्रवर्ती साढे बारह लाख सौनेये का वृत्तिदान तथा साढे बारह करोड़ का प्रीतिदान देते हैं। मांडलिक राजा साढे बारह हजार रजत का वृत्तिदान तथा साढे बारह लाख रजत का प्रीतिदान देते हैं। ३६२/३०. जब जिनेश्वर देव के आगमन की सूचना नियुक्त अथवा अनियुक्त व्यक्तियों के द्वारा सुनते हैं तब भक्ति और ऐश्वर्य के अनुरूप अन्य धनपति आदि भी दान देते हैं।
३६२/३१. इस दान से देवानुवृत्ति, भक्ति, पूजा, स्थिरीकरण, सत्त्वानुकंपा, सातोदयकर्म का बंध आदि गुण होते हैं तथा तीर्थ की प्रभावना भी होती है।
३६२/३२, ३३. बलि के लिए आढक (चार सेर) चावल लिए जाते हैं। दुर्बल स्त्री द्वारा उनके छिलके उतार लेने के पश्चात् बलवान स्त्री उनको फटकती है। वे चावल भिन्न-भिन्न घरों में बीनने के लिए भेजे जाते हैं और कार्य पूरा होने पर मंगा लिए जाते हैं। तत्पश्चात् अखंड और अस्फुटित चावलों को एक फलक पर फैला दिया जाता है । फिर उनसे राजा अथवा अमात्य, इनके अभाव में पुरवासी अथवा जनपद- निवासी बलि का निर्माण करते हैं। देवता उस बलि में सुगंधित द्रव्यों का प्रक्षेप करते हैं।
३६२/३४. बलि का प्रवेश समवसरण के पूर्व द्वार से होता है । बलि प्रवेश के समय ही भगवान् धर्मकथा से उपरत हो जाते हैं। बलि को लेकर राजा आदि भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा कर भगवान् के चरणों में बलि चढ़ाते हैं । बलि का अर्धभाग जमीन पर गिरने से पूर्व ही देवता उसे ग्रहण कर लेते हैं ।
१. आवचू. १ पृ. ३३१; साधारणा णरगादिदुक्खेहिंतो रक्खणाओ - चूर्णिकार ने नरक आदि दुःखों से रक्षा करने के कारण भगवान् की वाणी को साधारण कहा है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार साधारण का अर्थ है भगवान् की वाणी का अनेक प्राणियों की अपनी-अपनी भाषा में परिणमन होना (आवहाटी. १ पृ. १५८ ) ।
२. देखें परि. ३ कथाएं ।
३. जब तीर्थंकर समवसृत होते हैं, तब राजा आदि को उनके आगमन की सूचना देने पर पुरुषों को वृत्तिदान और प्रीतिदान दिया जाता है । वृत्तिदान नियुक्त पुरुषों को दिया जाता है, वह संवत्सर नियत होता है। प्रीतिदान नियुक्त पुरुषों से इतर पुरुषों को भी दिया जाता है और वह अनियत होता है ( आवहाटी. १ पृ. १५९ ) ।
४. इस मान्यता से सम्पादक की सहमति होना आवश्यक नहीं है।
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