Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
१८३ का अवसर्पण होने पर करते हैं।' १३६/१४. नियमतः मनुष्य गति में शुभलेश्या वाले स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक, जिन्होंने इन बीस स्थानों में से किसी एक का भी अनेक बार स्पर्श किया हो, उनके तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है। १३६/१५. बाहु, सुबाहु आदि पांचों सर्वार्थसिद्ध देवलोक में उत्पन्न हुए। सबसे पहले ऋषभ का जीव वहां से उत्तराषाढा नक्षत्र में आषाढ कृष्णा चतुर्थी को च्युत हुआ। १३७. जन्म, नामकरण, वृद्धि, जातिस्मरण, विवाह, अपत्य, अभिषेक तथा राज्यसंग्रहण-इन विषयों का विवरण प्रस्तुत है। १३७/१. चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन आषाढा नक्षत्र में ऋषभ का जन्म हुआ। जन्म-महोत्सव से घोषणा पर्यन्त सारा वर्णन ज्ञातव्य है। १३७/२. जन्म महोत्सव के समय दिक्कुमारियां संवर्तक मेघ की विकुर्वणा करती हैं तथा दर्पण, शृंगार
और तालवृन्त को लेकर खड़ी रहती हैं। कुछ दिक्कुमारियां चामर और ज्योति की रक्षा करती हैं। १३७/३. बालक ऋषभ कुछ कम एक वर्ष के हुए तब शक्र के आने पर इक्ष्वाकु वंश की स्थापना हुई। देवता मनोज्ञ आहार को बालक के अंगठे पर स्थापित कर देते हैं। (बालक तीर्थंकर स्तनपान नहीं करते, भूख लगने पर अंगूठा चूसते हैं)। १३७/४. वंश स्थापना के लिए इंद्र के आने पर वह भगवान् से इक्षु ग्रहण करने के लिए पूछता है। भगवान के हां कहने पर इक्ष्वाकु वंश की स्थापना होती है। जो वस्तु जिस प्रकार से, जिस अवस्था में योग्य थी, शक्र ने वह सारा संपादित किया। १३७/५. देवलोक से च्युत भगवान् ऋषभ अतुल श्री से बढ़ने लगे। देवगण से परिवृत शक्र वहां आया और नंदा तथा सुमंगला के साथ भगवान् का विवाह रच डाला। १. आवहाटी. १ पृ. ८० ; तीर्थंकर नामगोत्र कर्म की उत्कृष्ट बंध स्थिति एक कोटाकोटि सागरोपम है। जिस भव में इसका
बंध होता है, उस समय से लेकर अपूर्वकरण (क्षपकश्रेणी) के संख्येय भाग तक इस कर्मप्रकृति का सतत उपचय होता है और केवलज्ञान की अवस्था में इसका उदय होता है। तीर्थंकर जिस भव में इस कर्म का बंध करते हैं, उसके
पश्चात् तीसरे भव में अवश्य इसका वेदन कर मुक्त हो जाते हैं। २,३. देखें परि. ३ कथाएं। ४. आवहाटी.१ पृ.८४; एवमतिक्रान्तबालभावस्तु अग्निपक्वं गृहन्ति, ऋषभनाथस्तु प्रव्रज्यामप्रतिपन्नो देवोपनीतमेवाहारमुपभुक्तवान्
सभी तीर्थंकर शैशव अतिक्रान्त होने पर अग्नि में पका हुआ भोजन करते हैं लेकिन भगवान् ऋषभ ने यह भोजन नहीं किया। उन्होंने प्रव्रज्या से पूर्व देवों द्वारा आनीत उत्तरकुरु भूमि के स्वादिष्ट फलों का आहार किया। आवहाटी. १ पृ. ८४ ; जीतमेतं अतीतपच्चुप्पण्णमणागयाणं सक्काणं देविंदाणं पढमतित्थगराणं वंसट्ठवणं करेत्तएत्ति,.....जम्हा तित्थगरो इक्खू अहिलसइ, तम्हा इक्खागवंसो भवउ, पुव्वगा य भगवओ इक्खुरसं पिवियाइया तेण गोत्तं कासवं ति। इंद्र प्रथम तीर्थंकर के वंश की स्थापना करते हैं-यह परम्परा है। इंद्र ने सोचा कि ऋषभ को इक्षु प्रिय है इसलिए इस वंश का नाम इक्ष्वाकु रहेगा। ऋषभ के पूर्वज इक्षुरस पीते थे अत: वे काश्यपगोत्री कहलाए। देखें परि. ३ कथाएं।
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