Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
२०३ २६५, २६६. राजगृह में विश्वनंदी राजा और उसका भाई विशाखभूति युवराज था। युवराज के पुत्र का नाम विश्वभूति तथा महाराज विश्वनंदी के पुत्र का नाम विशाखनंदी (मरीचि का जीव) था। विशाखभूति का पुत्र विश्वभूति राजगृह में पुष्पकरंडक नामक उद्यान में स्वच्छंद क्रीडा करता था। उस क्षत्रिय का आयुष्य एक कोटि वर्ष का था। उसी भव में संभूति मुनि के पास दीक्षा ग्रहण कर हजार वर्ष तक दीक्षा का पालन किया। २६७-२६९. मथुरा में गोत्र से अपमानित होने पर उसने निदान किया और एक मास के तप से प्राणत्याग कर महाशुक्र देवलोक में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर पोतनपुर में प्रजापति राजा की मृगावती रानी की कुक्षि से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। बालक का नाम त्रिपृष्ठ रखा। वह आदि वासुदेव हुआ। ८४ लाख वर्ष का आयुष्य पूरा कर वह अप्रतिष्ठान नरक में उत्पन्न हुआ। वहां से निकलकर सिंह बना। पुनः नरक, तिर्यंच और मनुष्य-योनि में कुछेक भव ग्रहण कर, अपरविदेह की मूका नगरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती हुआ। वहां ८४ लाख पूर्व का आयुष्य था।' २७०. चक्रवर्ती प्रियमित्र धनंजय का पुत्र था। वह प्रोष्ठिल आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर, कोटि वर्ष तक प्रव्रज्या-पर्याय का पालन कर, महाशुक्र देवलोक के सर्वार्थविमान में सतरह सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। वहां से च्युत होकर छत्रागा नगरी में जितशत्रु राजा के वहां नंदन कुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। वहां २५ लाख वर्ष का आयुष्य था। २७१. प्रियमित्र ने प्रोष्ठिल आचार्य के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर १ लाख वर्ष तक निरंतर मासक्षपण की तपस्या की। [इसी भव में तीर्थंकरनाम संज्ञक कर्म बांधा] वह मासिक संलेखना कर प्राणत देवलोक में पुष्पोत्तर विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहां २० सागरोपम का आयुष्य पूरा कर ब्राह्मण कुल में पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ। २७१/१-३. बीस कारणों से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति होती है१. अर्हत् का गुणोत्कीर्तन।
११. आवश्यक आदि अवश्यकरणीय संयमानुष्ठान । २. सिद्ध की स्तवना।
१२. व्रतों का निरतिचार पालना। ४. गुरु-भक्ति ।
१४. तप-यथाशक्ति तपस्या करना। ५. स्थविर-सेवा।
१५. त्याग-साधु को प्रासुक एषणीय दान। ६. बहुश्रुत-पूजा।
१६. दस प्रकार का वैयावृत्त्य। ७. तपस्वी का अनुमोदन।
१७. गुरु आदि को समाधि देना। ८. अभीक्ष्ण-अनवरत ज्ञानोपयोग। १८. अपूर्वज्ञान का ग्रहण। ९. निरतिचार सम्यक्त्व।
१९. श्रुतभक्ति। १०. ज्ञान आदि का विनय।
२०. प्रवचन की प्रभावना।
१. देखें परि. ३ कथाएं।
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