Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
२७१/४. प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने उपर्युक्त सारे स्थानों का स्पर्श किया। मध्यवर्ती तीर्थंकरों ने एकदो-तीन अथवा सभी स्थानों का स्पर्श किया है।
२७१/५. प्रश्न है कि तीर्थंकर नाम गोत्र कर्म का वेदन कैसे होता है ? इसका समाधान यह है कि अग्लानभाव से धर्मदेशना आदि देने से उसका वेदन होता है। तीर्थंकर इसका बंध वर्तमान भव से पूर्व के तीसरे भव का अवसर्पण होने पर करते हैं ।
२७१/६. नियमत: मनुष्य गति में शुभलेश्या वाले स्त्री, पुरुष अथवा नपुंसक, जिन्होंने इन बीस स्थानों में से किसी एक का भी अनेक बार स्पर्श किया हो, उनके तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है।
२७२. ब्राह्मण कुंडग्राम में कोडालसगोत्री ब्राह्मण ऋषभदत्त के घर में देवानंदा की कुक्षि से ( मरीचि का जीव) उत्पन्न हुआ ।
२७३. स्वप्न, अपहरण', अभिग्रह, जन्म, अभिषेक, वृद्धि, जातिस्मरण, भेषण - भयोत्पादन, विवाह, अपत्य, दान, संबोध तथा निष्क्रमण - ये व्याख्येय द्वार हैं।
२७४, २७५. वज्रऋषभनाराच संहनन से युक्त, भव्य जनों को संबोध देने वाले, कुंडग्राम के उत्कृष्ट क्षत्रिय, देवपरिगृहीत भगवान् महावीर तीस वर्ष तक गृहवास में रहे और माता-पिता की मृत्यु हो जाने पर उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में प्रव्रजित हो गए ।
२७६. ताड़ना के लिए उद्यत ग्वाले के कारण शक्र का आगमन । इन्द्र का कथन । कोल्लाक सन्निवेश में बहुल नामक ब्राह्मण द्वारा भगवान् के बेले के पारणे पर पायस का दान देने से उसके घर में वसुधारा की वृष्टि |
२७७, २७८. पिता सिद्धार्थ के मित्र दूतिज्जंतक तापस के यहां वर्षावास के लिए आना। पांच घोर अभिग्रहों का स्वीकार - १. अप्रीतिकर स्थान में न रहना २. सदा व्युत्सृष्ट काय रहना ३. मौन रहना ४. पाणिपात्र ५. गृहस्थों को वंदना न करना। वहां से विहार कर अस्थिकग्राम में वर्षावास । अस्थिकग्राम का पूर्व नाम वर्द्धमान । वेगवती नदी । धनदेव सार्थवाह । शूलपाणि यक्ष का मंदिर। उसका पुजारी इन्द्रशर्मा । भगवान् का शूलपाणि यक्ष के मंदिर में रहना ।
२७९. यक्ष ने सात प्रकार की रौद्र वेदनाएं दीं, फिर उसने स्तुति की। भगवान् ने वहां दस स्वप्न देखे। नैमित्तिक उत्पल का आगमन । अर्द्धमास की तपस्या । मोराक सन्निवेश में सत्कार । अच्छन्दक पर शक्र का कुपित होना ।
२८०. अच्छंदक द्वारा तृण ग्रहण । इन्द्र द्वारा दसों अंगुलियों का छेदन । सिद्धार्थ द्वारा अच्छंदक पर चोरी का आरोप कि कर्मकर वीरघोष के यहां से दसपलिक सोने की चोरी कर वह महिसिन्दु वृक्ष के नीचे गाड़ा है। दूसरी चोरी इन्द्रशर्मा के ऊरणक को चुराया है। उसकी हड्डियों को बादरी के नीचे दक्षिण की ओर अकुरडी
में
गाड़ दिया है।
१७. देखें परि. ३ कथाएं ।
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