Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
१७५ एक खंड को पृथक्-पृथक् समय में उपशान्त करता है)। ११०. उपशमक अथवा क्षपक श्रेणी में वर्तमान सूक्ष्मसंपरायी मुनि लोभाणुओं का वेदन करता हुआ किंचित् न्यून यथाख्यात चारित्री होता है। ११०/१. उपशम श्रेणी में आरूढ़ महान् गुणी मुनि कषायों को उपशान्त कर देता है। वह जिनेश्वर देव के तुल्य चारित्र वाला होता है। उसको भी वे उपशान्त कषाय नीचे गिरा देते हैं तो फिर शेष सरागी व्यक्ति का तो कहना ही क्या? ११०/२. उपशांत कषाय वाला व्यक्ति भी अनन्त प्रतिपातों (जन्म-मरणों) को पुनः प्राप्त करता है इसलिए कषाय की अल्पता में विश्वास नहीं करना चाहिए। ११०/३. ऋण, व्रण, अग्नि और कषाय की अल्पता पर विश्वास नहीं करना चाहिए क्योंकि ये अल्प भी कालान्तर में बहुत हो जाते हैं। १११-१११/२. क्षपकश्रेणी में क्षय का क्रम इस प्रकार है-अनन्तानुबंधी चतुष्क, मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व इसके पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण-इस कषाय अष्टक का युगपद् क्षय प्रारम्भ हो जाता है। इन आठ प्रकृतियों के क्षयकाल के बीच में इन सतरह कर्म-प्रकृतियों का क्षय होता है
१. नरकगतिनाम ७. त्रीन्द्रियजातिनाम १३. साधारणवनस्पतिनाम २. नरकानुपूर्वीनाम ८ . चतुरिन्द्रियजातिनाम १४. अपर्याप्तकनाम ३. तिर्यग्गतिनाम
९. आतपनाम
१५. निद्रानिद्रा ४. तिर्यगानुपूर्वीनाम १०. उद्योतनाम १६. प्रचला-प्रचला ५. एकेन्द्रियजातिनाम ११. स्थावरनाम
१७. स्त्यानर्द्धि ६. द्वीन्द्रियजातिनाम १२. सूक्ष्मनाम
तत्पश्चात् अप्रत्याख्यानावरण आदि कषाय की अवशिष्ट आठ प्रकृतियों का क्षय करता है। (यह सारा अन्तर्मुहूर्त काल में संपन्न हो जाता है। फिर नपुंसक वेद, स्त्री वेद, हास्यादिषट्क और पुरुषवेद तथा संज्वलन कषाय आदि का क्षय होता है। श्रेणी की समाप्ति का काल भी अन्तर्मुहूर्त का ही होता है। अन्तर्मुहूर्त के असंख्येय भाग होते हैं। जब चरम लोभाणु का क्षय हो जाता है, तब यथाख्यात चारित्र की प्राप्ति होती है)। १११/३,४. तत्पश्चात् क्षपकश्रेणी प्राप्त निर्ग्रन्थ कुछ विश्राम करता है और जब छद्मस्थ वीतरागत्व के दो समय शेष रहते हैं तब वह पहले निद्रा फिर क्रमशः प्रचला, देवगति नाम, देवगतिआनुपूर्वीनाम, वैक्रियनाम, प्रथम संहनन के अतिरिक्त शेष पांच संहनन, प्राप्त संस्थान के अतिरिक्त शेष पांच संस्थान, तीर्थंकर नाम
१. दर्शन सप्तक के उपशान्त होने तक वह निवृत्तिबादर कहलाता है। उसके पश्चात् संख्येय के अंतिम दो चरम खंडों के
उपशमन तक अनिवृत्तिबादर कहलाता है (आवहाटी १ पृ. ५५)।
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