Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
१७३ ९६. ज्ञान और क्रिया के संयोग की सिद्धि ही फलदायक होती है। रथ एक चक्के से नहीं चलता। उसकी गति में दोनों चक्कों की अनिवार्यता है। वन में दावानल लगने पर अंधा और पंगू एक दूसरे का सहयोग करके सकुशल नगर पहुंच गए। ९७. ज्ञान प्रकाशक है, तप शोधक है और संयम गुप्तिकर (कर्म-निरोधक) है। तीनों के समायोजन से मोक्ष प्राप्त होता है, यह जिनशासन का वचन है। ९८. द्वादशांगी श्रुतज्ञान है। वह क्षायोपशमिक भाव है। कषायों के क्षय से ही केवलज्ञान की उपलब्धि होती
९९. जो जीव ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्म-प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति में वर्तमान होता है, वह सामायिक के चारों प्रकारों (सम्यक्त्वसामायिक, श्रुतसामायिक, देशविरतिसामायिक तथा सर्वविरतिसामायिक) में से एक को भी प्राप्त नहीं कर सकता। १००. आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति जब अंत: कोटाकोटि सागरोपम रहती है उस स्थिति में जीव चारों प्रकार की सामायिकों में से किसी एक को प्राप्त कर सकता है। १००/१. सामायिक की उपलब्धि के ये दृष्टान्त हैं-१. पल्यक-लाट देश का धान्यागार। २. पर्वत की १. देखें परि. ३ कथाएं। २. आवश्यक नियुक्ति में सामायिक की उपलब्धि में पल्यक आदि नौ दृष्टान्त दिए हैं। बृहत्कल्प भाष्य में सम्यक्त्व की प्राप्ति
के प्रसंग में पल्यक को छोड़कर आठ दृष्टान्त दिए हैं। यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण तथा अनिवृत्तिकरण-इन तीन कारणों के आधार पर सामायिक-लाभ के दृष्टान्तों का निरूपण इस प्रकार है१. पल्यक-पल्यक में यदि अल्प धान्य डाला जाए और अधिक निकाला जाए तो वह कालान्तर में खाली हो जाता है। इसी प्रकार जो जीव कर्मों का चय अल्प और अपचय अधिक करता है, वह धीरे-धीरे अनिवृत्तिकरण तक पहुंच जाता है, सम्यग्दर्शन के अभिमुख हो जाता है। २. पार्वतीय नदी के उपल-नदी के पत्थर परस्पर संघर्षण से गोल और विचित्र आकृति वाले हो जाते हैं। इसी प्रकार जीव भी यथाप्रवृत्ति आदि करणों से वैसे बन जाते हैं। ३. पिपीलिका-चींटियों का भूमिगमन, आरोहण, उड़ना, नीचे आना आदि स्वाभाविक होता है। वैसे ही जीवों में भी ये करण स्वाभाविक होते हैं। ४. पुरुष-तीन पुरुष अटवी पार कर रहे थे। चोरों ने उन्हें घेर लिया। एक व्यक्ति उल्टी दिशा में भाग गया। एक को चोरों ने पकड़ लिया। तीसरा व्यक्ति उन का अतिक्रमण कर भाग कर नगर में पहुंच गया। उल्टी दिशा में भागने वाले व्यक्ति की भांति वह व्यक्ति है, जो ग्रंथि के समीप आकर पुनः अनिष्ट परिणामों में बह जाता है। चोरों द्वारा गृहीत व्यक्ति की भांति हैग्रन्थिकसत्त्व और इष्ट स्थान प्राप्त पुरुष की भांति है-अनिवृत्तिकरण से सम्यग्दर्शन को प्राप्त व्यक्ति। ५. पथ-पथच्युत व्यक्तियों के माध्यम से इस उदाहरण को समझाया गया है। ६. ज्वर-एक ज्वर ऐसा होता है, जो आता है और चला जाता है। एक ज्वर औषधोपचार से शान्त होता है और एक ज्वर ऐसा होता है, जो किसी भी उपाय से नष्ट नहीं होता। वैसे ही कभी मिथ्यादर्शन स्वतः चला जाता है, कभी वह जिनोपदेश से मिट जाता है और कभी वह मिटता ही नहीं। ७. कोद्रव-कुछेक कोद्रवों की मादकता काल के प्रभाव से मिट जाती है, कुछेक की मादकता गोबर आदि के परिकर्म से मिट जाती है और कुछेक की मिटती ही नहीं। ८. जल-जल के तीन भेद हैं-मलिन, अर्धशुद्ध तथा शुद्ध। इसी प्रकार दर्शन के भी तीन भेद करणों के आधार पर होते हैं। ९. वस्त्र-जैसे कोई वस्त्र मलिन होता है, कोई थोड़ा शुद्ध होता है और कोई पूर्ण शुद्ध होता है, उसी प्रकार दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों को जानना चाहिए (बृभा ९६-११०, आवहाटी. १ पृ. ५०,५१, मटी प. ११३-११६)।
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