Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
१२४. शिष्य की परीक्षा के ये उदाहरण हैं - १. शैलघन २ कुटक (घट) ३. चालनी ४. परिपूर्णक ५. हंस ६. महिष ७. मेष ८. मशक ९. जलूक १०. विडाली ११. जाहक १२. गाय १३. भेरी १४. आभीरी ।
१. शैलघन मुद्गशैल का उदाहरण देखें परि ३ कथाएं। कुट-घट चार प्रकार के होते हैं
१. छिद्र घट - अधोभाग में छिद्रयुक्त घट
२. खण्ड घट - एक पार्श्व से खंडित ।
३. कण्ठहीन घट- ग्रीवारहित घट
४. सम्पूर्ण घट - परिपूर्ण घट |
घट की भांति शिष्य भी चार प्रकार के होते हैं
१. जो शिष्य व्याख्यान मंडली में प्रविष्ट होने पर समझता है पर वहां से उठने पर कुछ भी याद नहीं रखता, वह छिद्रघट के समान है।
२. जो शिष्य व्याख्यान मंडली में प्रविष्ट होकर आधा, तिहाई या चौथाई अंश ग्रहण करता है, वह खण्ड घट के समान है।
३. जो शिष्य व्याख्यान- मंडली में प्राय: सूत्र और अर्थ को ग्रहण कर लेता है और बाद में भी स्मृति में रखता है, वह कंठहीन घट के समान है।
४. जो शिष्य सूत्र और अर्थ को समग्र रूप से ग्रहण करता है, वह सम्पूर्ण घट के समान है।
चालनी - जिसके एक कान से सूत्रार्थ का प्रवेश होता है और दूसरे से निकल जाता है, वह शिष्य चालनी के समान होता है। बृहत्कल्प भाष्य (गा. ३४३, ३४४ टी. पृ. १०३) में रूपक के रूप में एक संवाद मिलता है। एक बार मुदगशैलतुल्य, छिद्रकुटतुल्य और चालनीतुल्य- ये तीनों शिष्य आपस में मिले उन्होंने आपस में श्रवण की अवधारणा के बारे में बातचीत की। छिद्रकुटतुल्य शिष्य बोला - 'स्वाध्याय - मंडली में तो मुझे लगभग ग्रहण हो जाता है लेकिन वहां से उठते ही सब कुछ भूल जाता हूं ।' चालनीतुल्य शिष्य बोला- 'मैं एक कान से सुनता हूं लेकिन दूसरे कान से निकल जाता है।' अंत में मुद्गशैलतुल्य शिष्य बोला- 'तुम दोनों धन्य हो, जो तुम्हारे कान में सूत्रार्थ गृहीत तो होता है। मेरे तो कानों में सूत्रार्थं का प्रवेश भी नहीं होता।'
परिपूर्णक और हंस-बया के घोसले से जब घी छाना जाता है तो कचरा उसमें रह जाता है और घी नीचे आ जाता है। परिपूर्णक के समान शिष्य वाचना के दोषों को ग्रहण करते हैं। हंस के समान शिष्य दोषों को छोड़कर सारग्राही होते हैं। महिष और मेष - महिष आलोड़न - विलोड़न के द्वारा तालाब के पानी को कलुषित कर देता है। वह न स्वयं पानी पी सकता है और न ही उस पानी को दूसरे महिष पी सकते हैं। इसी प्रकार अयोग्य शिष्य अप्रासंगिक और असंबद्ध प्रसंगों तथा कलह आदि के द्वारा न स्वयं श्रुत का लाभ लेता है और न दूसरों को लाभ करने देता है। मेष अत्यल्प पानी को भी बिना हिलाए धीरे-धीरे पी लेता है। मेष के समान शिष्य गुरु के पास सम्यग् रूप से श्रुत-ग्रहण करते हैं और दूसरों को भी श्रुत-ग्रहण में बाधा नहीं पहुंचाते।
मशक और जलौका – मच्छर की भांति गुरु को व्यथित करने वाला शिष्य अथवा श्रोता। जलौका शरीर का खून पीने पर भी कष्ट नहीं देती। इसी प्रकार योग्य शिष्य गुरु को व्यथित किए बिना श्रुतज्ञान प्राप्त करता है ।
मार्जारी और जाहक - मार्जारी दूध को नीचे गिराकर फिर पीती है वैसे ही अयोग्य शिष्य परिषद् में वाचना ग्रहण न करके परिषद् से आए शिष्यों से सूत्रार्थ की जिज्ञासा करता है।
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जाहक (कांटों वाला चूहा ) जैसे जाहक थोड़ा-थोड़ा दूध पीकर किनारे को चाटता रहता है। दूध की एक बूंद भी नीचे नहीं गिरने देता, उसी प्रकार बुद्धिमान् शिष्य गुरु के पास जो श्रुत ग्रहण करता है, उसे अच्छी तरह परिचित करता है फिर नया श्रुत ग्रहण करता है। इससे गुरु को भी क्लान्ति नहीं होती ।
गाय, भेरी और आभीरी के दृष्टान्तों के लिए देखें परि. ३ कथा सं. २६, २२, २७ (१), २७ (२) (विभामहे गा. १४६२-८२, वृभा ३४२-६१, आवहाटी १ पू. ६७-६९) ।
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