Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
६६५.
६६७.
नाम ठवणा दविए, 'खेत्तमदिच्छा य" भावओ तं च। नामाभिहाणमुत्तं, ठवणागारऽक्ख निक्खेवो । दव्वम्मि निण्हगाई, निव्विसयाई य होंति' खेत्तम्मि। भिक्खाईणमदाणे', अइच्छ' भावे पुणो दुविहं ॥ सुय णोसुय सुय दुविहं, पुव्वमपुव्वं तु होइ नायव्वं। नोसुयपच्चक्खाणं, मूले तह उत्तरगुणे यः ।। जावदवधारणम्मी', जीवणमवि पाणधारणे भणितं । आपाणधारणाओ, पावनिवित्ती इहं अत्थो । नाम ठवणा दविए, ओहे भव तब्भवे य भोगे य। संजम-'जस कित्ती जीवियं च तं भण्णई दसहा" ॥ भोगम्मि चक्किमादी, संजमजीयं तु संजयजणस्स। जस-कित्ती य भगवओ, संजमनरजीव अहिगारो॥
६६९/१.
१. अइच्छपडिसेह (महे), अतिच्छपडिसेध (स्वो)। २. यह गाथा मुद्रित स्वो (७२८/४२२८) और महे (३५०२) में निगा के रूप में निर्दिष्ट है। चूर्णि में गाथा का संकेत नहीं है किन्तु विस्तृत व्याख्या
है। हाटी में इस गाथा की संक्षिप्त व्याख्या तो है किन्तु गाथा नहीं है। मुद्रित हाटी के टिप्पण में 'गाथा क्वचित्' उल्लेख के साथ यह गाथा संपादक द्वारा दी गई है। मुद्रित दीपिका में यह गाथा उगा के रूप में है तथा दीपिकाकार ने 'एषा गाथा वृत्तौ न' का उल्लेख किया है। मुद्रित मटी में इस गाथा के आगे निगा के क्रमांक नहीं लगाए हैं। पाद-टिप्पण में 'गाथेयं क्वचिद् हारिभद्रीयादर्शऽपि, मूलस्थानं तु प्रत्याख्याननियुक्तौ, न हारिभद्रीयसूरिभिर्मतेयमत्र' का उल्लेख किया है। यह गाथा नियुक्ति की होनी चाहिए क्योंकि मूलद्वारगाथा करणे भए......(६४६) के सभी द्वारों की व्याख्या नियुक्ति में है फिर आठवें द्वार प्रत्याख्यान के निक्षेप वाली गाथा भी नियुक्ति की होनी चाहिए। महे में इसके लिए नियुक्तिगाथासमासार्थः' का उल्लेख है। दूसरा कारण यह भी है कि इसे निगा के अन्तर्गत मानने से ६६४ वीं गाथा के साथ इसका संबंध जुड़ता है। भाष्य में इस गाथा की व्याख्या पांच गाथाओं में हुई है (स्वो ४२२९-४२३३, महे ३५०३-३५०७) ला और ब प्रति
में इस गाथा के लिए न्याऽव्या का उल्लेख है अर्थात् वहां इसे अन्यकर्तृकी माना है। ३. हुंति (म)। ४. ईण अदाणे (स)। ५. अरच्छ (ब)। ६.६६६, ६६७ ये दोनों गाथाएं स्वो और महे में नहीं हैं। चूर्णि में इनकी व्याख्या मिलती है। ७. "म्मि (म), जावदवधारणे इत्यव्ययीभावसमासः (मटी प ५८०)। ८. निवित्ती (चू)। ९. यह गाथा स्वो और महे में नहीं है। इसमें ६४६ वीं गाथा के नवें द्वार 'जावजीव' की व्याख्या है। चूर्णि तथा हस्तप्रतियों में यह गाथा उपलब्ध
है। देखें टिप्पण गा. ६६५ का। १०. जसमस्संजम जीवितमिति तविभागोऽयं (स्वो ७२९/४२३६), जसमसंजम जीवियमिइ तविभागोऽयं (महे), इस गाथा के बाद सभी प्रतियों में
दव्वे सच्चित्ताई (हाटीभा १८९) मूलभाष्य की गाथा मिलती हैं। ब और ला प्रति में 'गाथाद्वयं भा व्या' का उल्लेख है। ११. मुद्रित हाटी (गा. १०४४) तथा दी (१०५१) में भोगम्मि चक्किमाई गाथा निगा के क्रमांक में है। मटी में यह गाथा भागा के क्रम में है। यह
गाथा नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए। हाटी गा. १०४३ में जीवित शब्द के दश निक्षेप हैं। उनमें द्रव्यजीवित आदि छह निक्षेपों का वर्णन (हाटीभा १८९) में है फिर बाकी के भोगजीवित आदि चार निक्षेपों का वर्णन करने वाली इस गाथा (हाटी १०४४) को नियुक्ति की कैसे माना जाए? यह गाथा स्पष्टतया भाष्य की होनी चाहिए। प्रकाशित टीका में संपादक द्वारा नम्बर लगाए गए हैं अतः उसे प्रमाण नहीं माना जा सकता।
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