Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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६५५.
उद्देस समुद्देसे, वायणमणुजाणणं च आयरिए । सीसम्म उद्दिसिज्जतमाइ एयं तु जं कइहा ॥
कह सामाइयलंभो ? देसविघाईफड्डग, अनंतवुड्डी
तस्सव्वविघाइदेसवाघाई। विसुद्धस्स ॥
कमलंभो ।
एवं ककारलंभो, सेसाण वि एवमेव एवं तु भावकरणं करणे य भए य जं
भणियं ॥
होइ भयंतो भयअंतगो य रयणा भयस्स सव्वम्मि वणिएऽणुक्कमेण अंते वि एवं सव्वम्मिवि वण्णियम्मि एत्थं तु होइ अहिगारो । सत्तभयविप्यमुक्के, तहा भवंते भयंते 'य' ॥ सामं समं च सम्मं, इगमवि सामाइयस्स एगट्ठा । नामं ठवणा दविए, भावम्मि य तेसि निक्खेवो ॥
छन्भेया ।
छब्भेया ॥
१. यह गाथा मुद्रित हा दी, म में मूलभागा (हाटीभा १८३) के क्रम में है। स्वो और महे में यह गाधा नहीं है। चूर्णि में इस गाथा की व्याख्या है। इस गाथा में करण के प्रकारों का उल्लेख है इसलिए यह नियुक्ति की होनी चाहिए। हस्तप्रतियों में इस गाथा के आगे भा. का उल्लेख नहीं है क्योंकि मूलभाष्य या अन्यकर्तृकी गाथा के आगे प्राय: इसका संकेत आदर्शों में मिलता है। संभव है संपादक के द्वारा मुद्रित हा, म, दी में भागा के अन्तर्गत क्रमांक लगा दिए गए हों।
२. किह (अ) ।
३. ६५१, ६५२ ये दोनों गाथाएं स्वो और महे में नहीं हैं। चूर्णि में गाथा का संकेत नहीं है, केवल व्याख्या है। मुद्रित हा, म, दी में ये निगा के क्रम में हैं।
आवश्यक निर्युक्ति
४. ६५३, ६५४ ये दोनों गाथाएं स्वो और महे में नहीं हैं। चूर्णि में इन गाथाओं की व्याख्या मिलती है। सभी हस्तप्रतियों में भी ये गाथाएं उपलब्ध हैं। मुद्रित हा, म, दी के संपादक ने इन्हें (भागा १८४, १८५ ) के क्रम में रखा है। ये गाथाएं निगा की होनी चाहिए क्योंकि मूलद्वार गाथा 'करणे भए य अंते'... (६४८) के अन्तर्गत करण शब्द की व्याख्या के बाद भय और अंत की व्याख्या वाली गाथाएं भी निगा की होनी चाहिए। इसके अतिरिक्त सूत्रस्पर्शिक नियुक्ति के क्रम में भी करेमि के बाद भंते शब्द की व्याख्या भी निगा की होनी चाहिए। हमने इन्हें भागा के अन्तर्गत न मानकर निगा के अन्तर्गत रखा है।
५. इगमिति (म, स, दी), आत्मनि प्रवेशनम् इकमुच्यते ६. यह गाथा स्वो और महे में नहीं है।
इस गाथा के बाद हस्तप्रतियों में कुछ भाष्य गाथाएं हैं, जिनके बारे में ब और ला प्रति में 'गाथानवकं भा. व्यां का उल्लेख है। ये गाधाएं स्वो और महे में हैं। आमंतेड़... (स्वो ४१८३, महे ३४५७), भण्णति.... ( स्वो ४१८४, महे ३४५८), आवस्सयं पि... (स्वो ४१८७, महे ३४६१) एवं चिय....... (स्वो ४१८८, महे ३४६२) सामाइय......... (स्वो ४१८९, महे ३४६३), किच्चाकिच्यं....... (स्वो ४१९० महे ३४६४ ) गुरुविरहम्मि....... (स्वो ४१९१, महे ३४६५), रण्णो व..... (स्वो ४१९२, महे ३४६६) मुद्रित हा, म, दी में 'उक्तं च भाष्यकारेण' उल्लेख के साथ ये गाथाएं उगा के रूप में हैं ( हाटी पृ. ३१५, ३१६, मटी प ५७३, ५७४) ।
(मटी), इकमिति.... देशयुक्त्या प्रवेशार्थे वर्तते ( दी प २१० ) ।
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