Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति नियुक्ति सहित सूत्र के अर्थ का बोध तथा तीसरे में समग्रता से बोध किया जाता है। २३. अवधिज्ञान की समस्त प्रकृतियां असंख्येय होती हैं। इनमें कुछ भवप्रत्ययिक तथा कुछ क्षयोपशमजनित होती हैं। २४. अवधिज्ञान की समस्त प्रकृतियों का वर्णन करने की कहां है मुझमें शक्ति? फिर भी मैं अवधिज्ञान के चौदह निक्षेप तथा ऋद्धिप्राप्त व्यक्ति का वर्णन करूंगा। २५, २६. अवधिज्ञान की चौदह प्रतिपत्तियां इस प्रकार हैं-१. अवधि, २. क्षेत्र-परिमाण, ३. संस्थान, ४. आनुगामिक, ५. अवस्थित, ६. चल, ७. तीव्र-मंद, ८. प्रतिपात-उत्पाद, ९. ज्ञान, १०. दर्शन, ११. विभंग, १२. देश-सर्व, १३. क्षेत्र, १४. गति।
अवधिज्ञान-ऋद्धि के प्रसंग में अन्य ऋद्धिप्राप्त का वर्णन भी करूंगा। २७. अवधि शब्द के सात निक्षेप हैं-१. नाम अवधि २. स्थापना अवधि ३. द्रव्य अवधि ४. क्षेत्र अवधि ५. काल अवधि ६. भव अवधि ७. भाव अवधि। २८. तीन समय के आहारक सूक्ष्म पनकजीव (वनस्पति विशेष) के शरीर की जितनी जघन्य अवगाहना होती है, उतना ही अवधिज्ञान का जघन्य क्षेत्र-परिमाण होता है।' २९. भगवान् अजितनाथ के समय में उत्कृष्ट परिमाण में अग्नि जीवों की उत्पत्ति हुई थी। उन सर्वाधिक अग्नि जीवों ने निरंतर जितने क्षेत्र को व्याप्त किया था, सब दिशाओं में उतना परमावधि का क्षेत्र होता है। ३०. अंगुल के असंख्येय भाग क्षेत्र को देखने वाला अवधिज्ञानी काल की दृष्टि से आवलिका के असंख्येय भाग तक देखता है। अंगुल के संख्येय भाग क्षेत्र को देखने वाला आवलिका के संख्येय भाग तक देखता
१. श्रवणविधि के सात प्रकार बताए हैं तथा २२/२ वी गाथा में अनुयोग-विधि के तीन प्रकार बतलाए गए हैं, यह विरोधाभास जैसा लगता है। आचार्य हरिभद्र ने नंदी की टीका में इसका समाधान देते हुए कहा है कि सभी शिष्य समान योग्यता वाले नहीं होते। योग्यता की तरतमता के आधार पर तीनों अनुयोग-विधियों का सात बार प्रयोग किया जा
सकता है, (नंदीहाटी पृ. ९६, ९७)। २. आवहाटी. १ पृ. १८-क्षेत्रकालाख्यप्रमेयापेक्षयैव संख्यातीता: द्रव्यभावाख्यज्ञेयापेक्षया चानन्ता इति-क्षेत्र और काल की
अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां असंख्य हैं तथा द्रव्य और भाव रूप ज्ञेय की अपेक्षा से अवधिज्ञान की प्रकृतियां
अनंत हैं। ३. प्रथम और द्वितीय समय में पनक की अवगाहना अत्यन्त सूक्ष्म होती है। चतुर्थ, पंचम आदि समयों में वह
अतिस्थूल हो जाती है। तृतीय समय में उसकी जितनी अवगाहना होती है, उतना क्षेत्र अवधिज्ञान का विषय बनता
है। इसलिए 'त्रिसमयआहारकपनक' का ग्रहण किया गया है, (विस्तार के लिए देखें-नंदीमटी. प. ९१)। ४. जब पांच भरत और पांच ऐरवत में मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा पर होती है, तब सबसे अधिक अग्नि के जीव होते हैं क्योंकि लोगों की बहलता होने पर पचन-पाचन आदि क्रियाएं भी प्रचर होती हैं। तीर्थंकर अजित के समय में अग्नि के जीव पराकाष्ठा प्राप्त थे क्योंकि उस समय मनुष्यों की संख्या पराकाष्ठा को प्राप्त थी। उस समय अग्निजीवों की उत्पत्ति में महावृष्टि आदि का व्याघात नहीं था (आवचू १ पृ. ३९)।
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