Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति का अंतिम छोर है। १२. ईहा, अपोह, विमर्शना, मार्गणा, गवेषणा, संज्ञा, स्मृति, मति और प्रज्ञा-ये सारे आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायवाची हैं। १३. आभिनिबोधिक ज्ञान-निरूपण के नौ अनुयोगद्वार हैं-१.सत्पदप्ररूपणता २. द्रव्य-प्रमाण ३. क्षेत्र ४. स्पर्शना ५. काल ६. अंतर ७. भाग ८. भाव ९. अल्पाबहुत्व । १४, १५. निम्न स्थानों में आभिनिबोधिक ज्ञान की मार्गणा की जाती है-१. गति २. इंद्रिय ३. काय ४.योग ५. वेद ६. कषाय ७. लेश्या ८. सम्यक्त्व ९. ज्ञान १०. दर्शन ११. संयत १२. उपयोग १३. आहार १४. भाषक १५. परित्त १६. पर्याप्त १७. सूक्ष्म १८. संज्ञी १९. भव्य २०. चरिम। १६. आभिनिबोधिक ज्ञान की अट्ठावीस प्रकृतियां हैं। अब मैं श्रुतज्ञान और उनकी प्रकृतियों का संक्षेप और विस्तार से वर्णन करूंगा। १७. प्रत्येक अक्षर तथा लोक में जितने अक्षर-संयोग हैं, उतनी ही श्रुतज्ञान की प्रकृतियां जाननी चाहिए। १८. श्रुतज्ञान की सभी प्रकृतियों का वर्णन करने में मेरी शक्ति कहां है? अत: मैं श्रुतज्ञान के चौदह प्रकार के निक्षेप कहूंगा। १९. श्रुतज्ञान के चौदह निक्षेप इस प्रकार हैं-अक्षरश्रुत, संज्ञिश्रुत, सम्यक्श्रुत, सादिश्रुत, सपर्यवसितश्रुत,
१. मंद प्रयत्न वाला वक्ता जब भाषा द्रव्यों का सकल रूप में विसर्जन करता है तो मंद प्रयत्न के कारण वे निःसृष्ट भाषाद्रव्य
असंख्येय स्कंधात्मक एवं परिस्थूल होने के कारण खंडित हो जाते हैं। संख्येय योजन तक जाकर वेशब्द परिणाम को छोड़ देते हैं अर्थात् भाषा रूप को छोड़ देते हैं। तीव्र प्रयत्न वाला वक्ता भाषाद्रव्यों का विस्फोट कर उनका विसर्जन करता है। वे सूक्ष्मत्व और अनन्त गुण वृद्धि के कारण छहों दिशाओं में लोकान्त तक चले जाते हैं। उनके आघात से प्रभावित भाषाद्रव्य की संहति सम्पूर्ण लोक को आपूरित कर देती है, (विभामहे गा. ३८०-८२, विस्तार हेतु देखें
आवमटी प. ३५-३८)। २. ईहा-अन्वय और व्यतिरेक धर्मों से पदार्थ का पर्यालोचन।
अपोह-ज्ञान का निश्चय। विमर्श-ईहा के बाद होने वाला ज्ञान, जैसे-सिर को खुजलाते हुए देखकर समझना कि यह पुरुष है, स्थाणु नहीं। मार्गणा-अन्वय धर्म का अन्वेषण। गवेषणा-व्यतिरेक धर्म की गवेषणा। संज्ञा-व्यञ्जनावग्रह के बाद होने वाला मतिविशेष। स्मृति-पूर्वानुभूत पदार्थ के आलम्बन से होने वाला ज्ञान । मति-कुछ अर्थावबोध के बाद सूक्ष्म धर्म को जानने वाली बुद्धि। प्रज्ञा-वस्तु के प्रभूत धर्मों का यथार्थ आलोचन करने वाली बुद्धि,जो विशिष्ट क्षयोपशम से उत्पन्न होती है।
इन शब्दों में कुछ अर्थभेद है लेकिन वस्तुतः ये मतिज्ञान के ही वाचक हैं। इन्हें मतिज्ञान की उत्तरोत्तर विविध अवस्थाओं का वाचक कहा जा सकता है (आवहाटी १ पृ. १२)।
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