Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
View full book text
________________
३८
आवश्यक नियुक्ति
१११/२. साहारमपज्जत्तं', निद्दानिदं च पयलपयलं च।
थीणं खवेति ताहे, अवसेसं जं च अट्ठण्हं ॥ १११/३. वीसमिऊण नियंठो, दोहि उ समएहि केवले सेसे।
पढमे निदं पयलं, नामस्स इमाओं पगडीओ ॥ १११/४. देवगति आणुपुव्वी, विउव्वि संघयण पढमवज्जाइं।
अन्नतरं संठाणं, तित्थयराहारनामं च॥ १११/५. चरमे नाणावरणं, पंचविहं दंसणं चउविगप्पं ।
पंचविहमंतरायं, खवइत्ता केवली होति ॥ संभिन्नं पासंतो, लोगमलोगं च सव्वतो सव्वं ।
तं नत्थि जं न पासति', भूतं भव्वं भविस्सं च ॥ ११३. 'जिण-पवयणउप्पत्ती'', पवयणएगट्ठिया विभागो य।
दारविधी य नयविधी, वक्खाणविधी य अणुओगे । एगट्ठियाणि तिन्नि तु, पवयण सुत्तं तहेव अत्थो य। एक्केक्कस्स य एत्तो, नामा एगट्ठिया पंच॥
११४.
१. साहारणम (अ, ब, हा, दी,), २. कोष्ठकवर्ती दोनों गाथाएं (१११/१, २) विशेषावश्यक भाष्य में नियुक्तिगाथा के रूप में नहीं हैं। मुद्रित चूर्णि में ये दोनों गाथाएं हैं किन्तु
इनकी व्याख्या नहीं है। संभव लगता है कि ये संपादक द्वारा जोड़ दी गई हों । यद्यपि टीका की सभी मुद्रित पुस्तकों में ये गाथाएं निगा के क्रम में हैं किन्तु टीकाकार ने इन गाथाओं के बारे में यह नियुक्ति की है , ऐसा कोई उल्लेख नहीं किया है। हमने इनको नियुक्तिगाथा के क्रम में नहीं जोड़ा है। ऐसा अधिक संभव लगता है कि विषय को स्पष्ट करने के लिए व्याख्याकारों या लिपिकारों द्वारा ये प्राचीन कर्मग्रंथों से लेकर
बाद में जोड़ दी गई हो। ३. य (रा)। ४. कोष्ठकवर्ती तीनों गाथाएं (१११/३-५) विशेषावश्यकभाष्य में नियुक्तिगाथा के क्रम में व्याख्यात नहीं हैं। चूर्णिकार ने भी 'अण्णे भणंति
जत्थ निदं पयलं'..... कहकर संक्षेप में गाथाओं का भावार्थ दिया है। ब प्रति में इन गाथाओं के बारे में अन्यकर्तकी का उल्लेख है। टीकाकार मलयगिरि इन गाथाओं के संबंध में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहते हैं- 'अत्रार्थे च तन्मतेन तिस्त्रो अन्यकर्तृका इमा गाथा-वीसमिऊण.....एतच्चमतमसमीचीनं, चूर्णिकृतो भाष्यकृतः सर्वेषां व कर्मग्रंथकाराणामसम्मतत्वात्, केवलं वृत्तिकृता केनाप्यभिप्रायेण लिखितमिति, सूत्रेऽप्येता गाथा: प्रवाहपतिता: नियुक्तिकारकृतास्त्वेता न भवंति, चूर्णी भाष्ये चाग्रहणादिति' (मटी प१२८) इससे स्पष्ट है कि ये गाथाएं अन्यकर्तृकी हैं किन्तु विषयवस्तु की स्पष्टता के लिए बाद में निगा के क्रम में जोड़ दी गई हैं। हरिभद्र की टीका एवं दीपिका में ये गाथाएं व्याख्यात हैं। १११/५ के बाद कुछ हस्तप्रतियों में वज्जरिसहनाराय.....,चउरंसे णग्गोहे.....तुल्लं वित्थडबहुलं तीन अन्यकर्तृकी गाथाएं और मिलती हैं। ५. खविइत्ता (स), खवित्ता (लापा)। ६. पासए (अ)। ७. स्वो १२२/१३३९ । ८. “यणुप्पत्ती (चू)। ९. स्वो १२३/१३४७। १०. स्वो १२४/१३६३, ११४-१६ इन तीनों गाथाओं के प्रतीक चूर्णि में नहीं हैं किन्तु व्याख्या एवं भावार्थ प्राप्त है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org