Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
३५६.
३५५. तत्थ किर' सोमिलज्जो, त्ति माहणो तस्स दिक्खकालम्मि।
पउरा जणजाणवया, समागता जण्णवाडम्मि ॥ एगंते य विवित्ते, उत्तरपासम्मि जण्णवाडस्स।
तो देवदाणविंदा, करेंति महिमं जिणिंदस्स ॥ ३५६/१. 'समुसरणे केवतिया' ६, रूव-पुच्छ-वागरण-सोयपरिणाम।
दाणं च देवमल्ले, मल्लाणयणे' उवरि तित्थं ॥ ३५६/२. जत्थ अपुव्वोसरणं, जत्थ य देवो महिड्डिओ एति।
वाउदग-पुप्फवद्दल, पागारतिगं च अभियोगा ॥ ३५७. मणि-कणग-रयणचित्तं, भूमीभागं समंततो सुरभिं११ ।
आजोयणंतरेणं, करेंति देवा विचित्तं तु२ ॥ ३५८. बेंटट्ठाइं१३ सुरभिं, जलथलयं दिव्वकुसुमणीहारिं ।
पइरिति समंतेणं, दसद्धवण्णं कुसुमवासं५ ॥ ३५९. मणि-कणग-रयणचित्ते, चउद्दिसिं तोरणे विउव्वंति'६ । सच्छत्तसालभंजिय,
मगरद्धयचिंधसंठाणे ॥
(हाटी. पृ. १५४)। इसके अतिरिक्त समवसरण का वर्णन करने वाली जो गाथाएं दोनों भाष्यों में (स्वो १९७८-१९८३, को १९९८.. २००३) हैं, वे बृभा में समवसरणवक्तव्यता के प्रसंग में नहीं हैं। ३५७ से ३६२-इन छह गाथाओं में संक्षेप में समवसरण का पूरा वर्णन है। वैसे भी नियुक्तिकार किसी भी विषय का इतने विस्तार से वर्णन नहीं करते अत: इन छह गाथाओं के अतिरिक्त अन्य गाथाएं बाद में प्रक्षिप्त की हुई सी लगती हैं। ९. महड्डिओ (म)। १०. बृभा ११७७, यह गाथा को (१९९७) में भाष्य गाथा के क्रम में
है। स्वो में यह भाष्य गाथा और नियुक्ति दोनों ही क्रम में नहीं
१. किल (हा, दी)। २. पउर (रा)। ३. स्वो ४२३/१९७५। ४. कासी (बपा, लापा, हाटीपा, मटीपा)। ५. स्वो ४२४/१९७६, इस गाथा के बाद सभी हस्तप्रतियों तथा टीकाओं
में भवणवइ (हाटीमूभा ११५, स्वो १९७७) गाथा मिलती है। मलयगिरि की मुद्रित टीका में यह निगा के क्रम में है किन्तु टीकाकार ने 'अमुमेवार्थं सविशेषं भाष्यकार आह' का उल्लेख
किया है। ६. समुसरण केवइय (को)। ७. मल्लायणे (चू)। ८. बृभा ११७६, यह गाथा समवसरण से सम्बन्धित द्वारगाथा है। को
(१९९६) में यह गाथा भागा के क्रम में मिलती है। स्वो में यह गाथा अनुपलब्ध है। वहां संपादक ने नीचे पादटिप्पण में दी है। चूर्णि में यह गाथा व्याख्यात है। इस गाथा के द्वारों की व्याख्या के रूप में ४२ गाथाएं और हैं (३५६/१,२, ३६०/१,२,३६२/१-३८) ये गाथाएं बृभा से लेकर प्रसंगवश यहां बाद में जोड़ दी गई हैं। यह बात आचार्य हरिभद्र के इस उल्लेख से भी स्पष्ट होती हैइयं च गाथा केषुचित् पुस्तकेषु अन्यत्रापि दृश्यते, इह पुनर्युते द्वारनियमतोऽसम्मोहेनसमवसरणवक्तव्यताप्रतीतिनिबंधनत्वादिति
११. सुरहिं (ब, म, स)। १२. स्वो ४२५/१९७८, ३५७ से ३६० ये चार गाथाएं चूर्णि में अव्याख्यान
हैं। द्र. टिप्पण ३५६/१ । १३. बिंट' (म)। १४. पयरिंति (म, को)। १५. स्वो ४२६/१९७९। १६. विउव्विति (ब, स)। १७. स्वो ४२७/१९८०।
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