Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
६४५/२.
६४५/३.
कयपंचणमोक्कारो, करेति सामाइयं ति' सोऽभिहितो। सामाइयंगमेव य, जं सो सेसं ततो वोच्छं ॥ अक्खलियसंहितादी, वक्खाणचउक्कए दरिसियम्मि। सुत्तप्फासियनिज्जुत्तिवित्थरत्थो इमो होति ।। करणे भए य अंते, सामाइय सव्वए य वजे य। जोगे पच्चक्खाणे, जावज्जीवाइ तिविधेणं ॥ नामं ठवणा दविए, खेत्ते काले तहेव भावे य। एसो खलु करणस्सा, निक्खेवो छव्विहो होइ ।
६४६.
६४७.
१. तु (महे)। २. अओ (महे, म)। ३. स्वो ४०२१, गाथा ६४५/२ सभी हस्तप्रतियों एवं व्याख्याओं में मिलती है। चूर्णि में इसकी कोई व्याख्या नहीं है। यह संबंध गाथा है,
इस बात का उल्लेख सभी व्याख्याकार करते हैं। हस्तप्रतियों में भी गाथा के प्रारंभ में 'अहवा' शब्द का उल्लेख है। महे में इस गाथा के लिए टीकाकार ने “सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिमभिधित्सुराह" का उल्लेख किया है। स्वो में यह गाथा भागा के क्रम में है। टीकाकार स्पष्ट उल्लेख करते है कि 'अथ सूत्रस्पर्शिकनियुक्तिः क्रमप्राप्ता तस्या सम्बन्धार्थं गाथा' (स्वो पृ. ७९२) इस उल्लेख से स्पष्ट है कि यह संबंध गाथा है अतः निगा की नहीं होनी चाहिए। नियुक्तिकार प्रायः विषय या शब्द का सीधा प्रतिपादन करते हैं। अधिक संभव लगता है कि संबंध जोड़ने हेतु भाष्यकार ने यह गाथा लिखी हो। गाथा ६४५/३ मुद्रित हा, म, दी में निगा के क्रम में है। व्याख्याकारों ने इसके लिए 'आह च नियुक्तिकार:' का उल्लेख किया है। दोनों भाष्यों में यह गाथा निर्दिष्ट नहीं है। यह गाथा नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए क्योंकि नियुक्तिकार स्वयं 'यह सूत्रस्पर्शिकनियुक्ति का विस्तार है'ऐसा उल्लेख नहीं करते। अन्य नियुक्तियों में भी ऐसा उल्लेख कहीं नहीं मिलता है। मूल सूत्र का प्रकरण प्रारंभ होने के कारण यह गाथा प्रसंगवश यहां जोड़ दी गई है। यहां यह गाथा नियुक्ति के रूप में अप्रासंगिक सी लगती है। आवश्यकनियुक्ति अवचूरि में भी इस गाथा के प्रारंभ में 'आह
च' का उल्लेख है। इससे भी स्पष्ट है कि यह गाथा बाद में प्रक्षिप्त है। ५. स्वो ७२४/४०२५। । ६. यह गाथा सभी हस्तप्रतियों में प्राप्त है। हा, म, दी में यह (मूलभाष्यगाथा १५२) के क्रम में है। हाटी के टिप्पण में इसके लिए नियुक्तिगाथा
इत्यपि का उल्लेख है। दोनों भाष्यों में यह गाथा अस्वीकृत है किन्तु इस गाथा की व्याख्या स्वो में अनेक गाथाओं में हुई है अत: यह निगा की होनी चाहिए। भाषा-शैली की दृष्टि से भी निक्षेपगत गाथाएं प्रायः नियुक्ति की होती हैं। इस गाथा के बाद हस्तप्रतियों में जाणग..... (हाटीभा १५.३), वीससकरण...(हाटीभा १५४), संघाय-भेद....(हाटीभा १५५), जीवमजीवे.....(हाटीभा १५६), जं जं निज्जीवाणं.... (हाटीभा १५७),जीवप्पओग......(हाटीभा १५८), ओरालियाइ.....(हाटीभा १५९) आदि सात मूलभाष्य गाथाएं है। इनके बाद निम्न अन्यकर्तृकी गाथा है
मूलप्पओगकरणं, पंचण्ह वि होइ तं सरीराणं।
तिण्ह पुण आइल्लाण, अंगोवंगाणि करणं तु॥ ब प्रति में इस गाथा के लिए ऽन्या व्या का उल्लेख है। यह गाथा दी में उद्धृत गाथा के रूप में है (दी प १९७) । हा और म में इसकी संक्षिप्त व्याख्या है पर गाथा का संकेत नहीं है। इसके बाद हस्तप्रतियों में पुनः सीसमुरोयर (हाटीभा १६०), केसाई उवयरणं..(हाटीभा१६१), आइल्लाणं तिण्हं....(हाटीभा १६२), संघायमेग.....(हाटीभा १६३), एयं जहण्ण.....(हाटीभा १६४), तिसमयहीणं.....(हाटीभा १६५), अंतरमेगं समयं.....(हाटीभा १६६), वेउब्विय......(हाटीभा १६७), संघायण....(हाटीभा १६८), सव्वग्गहोभयाणं......(हाटीभा १६९), आहारे संघाओ...(हाटीभा १७०), बंधण साडुभयाणं ....(हाटीभा १७१), तेयाकम्माणं....(हाटीभा १७२), उभयं अणाइ...(हाटीभा १७३), अहवा संघाओ......(हाटीभा १७४) आदि पन्द्रह भाष्य गाथाएं हैं।
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