Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
१०३
४३३/१. गइ सिद्धा भविया या', अभविय पोग्गल' अणागयता य।
तीयद्ध तिन्नि काया, जीवाजीवट्ठिती चउहा ।। ४३४. समयावलिय-मुहुत्ता, दिवसमहोरत्त-पक्ख-मासा' य।
संवच्छर-जुग-पलिया, सागर-ओसप्पि-परियट्टा' ।। ४३५. नेरइय-तिरिय-मणुया, देवाण अहाउगं तु जं जेण।
निव्वत्तियमण्णभवे, पालेंति अहाउकालो सो।। ४३६. दुविहोवक्कमकालो, सामायारी अहाउगं चेव।
सामायारी तिविधा, ओहे दसधा पदविभागे ॥ ४३६/१. इच्छा मिच्छा तहक्कारो', य आवस्सिया य निसीहिया ।
'आपुच्छणा य पडिपुच्छा, छंदणा य निमंतणा' २ ॥ ४३६/२. उवसंपया उ काले, सामायारी भवे 'दसविहा उ१३ ।
एतेसिं तु पयाणं, पत्तेय परूवणं वोच्छं ।।
१. य (ब)।
९. तहकारो (हा, दी, रा)। २. पुग्गला (स), यह गाथा हा, म, दी में निगा के क्रम में निर्दिष्ट है। १०. निसीहिय (ला)।
चूर्णि में इस गाथा की विस्तृत व्याख्या है। स्वो और महे में यह निगा ११. आपुच्छा य पडिपुच्छणा (म)। के रूप में स्वीकृत नहीं है। विषयवस्तु की दृष्टि से भी यह गाथा १२. ठाणं १०/१०२, गा. १, गा. ४३६/१-५७ तक की ५७ गाथाएं हा, संग्रहगाथा के रूप में बाद में जोड़ दी गई है, ऐसा प्रतीत होता म, दी में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु टीकाकारों ने है। इसको निगा के रूप में स्वीकृत न करने पर भी चालू विषयवस्तु
गाथाओं की व्याख्या में कहीं भी नियुक्ति-गाथा का संकेत नहीं में कोई अंतर नहीं आता।
किया है। सभी हस्तप्रतियों में ये गाथाएं मिलती हैं। चूर्णि में प्रायः ३. दिवस अहो' (म, रा, स)।
गाथाओं के संकेत एवं व्याख्या प्राप्त है। यहां मूल द्वारगाथा दव्वे ४. मासो (म)।
अद्ध.... (गा.४३२ ) की व्याख्या चल रही हैं। उसमें दव्वे अद्धा ५. पलियट्टा (महे), स्वो ५०५/२५०८, अनुद्वा ४१५/गा.१ ।
और अहाउय की व्याख्या के बाद उवक्कम की व्याख्या में सामाचारी ६. माणुस (ब, ला), मणुस्स (म), आकारः प्राकृतत्वात् (दी)।
का प्रकरण है अत: ४३६ गाथा की 'सामायारी तिविधा आहे ७. उ (महे), स्वो ५०६/२५१०।
दसधा पदविभागे' इन दो चरणों को स्पष्ट करने के लिए ८. स्वो ५०७/२५१२, इस गाथा के बाद प्रायः सभी हस्तप्रतियों में सामाचारी-विधि से सम्बन्धित गाथाओं को बाद में जोड़ दिया गया 'इयं अन्या एत्थंतरे ओहनिज्जुत्ती भाणियव्वा' उल्लेख के साथ है। यहां ये गाथाएं प्रसंगोपात्त नहीं हैं। स्वो और महे में ये गाथाएं ओघनियुक्ति की प्रथम गाथा मिलती है। चूर्णि में भी 'अरहते
निगा के रूप में निर्दिष्ट नहीं हैं। पंडित दलसुखभाई मालवणिया ने वंदित्ता......एत्थंतरे ओहनिजुत्ती भाणियव्वा जाव सम्मत्ता' का
इन्हें पाद-टिप्पण में दिया है। इन गाथाओं को निगा मानने से चालू उल्लेख है। यह गाथा सामाचारी के प्रसंग में यहां उद्धृत की गयी व्याख्या क्रम में व्यवधान सा लगता है।
१३. दसहा (हा, दी), दसहा उ (अ)। अरहंते वंदित्ता, चउदसपुव्वी तहेव दसपुव्वी।
१४. ठाणं १०/१०२ गा. २॥ एक्कारसंगसुत्तत्थधारए सव्वसाहू य॥
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