Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५१२/१. जेसिं जत्तो सूरो, उदेति तेसिं तई हवइ पुव्वा । तावक्खित्तदिसाओ, पदाहिणं सेसियाओ वि' ॥
५१२/२ . पण्णवओ जदभिमुहो, सा पुव्वा सेसिया पदाहिणतो । अट्ठारसभावदिसा, जीवस्स गमागमो जेसुं ॥
७. छव्विहे वि (स्वो, महे) । ८. विरई विरयाविरई (राम) । ९. स्वो ५९३ / ३१९३ ।
५१२ / ३. पुढवि - 'जल - जलण - वाया ३ मूलक्खंधग्ग-पोरबीया य । बि-ति-चउ-पंचिंदिय तिरिय, नारगा देवसंघाता ॥ ५१२/४. सम्मुच्छिम कम्माकम्मभूमिगनरा तहंतरद्दीवा । भावदिसा दिस्सति जं, संसारी निययमेताहिं ॥ पुव्वादीयासु महादिसासु, पडिवज्जमाणगो होति । पुव्वपडिवण्णओ पुण, अण्णयरीए दिसाए उ ॥ सम्मत्तस्स सुतस्स य, पडिवत्ती छव्विहम्मि' कालम्मि । "विरतिं विरताविरतिं, पडिवज्जति दोसु तिसु वावि ॥
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५१३.
५१४.
१. स्वो ३१८६, महे में ५१२/१-४ इन चार गाथाओं के लिए टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने 'निर्युक्तिगाथाचतुष्टयार्थः अथ भाष्यकारो वक्ष्यमाणनिर्युक्तिगाथायाः प्रस्तावनामाह' (महेटी पृ. ५३८) का उल्लेख किया है। इन गाथाओं को निर्युक्तिगाथा के अन्तर्गत भी माना जा सकता है क्योंकि इसमें दिशा के मुख्य निक्षेपों का स्पष्टीकरण है लेकिन किसी भी व्याख्याकार ने इनको निर्युक्ति गाथा के अन्तर्गत नहीं माना है तथा हस्तप्रतियों में भी ये अन्यकर्तृकी उल्लेख के साथ मिलती हैं अतः इनको निगा के क्रम में नहीं जोड़ा है। निर्धारित बिंदुओं के आधार पर यदि किसी भी व्याख्याकार ने गाथा को नियुक्ति के रूप में स्वीकार किया है तो हमने उसे भले ही क्रमांक के साथ नहीं जोड़ा पर मूल गाथा के साथ रखा है। इसीलिए इन गाथाओं को पादटिप्पण में न देकर ऊपर दिया है। स्वो में ये गाथाएं भागा के क्रम में हैं।
२. स्वो ३१८७, इस गाथा का उत्तरार्ध हस्तप्रतियों तथा हा, म में इस प्रकार मिलता है- तस्सेवणुगंतव्वा, अग्गेयादी दिसा नियमा । ३. जलाणलवाता (स्वो) ।
४. स्वो ३१८८ ।
५. स्वो ३१८९ ।
६. स्वो ५९२/३१९१, इस गाथा के बाद हस्तप्रतियों में छिन्नावलि. (स्वो ३१९२) गाथा भाष्य के रूप में मिलती है। हा, म, दी में भी 'आह भाष्यकारः 'उल्लेख के साथ यह उद्धृत गाथा के रूप में मिलती है। इसके बाद प्रतियों में 'गाथात्रयं ऽन्या व्या' उल्लेख के साथ तीन निम्न अन्यकर्तृकी गाथाएं मिलती हैं। हा, म, दी में भी ये टीका की व्याख्या में उद्धृत गाथा के रूप में मिलती हैं
अट्ठसु चउण्ह नियमा, पुव्वपवण्णो उ दोसु दोहेव । दोह तु पुव्वपवण्णो, सिय णण्णो ताव पण्णव ॥ १ ॥ उभयाभावो पुढवादिएसु विगलेसु होज्ज उ पवण्णो । पंचिंदियतिरिएसुं, नियमा तिण्हं सिय पवज्जे ॥२॥ नारगदेवाकम्मग, अंतरदीवेसु दोन्ह कम्मगनरेसु चउसुं, मुच्छेसु उ
आवश्यक निर्युक्ति
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उ ।
भयणा उभयपडिसे धो ॥ ३ ॥
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