Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
१२७
५४७/१. सो वाणरजूहवती', कंतारे सुविहिताणुकंपाए।
भासुरवरबोंदिधरो, देवो वेमाणिओ जाओ । ५४८. अब्भुट्ठाणे विणए, परक्कमे साहुसेवणाए य।
सम्मइंसणलंभो, विरताविरतीइ विरईए । ५४९. सम्मत्तस्स सुतस्स य, छावट्ठीसागरोवमाइ ठिती।
सेसाण पुव्वकोडी, देसूणा होति उक्कोसा ।। सम्मत्तदेसविरता, पलियस्स असंखभागमेत्ताओ । सेढी असंखभागे, सुते सहस्सग्गसो विरती॥ सम्मत्तदेसविरता, पडिवन्ना संपई असंखेजा। संखेजा य चरित्ते, तीसु वि पडिता अणंतगुणा ॥ सुतपडिवण्णा संपइ, पयरस्स असंखभागमेत्ताओ। सेसा संसारत्था, सुतपडिवडिया हु ते सव्वे ॥ कालमणंतं च सुते, अद्धापरियट्टओ यो देसूणो।
आसायणबहुलाणं, उक्कोसं अंतरं होति ॥ ५५४. सम्मसुयअगारीण११ आवलिय१२ 'असंखभागमेत्ता उ१३ ।
अट्ठसमया चरित्ते, सव्वेसु४ ‘जहन्न दो'१५ समया॥ ५५५. सुतसम्म सत्तगं खलु, विरताविरतीय६ होति बारसगं।
विरतीइ७ पन्नरसगं, विरहित कालो अहोरत्ता ।।
५५२.
१. जूभ (चू)।
६. मेत्ता उ (स, दी, हा) मेता उ (स्वो ६२८/३२७७), मुद्रित चू में २. स्वो ६२५/३२७२, गाथा ५४७/१ सभी मुद्रित व्याख्या ग्रंथों में निगा ५५० से ५५९ तक की गाथाओं का संकेत नहीं मिलता किन्तु
के क्रम में है किन्तु यह गाथा निगा के क्रम में नहीं होनी चाहिए। संक्षिप्त व्याख्या और भावार्थ है। प्रसंगवश भाष्यकार अथवा किसी अन्य आचार्य द्वारा बाद में जोड़ी ७. स्वो ६२९/३२७८।। गई है। इस गाथा को निगा न मानने के निम्न कारण हैं- ८. स्वो ६३०/३२७९, यह हाटी की मुद्रित टीका में निगा के क्रमांक में १. नियुक्तिकार ने गा. ५४६, ५४७ में सामायिक-प्राप्ति के कारण न होकर उद्धृत गाथा के रूप में है पर इस गाथा के लिए क्रमांक भी और उनकी सभी कथाओं के संकेत दे दिए हैं। यहां पर यह गाथा छोड़ दिया है। हाटी में अगली गाथा का क्रमांक ८५२ न होकर ८५३ है। अतिरिक्त व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती है क्योंकि नियुक्तिकार केवल ९. तु (स्वो ६३१/३२८८)। एक ही कथा का विस्तार नहीं करते।
१०. उ (हा, ला)। २. विषयवस्तु की दृष्टि से भी गा. ५४७ के बाद गा. ५४८ का सीधा ११. सुतसम्म (स्वो), "मगारीणं (म), "सुयागारीणं (महे)। संबंध बैठता है।
१२. लिया (ब)। ३. रईए (म)।
१३. "मित्ताओ (म)। ४. विरतीय (स्वो ६२६/३२७३)।
१४. सव्वेसिं (म, स्वो)। ५. णातव्वा (स्वो ६२७/३२७४), इस गाथा के बाद प्राय: सभी १५. जहन्नओ (स्वो ६३२/३२९०)।
हस्तप्रतियों में दो अतिरिक्त गाथाएं मिलती हैं। लिपिकार 'गाथाद्वयं १६. "विरईए (हा), "विरईइ (ब, म)। भाऽव्या'का उल्लेख करते हैं। ये गाथाएं स्वो (३२७५, ३२७६) की हैं। १७. "ईए (हा, दी स), विरतीय (स्वो ६३३/३२९१)।
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