Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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५८२/१.
५८२/२.
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५८२/३.
५८२/४.
५८२/५.
५८२/७.
'अडविं सपच्चवायं'", वोलित्ता देसिगोवएसेणं । पावंति जहिट्ठपुरं, भवाडविं पी तहा
जीवा ॥
५८२/८.
पावंति निव्वुइपुरं, जिणोवइट्ठेण चेव अडवीय देसियत्तं, एवं नेयं
जहर तमिह सत्थवाहं, नमइ जणो तं पुरं तु परमुवगारित्तणतो, निव्विग्गत्थं च
'संसारा अडवीए", जेहि कयदेसियत्तं, ते अरहंते
५८२/६. सम्मदंसणदिट्ठो, नाणेण' य 'सुड्डु तेहि" चरणकरणेण पहतो, णिव्वाणपहो"
अरिहो उ नमोक्कारस्स, भावओ खीणराग - मय-मोहो । मोक्खत्थीणं पि जिणो, तहेव जम्हा अतो अरिहा ॥
'सिद्धिवसहिं उवगता ९२, निव्वाणसुहं च ते सासयमव्वाबाहं, पत्ता अयरामरं
पावंति जहा पारं, भवजलहिस्स जिणिंदा,
१. अडवि सपच्चवाया ( ब ) ।
२. ५८२/१-४ ये चारों गाथाएं मुद्रित हा, दी, म में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु ये गाथाएं स्पष्ट रूप से व्याख्यात्मक हैं अतः नियुक्ति की नहीं होनी चाहिए। स्वो, महे तथा चू में भी इन गाथाओं का उल्लेख नहीं है। गा. ५८२/२ का तीसरा चरण अडवीड़ देसियत्तं है जो गा. ५८२ का प्रथम चरण है। नियुक्तिकार सामान्यतः पुनरुक्ति नहीं करते हैं अतः बहुत संभव है कि ये गाथाएं बाद में जोड़ी गई हैं। चूर्णिकार के समक्ष भी संभवतः ये गाथाएं नहीं थीं । हा, म, दी में भी टीकाकार ने इनके निगा होने का संकेत नहीं दिया है।
३. तह ( ब ) ।
४. अरहा (ब)।
५. 'राडवीए (स्वो) ।
६. पणिवतामि (स्वो ३४९३) ५८२/५-१३ ये नौ गाथाएं मुद्रित हा, म,
एवं सभी हस्तप्रतियों में मिलती हैं। स्वो में कुछ गाथाएं भागा के क्रम में हैं। महे में टीकाकार उल्लेख करते हैं कि ये गाथाएं विस्तार
मिच्छत्तऽण्णाणमोहितपहाए । पणिवयामि ॥
मग्गेण । जिणिंदाणं ॥
सम्मं निज्जामगा तहेव जम्हा अओ
गंतुमणो ।
भत्तीए ॥
८. तेहि सुट्टु (म)।
९. विण्णातो (स्वो) ।
उवलद्धो । जिणिंदेहिं ॥
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अणुप्पत्ता ।
ठाणं ॥
समुद्दस्स । अरिहार" |
से अर्थ का प्रतिपादन करने वाली हैं अतः इनका प्रतिपादन नहीं किया है (महेटी पृ. ५८२ ) । चूर्णि में प्रायः सभी गाथाओं का संकेत एवं व्याख्या है। ये गाथाएं रचना शैली की दृष्टि से निगा की प्रतीत नहीं होतीं क्योंकि नियुक्तिकार किसी सामान्य अर्थ वाली गाथा का इतना विस्तार नहीं करते हैं। ये सभी गाथाएं गा. ५८२ की व्याख्या रूप हैं अतः भाष्य की अधिक संगत लगती हैं। इन गाथाओं को निगा न मानने पर भी विषयवस्तु की दृष्टि से कोई अंतर नहीं आता । ५८२ के बाद ५८३ की गाथा संगत लगती है। ७. नाणेहि (स्वो) ।
१०. 'हिं (म) ।
११. णेव्वा' (म, स्वो ३४९५) ।
आवश्यक नियुक्ति
१२. "वसहिमुव' (हा, म) ।
१३. स्वो ३४९७, इस गाथा की व्याख्या चूर्णि में नहीं है । १४. अरहा (स), यह गाथा स्वो और चूर्णि दोनों में निर्दिष्ट नहीं है।
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