Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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आवश्यक नियुक्ति
३६६.
मंडिय-मोरियपुत्ते, अकंपिए चेव अयलभाता य। मेयजे य पभासे, गणहरा होंति वीरस्स 'जं कारण'२ निक्खमणं, वोच्छं एतेसि आणुपुव्वीए।
तित्थं च सुहम्माओ, णिरवच्चा गणधरा सेसा ॥ ३६८. जीवे कम्मे तजीव भूते. तारिसय बंधमोक्खे य।
देवा ‘णेरइया वा'५, पुण्णे परलोग निव्वाणो ॥ पंचण्हं पंचसया, अद्भुट्ठसया य होंति दोण्ह गणा।
दोण्हं तु जुवलयाणे', तिसतो तिसतो हवति गच्छो ॥ ३६९/१. भवणवति-वाणमंतर, जोतिसवासी विमाणवासी य।
सव्विड्डिए सपरिसा, कासी नाणुप्पयामहिमं ॥ ३७०. दट्ठण कीरमाणिं१२, महिमं देवेहि जिणवरिंदस्स।
अह एति अहम्माणी, अमरिसओ५३ इंदभूतित्ति ॥
१. स्वो ४३६/१९८९, नंदी २१। २. एक्कारस (चू)। ३. स्वो ४३७/१९९०। ४. भूय (हा, दी, म, स)। ५. “इए या (ब, स, हा, दी)।
णेव्वाणे (अ, ब, स, हा, दी, स्वो ४३८/१९९१), नियुक्तिकार ने ग्यारह गणधरों के प्रसंग में महावीर के मुख से केवल संशय प्रस्तुत करवाए हैं, उनका समाधान नहीं। यहां एक प्रश्न उठता है कि नियुक्तिकार ने महावीर के मुख से समाधान प्रस्तुत क्यों नहीं किया? इस संदर्भ में यह संभव है कि समाधान प्रस्तुत करने वाली गाथा भाष्य में मिल गयी हो अथवा नियुक्तिकार ने इस प्रसंग
को अछूता ही छोड़ दिया हो। ७. जुयल (म)। ८. भवे (हा, दी)। ९. स्वो ४३९/१९९२, यह गाथा चूर्णि में अव्याख्यात है। १०. यह गाथा केवल स्वो (४४०/१९९३) और को (४४०/२०१३) में
नियुक्ति गाथा के क्रम में मिलती है। हा, म, दी तथा हस्तप्रतियों में इस क्रम में यह गाथा नहीं मिलती। चूर्णि में भी इस गाथा का संकेत एवं व्याख्या नहीं है। यह गाथा पहले भाष्यगाथा के क्रम में
आई हुई है। (स्वो १९७७, को १९९५) ११. अ, ब और ला प्रति तथा हाटी आदि टीकाओं में 'दट्ठण' के
स्थान पर 'सोऊण' पाठ मिलता है।
१२. “माणी (अ, हा, दी)। १३. अमरिसिओ (म)। १४. स्वो ४४१/१९९४, इस गाथा के बाद प्रायः सभी हस्तप्रतियों में पांच
गाथाएं 'गाथापंचकं ऽन्या ऽव्या' उल्लेख के साथ मिलती हैं। हा में इन गाथाओं का कोई उल्लेख नहीं है किन्तु मटी में 'एतदेव सविस्तरं भाष्यकार आह' उल्लेख के साथ ये गाथाएं व्याख्यायित हैं।दी में निम्न पांच गाथाएं गणधरवाद की समाप्ति के बाद 'अत्र क्षेपकगाथा' उल्लेख के साथ मिलती हैं (दी प १२०)। वे गाथाएं इस प्रकार हैं
मोत्तूण ममं लोगो, किं वच्चइ एस तस्स पामूले। अन्नो वि जाणइ मए, ठियम्मि कत्तुच्चियं एयं ॥१॥ वच्चेज व मुक्खजणो, देवा कहऽणेण विम्हयं णीया। वंदंति संथुणंति य, जेण सव्वण्णुबुद्धीए॥२॥ अहवा जारिसओ च्चिय, सो नाणी तारिसा सुरा ते वि। अणुसरिसो संजोगो, गामनडाणं व मुक्खाणं ॥३॥ काउं हयप्पयावं, पुरतो देवाण दाणवाणं च। नासेहं नीसेसं, खणेण सव्वण्णुवायं से॥४॥ इय वुत्तूर्ण पत्तो, दटुं तेलुक्कपरिवुडं वीरं। चउतीसाइसयनिहिं, स संकिओ चिट्ठओ पुरओ॥५॥ स्वो तथा को में ये पांचों गाथाएं भागा के क्रम में हैं, (स्वो १९९५-१९९९, को २०१५-२०१९)।
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