Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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१३५ / १. अवरविदेहे दो वणिय वयंसा माइ उज्जुगे चेव । कालगता इह भरहे, हत्थी मणुओ य आयाता ॥ १३५ / २. द सिणेहकरणं, गयमारुहणं च नामनिष्पत्ती' । परिहाणि गेहिकलहो, सामत्थण विण्णवण हत्ति ॥ १३५/३. पढमेत्थ विमलवाहण, चक्खुम जसमं चउत्थमभिचंदे । तत्तो य पसेणइए, मरुदेवे चैव नाभी य' ॥ १३५/४. नव धणुसताइ पढमो अटु य सत्तद्वसत्तमाई च। छच्चेव अद्धछट्ठा, पंचसता 'पण्णवीसा १३५/५. वज्जरिसभसंघयणा, समचतुरंसा य होंति वणं पि य वोच्छामी, पत्तेयं जस्स जोर
य" ॥
दी) ।
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१. स्वो १४६ / १५५४, गा. १३५ द्वारगाथा है। गा. १३५/१-१७ तक की सतरह गाथाओं में इसी गाथा की व्याख्या है। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार ये सभी भाष्य गाथाएं हैं। वे स्पष्ट लिखते हैं- 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं भाष्यकारः स्वयमेव वक्ष्यति' । हरिभद्र ने 'अवयवार्थं तु प्रतिद्वारं वक्ष्यति' का उल्लेख किया है। संभव लगता है कि यहां हाटी में भाष्यकार शब्द बीच में छूट गया हो। इस विषय में हस्तप्रतियों को प्रमाण नहीं माना जा सकता क्योंकि हस्त आदर्शों में नियुक्ति और भाष्य की गाथाएं साथ में लिखी हुई हैं। चूर्णिकार भाष्यगाथाओं की व्याख्या भी करते हैं अत: उसके आधार पर नियुक्ति और भाष्य गाथा के पृथक्करण का निर्णय नहीं किया जा सकता। चूर्णि में दो तीन गाथाओं के अलावा प्रतीक किसी भी गाथा के नहीं मिलते किन्तु संक्षिप्त व्याख्या प्रायः सभी गाथाओं की है। भाष्य की तीनों संपादित पुस्तकों में भी बहुत मतभेद है । कुछ भिन्नता तो संपादकों द्वारा हुई है तथा कुछ हस्तप्रतियों के आधार पर भी हुई है। मलधारी हेमचन्द्र द्वारा व्याख्यायित विभा में पंथं किर देसित्ता से प्रथम गणधर की वक्तव्यता से पूर्व तक की गाथाएं अव्याख्यात हैं। वहां मात्र इतना उल्लेख है-पंथं किर...... इत्यादिका सर्वापि निर्गमवक्तव्यता सूत्रं सिद्धैव । यच्चेह दुःखगमं तद् मूलावश्यक विवरणादवगंतव्यं तावद् यावत् प्रथमगणधरवक्तव्यतायां भाष्यम् (महेटी पृ. ३३२) नियुक्तिगत शैली के अनुसार नियुक्तिकार किसी भी विषय की इतने विस्तार से व्याख्या नहीं करते अतः ये गाथाएं भाष्य की अधिक संभव लगती हैं। विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से भी १३५ के बाद १३६ वीं गाथा सम्बद्ध लगती है। २. मोऽलाक्षणिक : (दी) ।
३.
निव्वुती ( अ, ब ), निप्पत्ती (स) ।
४. सामत्थणं ति देशीवचनमेतत् पर्यालोचनमित्यर्थः (मटी), सामत्थर्ण देशीवचनतः पर्यालोचनं भण्यते (हाटी) ।
५.
स्वी. १४७/१५५५ ।
६. पढमत्थ ( अ, ला), पढमित्थ (ह, "ईए (अ)।
७.
८. ठाणं ७०६२, स्वो १४८ / १५५६ ।
९. "सया य (स, हा, दी ) ।
१०. वीसं तु (स, हा, दी), वीसाओ (म, ब), 'वीसहिया (लापा, अपा), स्वो १४९/१५५७।
११. वोच्छामि (हा, ला, दो) ।
१२. जं (लापा) ।
१३. आसि (अ, रा, ला), स्वो १५० / १५५८ ।
संठाणे। आसी३ ॥
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