Book Title: Agam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Author(s): Bhadrabahuswami, Kusumpragya Shramani
Publisher: Jain Vishva Bharati
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भूमिका
आवश्यक निर्युक्ति के संपादन का इतिहास
एकार्थक कोश के संपादन के पश्चात् पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी एवं युवाचार्य महाप्रज्ञ (वर्तमान आचार्य) ने मुझे नियुक्तियों का कार्य करने का इंगित दिया। पाठ संपादन क्या होता है, इसका कोई अनुभव नहीं था इसलिए उस समय मन में अवधारणा थी कि यह अत्यंत सरल कार्य है। दो-तीन महीने में काम पूरा हो जाएगा। लगभग दो-तीन महीनों में टीका में प्रकाशित निर्युक्ति गाथाओं की प्रतिलिपि कर उनमें जो क्रमांक आदि की त्रुटियां थीं उन्हें ठीक करके फाइलें गुरुदेव को निवेदित कीं। कार्य देखकर गुरुदेव ने फरमाया-'एक बार तुम अहमदाबाद में पंडित दलसुखभाई मालवणिया को यह कार्य दिखाओ क्योंकि उन्होंने निर्युक्ति, भाष्य आदि के संपादन के क्षेत्र में कार्य किया है।'
मालवणियाजी ने कार्य देखकर कहा- 'हस्तप्रतियों से पाठ संपादन और समालोचनात्मक टिप्पणी के बिना पाठ-संपादन का कार्य अधूरा होता है। आपका यह कार्य रद्दी की टोकरी में डालने जैसा है। आप हस्तलिखित प्रतियों से निर्युक्तियों का पाठ - संपादन एवं गाथा संख्या का निर्धारण करें क्योंकि अभी तक इस क्षेत्र में कोई कार्य नहीं हुआ है। उन्होंने लाईब्रेरी से नियुक्ति की हस्तलिखित प्रतियां निकलवाईं और प्राचीन आदर्शों से पाठ मिलाकर किस प्रकार संपादन किया जाता है, यह कला भी बताई। वहां चार महीने रहकर हस्त आदर्शों से नियुक्तियों का पाठ संपादन किया। हम लोग सवेरे ८ बजे से सायं पांच बजे तक लाईब्रेरी रहते। पहले एक महीने समणी सुप्रज्ञाजी (साध्वी शुभप्रभाजी) एवं बाद में तीन महीने तक समणी सरलप्रज्ञाजी (साध्वी सरलयशाजी) साथ रहीं। काम की धुन थी । रात-दिन एक करके इस कार्य को पूरा करने का प्रयत्न किया। वहां जिन पांच नियुक्तियों का कार्य किया था, वह नियुक्ति पंचक के रूप में प्रकाशित हो चुका है। वहां से आने के बाद सन् १९८६ में आवश्यक निर्युक्ति के पाठ संपादन का कार्य प्रारंभ किया।
शोध कार्यों में पाठ-संपादन का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है, पर श्रमसाध्य भी है क्योंकि पाठनिर्धारण का अर्थ मात्र इतना ही नहीं कि प्राचीन प्रतियों के विभिन्न पाठों में एक पाठ को मुख्य मानकर अन्य पाठों का पाठान्तर दे दिया जाए। पाठ-निर्धारण में सूक्ष्मता से अनेक दृष्टियों से विचार करना होता है। अनेक व्याख्या ग्रंथ और उनमें भी विसंगतियां होने के कारण आवश्यक निर्युक्ति का कार्य अत्यंत जटिल था। टीका में प्रकाशित निर्युक्ति की गाथा संख्या और हमारे द्वारा संपादित आवश्यक निर्युक्ति की गाथा संख्या में लगभग ५०० गाथाओं का अंतर है। हमने उन गाथाओं को मूल में क्यों नहीं माना, इसका सहेतुक कारण पादटिप्पण में उल्लिखित कर दिया है। इस कार्य में अनेक बार इतना एकाग्र होना पड़ता कि आहार आया हुआ भी दो तीन घंटे पड़ा रहता । एकाग्रता से सिर इतना गर्म हो जाता ऐसा लगता मानो मस्तिष्क के भीतर बिजली के बल्ब जल रहे हों। कार्य बहुलता और अत्यधिक श्रम के कारण शरीर पर भी असर हुआ। वजन भी काफी घट गया । कार्य की संपूर्ति पर जब पूज्य गुरुदेव के दिल्ली में दर्शन किए तो उन्होंने फरमाया-'मासखमण करके आई हो क्या ?' आवश्यक निर्युक्ति के संपादन का कार्य लगभग सन् १९८७ में पूरा हो गया था लेकिन प्रकाशन का कार्य नहीं हो सका। बीच में व्यवहार भाष्य, निर्युक्ति पंचक तथा गुरुदेव के साहित्य पर कार्य किया ।
पहले पूरी आवश्यक निर्युक्ति को ही एक साथ प्रकाशित करने की योजना थी लेकिन उसका एक अंश 'सामायिक निर्युक्ति' का कलेवर ही बहुत अधिक हो गया अतः महाश्रमणी साध्वी प्रमुखाजी
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