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उपोद्घातः ण फासे - इतिपर्यन्तं मुक्तात्मनां निरूपणमस्ति । स्व- स्पर्श है'-यहां तक मुक्त आत्माओं का निरूपण है। 'अपने प्रमाद प्रमादेन अनेकरूपाणां योनीनां सन्धानं, विरूपरूपाणां के द्वारा अनेक रूपों वाली योनियों में जन्म लेना, विभिन्न स्पों स्पर्शानां प्रतिसंवेदनं, जन्ममरणयोरनुपरिवर्तनं च अस्ति (कष्टों) का प्रतिसंवेदन करना और जन्म-मरण का अनुपरिवर्तन बद्धानां आत्मनां निरूपणम्, यथा .... सहपमाएणं अणेग- करना'-यह बद्ध आत्माओं का निरूपण है। रूवाओ जोणीओ संधाति, विरूवरूवे फासे पडिसंवेदेइ । 'से अबुज्झमाणे हतोवहते जाइमरणं अणुपरियट्टमाणे ।'
संसारिणो जीवाः सन्ति कर्मभिर्बद्धा अत एव ते संसारी जीव कर्मों से बंधे हुए होते हैं, इसीलिए वे कर्म करते कर्माणि कुर्वन्ति, तेषां फलमनुभवन्ति च ।
हैं और उनके फल का अनुभव करते हैं। ___ आत्मनः कर्मणश्च अनादिकालीनो योगोऽस्ति जन्म- आत्मा और कर्म का अनादिकालीन योग जन्म-मरण का मरणयोश्चक्रम् । एतदस्ति निश्चयनयेन अनात्मिकम्। चक्र है । यह निश्चयनय की दृष्टि से अनात्मिक है, आत्मा का यदनात्मिकं तद् अध्यात्मचक्षषा पश्यतोऽस्ति दुःखम्। स्वभाव नहीं है । जो-जो अनात्मिक होता है वह अध्यात्म चक्षु से प्रस्तुतागमे दुःखं हेयं सुखमुपादेयमिति निरूपितमस्ति ।। देखने वाले के लिए दुःख होता है। प्रस्तुत आगम में दुःख हेय और आचारशास्त्रस्य प्रधानोऽयं विषयः । ज्ञेयस्य निरूपण- सुख उपादेय है-यह निरूपित है। यह आचारशास्त्र का प्रधान मत्रास्ति प्रासंगिकम् । दुःखस्य चक्रमिदं --
विषय है। इसमें ज्ञेय का निरूपण प्रासंगिक है। दुःख का चक्र इस
प्रकार है--- जे कोहदंसी से माणदंसी।
जो क्रोधदर्शी है, वह मानदर्शी है । जे माणदंसी से मायदंसी।
जो मानदर्शी है, वह मायादर्शी है । जे मायदंसी से लोभदंसी।
जो मायादर्शी है, वह लोभदर्शी है । जे लोभदंसी से पेज्जदंसी।
जो लोभदर्शी है, वह प्रेयदर्शी है। जे पेज्जदंसी से दोसदंसी।
जो प्रेयदर्शी है, वह द्वेषदर्शी है। जे दोसदंसी से मोहदंसी।
जो द्वेषदर्शी है, वह मोहदी है। जे मोहदंसी से गब्भदंसी।
जो मोहदर्शी है, वह गर्भदर्शी है । जे गब्भदंसी से जम्मदंसी।
जो गर्भदर्शी है, वह जन्मदर्शी है। जे जम्मदंसी से मारदंसी।
जो जन्मदर्शी है, वह मृत्युदर्शी है। जे मारदंसी से निरयदंसी।
जो मृत्युदर्शी है, वह नरकदर्शी है। जे निरयदंसी से तिरियदंसी।
जो नरकदर्शी है, वह तिर्यञ्चदर्शी है । जे तिरियदंसी से दुक्खदंसी।
जो तिर्यञ्चदर्शी है, वह दुःखदर्शी है। अस्य हेयत्वम् .से मेहावी अभिनिवदृज्जा कोहं च, इसकी हेयता का प्रतिपादन इस प्रकार है- मेधावी क्रोध, माणं च, मायं च, लोहं च, पेज्जं च, दोसं च, मोहं च, मान, माया, लोभ, प्रेय, द्वेष, मोह, गर्भ, जन्म, मृत्यु, नरक, गब्भं च, जम्मं च, मारं च, नरगं च, तिरियं च, दुक्खं तिर्यञ्च और दु.ख को छिन्न करे।"
च।
कषायमूलं दुःखम् । उन्मूलिते कषायबीजे दुःखं स्वत दुःख का मूल कषाय है । कषाय के बीज का उन्मूलन होने एव उन्मूलितं भवति । अतः क्रोधादिमोहपर्यवसानस्य पर दुःख स्वयं उन्मूलित हो जाता है। इसलिए क्रोध से प्रारंभ कर उन्मूलनार्थ यत्नो विधेयः । तन्कृते कषाये समता प्रादु- मोह तक के उन्मूलन के लिए प्रयत्न करना चाहिए । कषाय के कृश भवति । सा समतैव आचारांगस्य हृदयम् । अन्यानि । होने पर समता प्रादुर्भूत होती है। वह समता ही आचारांग का सर्वाणि आचारतत्त्वानि तामाश्रित्यव सन्ति सप्राणानि ।। हृदय है । दूसरे सारे आचार के तत्त्व इसी का आश्रय लेकर
प्राणवान् बनते हैं। १. आयारो, २१२३-१४० । ४. वही, ५।१०३।
६. वही, ३१८३। २. बही, २॥५५॥ ५. वही, ३।२।
७. वही, ३८४ ३. वही, २०५६ ।
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