Book Title: Samyktotsav Jaysenam Vijaysen
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Rupchandji Chagniramji Sancheti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल ब्रम्हचारी मुनि श्री अमोलख ऋषिजी महाराज 44040444444444444444444444464 कककककककककककककककककककककककर मूल्य सम्यक्त्व स्वीकार नने वाले DIE SEES Ke 2 सम्यक्त्वात्सब जयसेणं विजयसण चारत्र उस ग श्री वीराब्द २४४१. प्रत ७५-सर्वबत १००० और प्रसद्ध कर्ता (दक्षिण) हैद्राबाद निवासी ဣစုံစုံစုံစုရုံးစုံကိုရိုးရှိရှိနဲ့ ရိုးရိုးရှိရှိစုံစုံစုံ ရိုက်က်နန္ဒရှိရှိ အန်န်ရိုးရိုးရုနစ်စု ရှိရှိရှိ भाइजी श्री रूपचंदजी छगनीसमजी संचती बजापूर वाल के तरफ से श्री शारदा प्रेस-अफजलगंज चमन दक्षिण ) हैद्राबाद. में सिर्फ टाइटिल छपा। Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रस्तावना. * गाथा-ण दशणं णाण । णाण विण नहुन्ति चरण गुण ॥ अगुणस्स नत्थि मोख्खो । नत्थिऽमोख्खस्स निव्वाणं ॥१॥ श्री उत्तराध्ययनजी सूत्रके २६वे अध्यायमें फरमाया होक-सम्यक्त्व विना ज्ञान न हीं होता है, ज्ञान विना चारित्र नहीं होताहै. चारित्र विना मोक्ष नहीं होता है. और मोक्ष प्राप्त हुवे बिना दुःखसे छुटका नहीं होता है. इन बचनोंसे सत्य समझीए कि-सर्व दुःखोसे मुक्त कर सर्व सुखों की प्राप्तिका प्रथमिक सच्चा साधन सम्यक्त्वही है. अर्थात्-जिनोंके सम्यक्त्वकी प्राप्ति हुइहै उनकी आत्मा अनुक्रम से-सम्यक्त्वसे ज्ञान, ज्ञानसे चारित्र, चारित्र से मोक्ष और मोक्षस अनन्त अक्षय निराबाध शाश्वत परमानन्द परम सुखकी प्राप्ति करती है ऐसा सम्यक्त्व रूप निधानकी प्राप्ति विश्वालय निवासी अन्तान्त प्राणीयोंमेंसे किसी एक प्राणी कोही होतीहै. अर्थात् सम्यक्त्व नाम धारी व हम सम्यक्त्वीहैं-ऐसे मानने वाले औ र कहने वालेतो असंख्यातेही निकल आवेंगे परन्तु असंख्यात नाम रूप धारी सम्यक्त्वीयों मेंसे भी-सच्ची सम्यक्त्वका स्पर्शन करने वाले-आराधने वालेतो कोइ विरलेही पावेंगे?x ___ + दोहा-समकिती २ सब कहे । मिथ्या कहे न कोए ॥ जिस घट समकित पाइये । सो घट विरलाहोय॥ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों कि-सम्यक्तव किसी-मत में-भेषमें-किरिया में या ढोंग में नहीं है परन्तू-एक यथार्थ श्रद्धानमें है. जो जीवादि पदार्थों का निश्चयिक व्यवहारिक द्रव्यादि सामाग्री प्राप्ति के योग्य-यथार्थ (जैसाहै वैसाही) श्रद्धान (जान पने युक्त परितीत) करतेहै वोही सच्चे स सम्यक्त्वी कहलातेहैं. कि जिनोंकी आत्मा रागद्वेष विषय कषाय मत मतान्तरके झगडेसे विरक्त हो कृष्ण नरेन्द्रवत एकांत गुण संग्रह मेंही तत्पर रहती हैं। _ और धनीपर धाडे पडतेहैं.” इस कहवत मुझबही ऐसेजोसम्यक्त्व रत्न रूप महा नि धानके धारक होतेहैं, उनके माल का हरण करने नाश करने विना कारणही मिथ्यात्वीयों प यत्न करतेहैं. उनका सर्व स्वय हरण कर मरणान्ततक पहोंचा देतेहें, परन्तू जिनोंने पहिक सुख सामग्रीको क्षीण भंगूर विनश्वर जानलीहै, वो ऐसे परम सुखदायि सम्यक्त्वका नाश करनातो दूर रहा परन्तु किचित मात्र वट्टाभी नहीं लगने देतेहैं. इन गुणोंका हुबह स्वरूप इ स “सम्यक्तवोत्सब” रासमें जयसेण विजयसणके कथनकर दर्शाया गयाहै. इसके दो विभागोंमें सेप्रथम भागमे तो पुण्य परतापके दशोने वाली धमे मिश्रित कौतक रूप कथाकी क थनीहै. और दुसरे भाग में-सम्यक्त्वी के लक्षण आचरण और उनको सम्यक्तव धर्मसे च लित करने मिथ्यात्वीयों कैसी योजना पर्यत्न करतेहैं, उससे सम्याक्त्वयों अपने प्राप्त र Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नका कैसी युक्ति से यत्न करत हैं. वगैरा विस्तार पूर्वक विचित्र रागों में कथ कर सम झाया गया है. पाठक गणों, श्रोता गणों, दत्त चित्त से निरन्तर इसका मनन पूर्वक पठन श्रवन कर, जिनको. सम्यक्त्वकी प्राप्ति न हूइ है वो प्राप्त करेंगे. जो सम्यक्तवी हैं वो प्राप्त रन का यत्न करेंगे-विशुद्ध निर्मल सम्यक्त्व पदार्थ को रखकर परम नन्दी परम सुखी व नेगे ऐसा परम उपकार कर्ता इस रासको जानकर इसकी१०००प्रत यहांके ज्ञान बृद्धि खाते में-निम्न दार्शत महाशयोंका द्रव्य जमाथा उसके सव्यसे आजमर-कान्फरन्स आफिसके सुखदेव सहाय जैन प्रि.प्र. में छपवाया. और वहां काम बिलम्बसे होता देख यहां इसका डीबाचा प्रस्तावना, शुद्धि पत्र वगेरा छपवाकर बाइडिंग करावाकर-सम्यक्तवी भाइयोंको अमूल्य लाभ देता हुवा कृतज्ञता समझताहूं: रुपे. सद्गृहस्थोंके नाम. गाम. जिल्ला. + ५०)-भाइजी श्री टेकचंदजी मथुरालालजी-नालछा (धार-मालवा) वाले. ३०)-भाइजी श्री टेकचंदजी ज्ञानचंदजी-दिगठाण (धार-मालवा) वाले. ५०)-भाइजी श्री कुवरमलजी नत्थुमलजी जैनीकी मारफत-रोपड (पंजाब) वाली पांच बाइयों २५)-भाइजी श्री नवलमलजी मूरजमलजी धोका यादगिरी(हैद्राबाद) २५)-भाइजी श्री रूपचंदजी छगनीरामजी संचेती बेजापुर (हैद्राबाद) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५)-भाइजी श्री मूलवानमलजी जसराजजी खींवसरा (विगलोर छावनी, २०)-भाइजी श्री बखतावरमलजी धाडीबाल बगडीवाले (हैद्राबाद) १०)-भाइजी श्री चौथमलजी मुलतानमलजी, बन्डर-सोरापूर (हैद्राबाद) ६)–भाइजी श्री सिरदारमलजी तांतेड कुचेरा-मारवाड वाले (हैद्राबाद) ५)-भाइजी श्री पूनमचंदजी खींवसरा-विगलोरकी छावणी. ५)-भाइजी श्री मगनीरामजी रामचंदजी, पाडोली, (हैद्राबाद) २)-भाइजी श्री दोलतरामजी मोतीलालजी मींडे (हैद्राबाद) २)-भाइजी श्री मोहनलालजी चन्दूलालजी, पाडोली, (हैद्राबाद) २)-भाइजी श्री दोलतरामजी केशरीमलजी तडबड, यादगीरी-(हैद्राबाद) २)-भाइजी श्री झाझुरामजी शिवसहायमलजी, भेरोडवाले (हैद्राबाद) इन सदगृहस्थोंकी तरफ से यह ग्रन्थ अमूल्य भेट कर करतज्ञता हूइ समझताहूं... कृतव्य परायणता का इच्छक राजाबहादर लाला सुखदेव सहायजी ज्वाला प्रसाद जौहरी. ( दक्षिण ) हैद्राबाद चारकमान. वीराब्द २४४१ दीपवाली. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ट. बीच स्वप्न श्रेयकार श्रीजेयसण विजयसेण चरित्र का शुद्धिपत्र. पाठक गणो ! प्रथम निम्र लिखित अशुद्धियों को शुद्धकर फिर यत्नासे पढीयेजी . ओली. अशुद्ध. शुद्ध. पृष्ट. ओली. अशुद्ध. शुद्ध. वक्ष वक्षा नीच स्वप्न मान तोय कमरी कथो पउड पडह लाज्यो लेजो आले ओले कमरी कुमरी मुझ माधिक्क मा धिक्क अत लिख अन्तलिख खोउ खोड खा ती कहांथी पाउ पाड मांउ जानार जमाइ सही॥१०॥ •vor कुमरी कथे " मांड कोड होड सही। बडती भार ढली भाइ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फेडूं मैं थारे ७८ .. तणों पर्दू प्यारे तणी पामुस्यु लण पामस्यु लग. वहे कहे . तेनुना दोपे तनुजा समा मय मेमांश्रुत नयनां श्रुत मर्षे स्यन्द हर्षानन्द पाछे धावे पाछे आवा आया आदि सो आरीसो नीम दीये युक्ति पुक्ति वहां यहाँ अजा जे अजाने मेहल संकीर्षा संकीर्ण थापे क्यों माहेरो महिरो ॥४॥ मान .. भगी नगद विदरा अखणु भणी नणद बिद्या अपणो कह . . कयो तजे ... मगन युगन्द्रिया गगन युगत्रिया माने Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर राय मध्यरथी आय खेचपत तोपीया मणीद्र जय जयधीर संघ हुवा नक्र परमानन्दो फरराय १.१५ मध्यबजारथी १२१ आया १२८ खेचरपत तोषीया मध्यस्त 0000 स्यात आशा ट्रेडडाइ यो जतो ठिर॥ नेठा कहो करसी आयो यह ॥१॥२॥ पाय णाश्चर्य स्थान आज्ञा ट्रेढाइ आजतो ॥आंकडी। नेडा कहां फरसो आपो ३ १०१ शेशे नयधीर संग हुवा नाक परमानन्दी रोशे ताको लाया साचो भरमाइ इहापो पॉप आश्चर्य १११ ११२ ताक लाय सांची भराइ इहायो मिती रेख्या मिली देख्या ११५ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. मुझने टोती वक घणा राणी मठ गावु क्रा खेदाचर्य टोली बक्त घणी रागी मेंठगा— १४८ १४१ मुझसे . यर यताएं राहनी रोष रक यह बनावं एहनी १६२ दोष खेदाश्चर्य करूं ब्रह १६५ mo 209 varma रहा शक्ति भोगवे मुगे । चेतावती मनुष्य चेतावता शाख भीगबे परिती पाय १६९ परिणति हार हम पाया विगोय हुक्कर और अरोहित सहित विमोय देख स्थानक नाशा राजका रायन होइ होद स्थानके नाश रातका रायको गया गमा अमोल ऋषि. Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | ॐ श्री परमात्मायनमः " श्री सम्यक्त्वोत्सव " जयसेणविजयसेण चरित्र प्रारंभ ॥ दोहा ॥ प्रणमुं जिनेश्वर जग गुरु । दाता सुद्धि बुद्धि वाम । ध्याता पाता निर्मळ मन । थाता चिन्तित काम ॥ १॥ तीर्थेश्वर मुक्तेश्वरु । मुनिश्वर सुरी साध ।। प्रणमुं सिरांजली करी । वक्ष अक्षय समाध॥ २॥ पद्म पंकज गुरु राज पद। मुझ मन भ्रमर लीन । कृपासिंधु विन्दू बुद्धि दे । कीजो मुझ परवीन॥ ३ ॥ संघेश्वर मु. ख प्रगटी । वागेश्वरी कवी माय । तनुजपर सुनजर कर । दो श्रुति सुखदाय॥ ४ ॥ | सर्व जेष्ठ श्राश्रय गृही। धरी मन हुल्लास । सम्यक्त्वोत्सव का रचुं । शभा समीटर रास ॥ ५ ॥ समकिती २ बहू कहे । सम्यक्त्व अति दुर्लभ । जोपानी शुरु पाल ही । तास शिव सुख सुलभ ॥६॥धर्म मूल सम्यक्त्व है। महा लाभ दातार । सम्यक्त्व बिन क्रियानिष्फल । मींगणी पर खांड सार ॥ ७॥ विमल सम्यक्त्वी विजय नृप । जैनागमे तला लीन । संकटे सुमेरु ज्यों स्थिर रहे । शुद्ध तत्वार्थ चीन ॥ ८ ॥ तास तणी सुकथा यह । श्रोता सुणो स्थिर चित । गुण ग्रही वर्गों तदा । पावो - - Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० इच्छित हित ॥ ६ ॥ ढाल १ ली। जादूपति जीत्या जी। ये देशी॥ समकित शुद्ध पालोजी । सब दोष दूर निवार । सम० जो वांछित सुख दातार । सम ॥ टेर ॥ लक्ष जोयण गोलकार में यह । जंबु नामें लघु द्वीप ॥ शोभे क्षेत्र गीरि नदी से । प्रणाढी देव महीप ।सम ॥ १॥ भरत क्षेत्रकर्म भूमी को है । पांच सो जोयण मांय। छब्बीस ऊपर छे कला में । षट ६ खंड से दीपाय । सम ॥२॥ साढ़े पचीस देश आर्य में हैं । सोबीर देश सुखकार । नन्दीपुर नगर शिरोमणी है। विश्वानन्द दातार ॥ सम ॥३॥ गढ़ मेहल मन्दिर घरों से । शोभे स्वर्ग समान । धन धान्य ऋद्धि पूर्ण भरी । सदा वरते कल्यान । सम ॥ ४ ॥ स्वचक्री परचक्री को जी। डर नहीं तहां लगार । चोर जार अन्यायी जोतां । मिलेन नगर मझार।सम ॥ ५॥ दुर्भिक्ष दुकाल उस शेहर से जी। दर रहे सदा काल। धर्म पुण्य विद्या बली जी। वसे है नर खुश हाल । सम ॥ ६॥ धर्म सिंह नाम नृपति जी । रूप तेज इन्द्र समान । न्याय नीति धर्मी गुणी। श्ररि तीम्र को भान । सम ॥ ७ ॥ पुत्र परे पाले परजा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि N! भणी।पोषे दे विद्या नीति क्षेम । चोर अन्यायी दुष्ट को सो । हरण करीले प्रेम । सम ॥८॥ सत्कार प्रसार के । पोषे अनाथ अपंग ने बाल । संपादित सब प्रेम को। कियो निज शुभ गुण नृपाल । सम ॥ ६ ॥श्रीकान्ता श्री दत्ता श्रीमति । यह तीनों है पटनार। रूप कला शील विनय दया से । वश हवा नृप परिवार॥ सम॥१०॥ श्री कान्ता श्री दत्ता एकदा जी। सूती सुख सेजा मांय ।शार्दूलसिंह स्वपने लख्यो। शीघ्र जागृत होइ हर्षाय । सम ॥११॥ उभय २ राणी एकी समय जी। भूप को प्राइ जणाय । हर्षानंदे वदे राजवी । अब उणार्थ पूर्ण थाय । सम ॥ १२ ॥ पुत्र प्रसव सो सिंह समा। कुल केतू दिन कर आधार । अंजली युत राज्ञी कहे । येही इच्छा पडो वाक्य पार । सम ॥ १३ ॥ ले अाज्ञा निज स्थाने गइ जी। धर्म जागरणा कनि । पाते शभा सजाय के । नृप पण्डित बोलाये प्रवीन । सम॥ १४ ॥ पूछा अथे स्वमा तणा।ते शास्त्र जो करे उचार। तीस ३० उत्तम बेचाली ४२ अधम। बहोत्तर स्वप्ना शास्त्र मझार । सम ॥ १५ ॥ अत्युत्तम चउदह स्वप्न देखे । तीर्थंकर की मात । सात ना Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि०॥ | रायण राम चार । एक मांडलिक माता पात । सम ॥ १६ ॥ चतुष्पद नृप सिंह शार्दुल । तैसे नराधिप नन्दन होय। शुरवीर अरी गंजना। सज्जन धर्मी मन मोय॥ | । सम ॥ १७॥ हर्षोत्सहा कहे महीपति। विज्ञानी वयण प्रमाण । पीडियों लग खा- । इन खुटे । दी श्राजीवका राजान । सम ॥ १८ ॥ खुशी हुई पण्डित गया। नृप राणी को अर्थ जणाय । गर्भ पाले दोष टालती । रहा नित्यानन्द वृताय। सम ॥ १६ ॥ गर्भ पुण्यात्म पसाय से। राज लक्ष्मी वृद्धि पाय । तीन मांस यों बीतीया । पुण्ये शुभ डोहला प्रगटाय । सम ॥ २० ॥ पुरुष वेश शस्त्र सजी । करी सेना संग परिवार।क्रीड़ा करूं वनने विषे। शरमी अरति धरे ते वार । सम ॥ २१ ॥अंग रIkl क्षक दासी थकी। नृप जाणा डोहल का भेद । दी श्राज्ञा शीघ्र पूरिये । जो उपनी मन उम्मेद । सम॥ २२ ॥ डोहलो पूर्यो हर्ष्या सह । जाण्या उदर से पुण्य हाल । | ऋषि अमोल समकितो त्सवे । ये पभणी पहिली ढाल । सम॥ २३ ॥ दुहा ॥ सुIN पात्र नित्य पोषती।दे चउदह (१४) प्रकारे दान।धर्मोन्नती करती सदा । धर्मात्मा को । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०वि० ५ सन्मान || १ || सवा नव मास यों वीतीया । शुभ लग्न प्रसंग । जन्म्या दोनों राणी तब । कुंवरजी वरत्या रंग ॥ २ ॥ जन्मोत्सव उमंगे कियो । छोड्या वंदीवान । दुःखी दारिद्री तोषिया । देह वांछित दान || ३ || सज्जन परजन पोष के । गुण निष्पन्न दीयो नाम । जयसे विजयसेणए । नाम समा परिणाम ॥ ४ ॥ उज्वल पक्ष के चन्द्र ज्यों | बढे बुद्धि बल रूप । दृढ धर्मी वय बाल से | देखी अचंभे भूप ॥ ५ ॥ मानो भव पूर्व ही थकी । लाय सम्यक्त्व लार । सु गुरु देव धर्म ज्ञान पे । राखे अति ही प्यार ॥ ६ ॥ न्याय नीति पे प्रीति अति । पाखंड से रहे दूर । पढे कला सर्व शीघ्र ही । हुवे शुभ गुण भरपूर ॥ ७ ॥ जोड़ हरी हलधर समी । खोड न दिखे लगार | मोहनगारा सर्व को । करत सदा चेन चार ॥ ८ ॥ होनहार होयो रहे । कर्म गति है विचित्र । सो सुणिये भव्य दत्त चित्त । वरणुं आगे चरित्र ॥ ६ ॥ ढाल २ री । वीरजी बखाणी हो मुनिश्वर करणी आपरी ॥ यह देशी ॥ ईर्ष बोड़ो हो जोड़ो प्रीति सम्प से । ईर्ष से हानी अनेक । सम्प वहां जम्पज हो Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० सदा रहे सुख नीलो । सोचो जगजन देख ॥ इर्ष ॥ १ ॥ श्रीमति नामे हो राणी तीसरी । दुर्मति वति सदाय ॥ इर्ष ॥ रूपे सोहामणी हो गुण अलखामणी । कपट दपट में रमाय ॥ इर्ष ॥ २ ॥ निज २ संचित हो पुण्य प्रमाण से । सुख, यश, धन जन पाय ॥ ३० ॥ मूर्ख सिदावे हो देखी सुख पारके । पुण्य विना कैसे सोथाय ॥ ३० ॥ ३ ॥ एकदिन सूती हो सुखे निज सेज में | स्वप्न लियो सुखदाय । शभा भराणी हीराणीति विषे । विषम नीवेड्योजी न्याय ॥ इर्ष ॥ ४ ॥ यों देख हर्षि हो जागी तत्क्षिण | प्रीतम पास जो आय । मधुर वचन से हो नृप को जगाविया । स्वप्न विरतंत जणाय ॥ इर्ष ॥ ५ ॥ सुणी श्रानन्दि हो राजाजी यों कहे । पुत्र होवे - गा गुणवन्त । न्याय विशारद हो मजलस रंजणों । प्रजा तात महन्त ॥ ईर्ष ॥ ६ ॥ श्रीमति हर्दी होई निजस्थान के । करे गर्भ प्रतिपाल । सुखे २ वीत्या हो माम सवा नौ तदा । जन्म्यों पुण्यवन्त बाल || इर्ष ॥ ७ ॥ जैसे पंक से हो कमलज नीपजे । मृतिका से जैसे हेम ॥ चार समुद्र में हो मुक्ताफल हुवे । ए पुण्यात्म Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - जवि० हुवा तेम ॥ इर्ष ॥ ८ ॥ परिजन जीमाइ हो स्थापे नामने । गुण निष्पन्न 'न्यायसेण ॥ चंपकलता हो सुक्ल शशी परे । वृद्धि होवे हर्षे सेण ॥ इर्ष ॥ ६ ॥ विज्ञावय में | हो पढाइ सवी कला। धर्म ज्ञान सत्संग ॥ प्रवीन भया सो हो स्वल्प ही कालमें । करे क्रिडा उछरंग ॥ इर्ष ॥ १०॥ जय विजयने हो साथ रमे सदा । लघु जाणी ते धरे प्रेम ॥ परन्तु पुण्याई हो जुदी २ नरतणी । पावे उतनो ही खेम ॥ इर्ष ॥११॥ जय विजय का हो पुण्य प्रवल अति । ते लगे दास समान ॥ देखी श्रिमति हो चित्त में प्रज्वले । आर्त रौद्र ध्यावे ध्यान ॥ इर्ष ॥ १२ ॥ राजाधिपती हो होसी IN दोनों बन्धुवा । मुझ पुत्र जन्म दुःख पाय ॥ कोइ उपावे हो हणावू दोनों भणी। तो मुझ पुत्र सुखी थाय ॥ इर्ष ॥ १३॥ छल छिद्र बहु विष हो देखे दोइका करे । केइ मारण उपाव ॥ पुण्य बली जेह छेहो जय विजय घणा । लागे नहीं एकी दाव ॥ इर्ष ॥ १४ ॥ चिन्तातुरी हो हुई श्रीमति घणी । अन्नोदक नहीं भाय ॥ निद्रा रीशाणी हो खिशाणी सदा रहे । नयने नीर वहाय ॥ इर्ष ॥ १५ ॥ एकदा । Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०नि० अाइ हो एक जोगणी तिहां । जाणेते विद्या अनेक ॥ श्रीमति पेखी हो लखी # चित तत्क्षिणे । बोले सा धरती विवेक ॥ इर्ष ॥ १६ ॥ विद्या बल से हो जाणी 2 में आपके । चित में चिन्ता है पूर ॥ सो प्रकाशो हो महारे सन्मुखे । करुं क्षिण- | IN में दुःख दूर ॥ इर्ष ॥ १७ ॥ इन्द्रवश आणू हो दीपक रवी करुं । हरू क्षिणे शत्रु M का प्राण ॥ सत्य सबी मानो हो कहनी माहरी । करुं तुम कह्या प्रमाण ॥ इर्ष ॥ ॥ १८ ॥ निशंक होइ हो कहो मुझ मन तणी । तुम हम बीच भगवान ॥ तुम । - दुःख देखी हो मुझ मन दुःख धरे । दी है तिणी जबान ॥ इर्ष ॥ १६ ॥ गुणी जन तुमसा हो मिलीया हम भणी । तबही कही मन बात ॥ प्रभा न रखा हो हम जगमें कोइ की । इम राणी ने प्रचात ॥ इर्ष ॥ २० ।। इच्छित मिलीयो हो राणी ने प्रायने । ढाल दूसरी मांय ॥ ऋषि अमोल कहो पुण्य प्रतापसे । वि। घन सबी विरलाय ॥ इर्ष ॥ २१ ॥ दोहा ॥ श्रीमति हर्षी अति । सुणी जोगण ना वेण । क्षुधित भोजन लइ हुवे । त्यों फल्या राणी नेण ॥ १॥ करामातण Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Goo - ह जोगण भणी | जाणी अति होंश्यार || भाग्ये या माहेरे । हिवे चिंतित करूं पार ॥ २ ॥ सन्मानी घणी जोगणी । आसन ऊंच बैठाय । अन्न वसन इच्छित देइ | साता तस उपजाय || ३ || नरमी कहे थे ज्ञानी हो । जाख्यो महारो दुःख ॥ जिम बोल्या तिमही करी । अर्को मुझने सुख ॥ ४ ॥ दुःख सब दाख्यो मन तणो । सुणी जोगणी हर्षाय ॥ किंचित फिकर न कीजिये । यह तो सहज उपाय ।। ५ ॥ ढाल ३ री ॥ वीर नृपति अन्यदा समय || ये देशी || श्रीमति हर्षित हुई जाणी जोगण करामात ॥ हो भाइ || जोगरा पण हर्षित हुइ । जन्म को श्रय चहात || हो भाइ श्री ॥ १ ॥ कहे राणीजी देखिये । थोड़ा ही दिन के मांय ॥ हो बाइ ॥ मारुं दोनों बन्धवा । करूं में गुप्त उपाय ॥ हो भाइ श्री ॥ २ ॥ एकान्त जाय रेवा भणी । दीनी तस सुखकार || हो भाइ ॥ और सामग्री सब दावी । विद्या साधन तोय हो भाई । श्री ॥ ३ ॥ जोगणी - राधन जोगण कयों देवी प्रत्यक्ष होय हो भाई । क्यों चिंतारी मुझ भणी | कहे Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० कार्य तुझ सोय हो बाई । श्री ॥ ४ ॥ नमन करी कर जोड़ के । जोगण करे अरदास हो माई । मुझ मित्राणी श्रीमति तणी । पूरो शीघ्र तुम पास हो माई । श्री ॥ ५ ॥ राजेश्वर मन फेरी करी । जय विजय की घात कराय हो माई । राज मिले न्यायसेण ने। ऐसा करो उपाय हो माई । श्री ॥ ६॥ ज्वाला भणे इण कार्य से। श्रीमति दुःख पाय हो बाई । कुमर दोनों महा पुण्यवन्त हैं । मार्या किमपी न जाय हो बाई । श्री ॥ ७॥ दुख सुख रूप तस होवसी । तोपण राखण तुझ मन हो बाई । उपाय रचूं ऐसो हिवे । होय श्रीमति चिन्तन हो बाई । श्री ॥ ८॥ इम पभणी सुरी गई । जोगण राणी पास आय हो भाई । कहे चिन्तित होसी तुम तणो । सिद्ध हुवो कियो उपाय हो वाई । श्री ॥६॥ दोनों ही सुखे रहे । राते सुरी स्वप्न मांय हो भाई । कहे नृप को सावध हुवो । ध्याने धरो मुझ वाय हो भाई । श्री ॥ १० ॥ मैं कुलदेवी तुम तणी । चाहूं कुल को खेम हो भाई । श्रा योग होतब जा' कोइ । तो चेतावं धर प्रेम हो भाई । श्री ॥ ११ ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ११ जय विजय तुम तनुज दो । होसी तुमको दुःख कार हो भाई । ति कारण दोनों भणी । शीघ्र न्हखावो मार हो भाई । श्री ।। १२ बैरी और व्याधी अंकूर से | करनी तत्क्षिण नाश हो भाई । तो अगल बधे नहीं । यह नीति वचन विमास भाई | श्री || १३ || सत्य बात ये मान जे । करजे जो हित चहाय हो भाई । नहीं बश फिर है माहेरी । यों कही देवी जाय हो भाई । श्री ॥ १४ ॥ जाग्या तब ही भूपति । चिन्ता व्यापी अपार हो भाई । असंभव बात कैसे बणे । देव मिया न करे उचार ही भाई । श्री ।। १५ ।। कहे श्रीमति ने जगाय ने । स्वप्न तणो विरतंत हो भाई । श्रीमति कहे मुझ ने यदा । ये ही स्वप्न यावंत हो राजा । श्री ।। १६ ।। नृप कहे असंभव बात ये । दोनों कुंवर विनयवंत हो राणी । कुल भूषण द्वण विना । किम मुझ दुःख करंत हो राणी | श्री ॥ १७ ॥ राणी कहे हो नाथ जी । लोभ पाप को वाप हो राजा । होती आई अनादि से । जाणो छो शास्त्र ने आप हो राजा । श्री ॥ १८ ॥ स्नेह सगपण लोभी न गि । राज Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० लक्ष्मी के काज हो राजा । केई माँ मरसी केई । जो गफलत में रह्या हो राजा। श्री ॥ १६ ॥ सन्देह नहीं अम्बा वयण में । चेता गई हित काम हो राजा । कालिज मुझ धूजी रह्यो । कुशल रखो अहो राम हो राजा । | श्री॥ २० ॥ सावध रहजो नाथजी । करो योग्य शीघ्र उपाय हो राज । तृतिय ढाल अमोलक भणी । राणी का चिन्तित थाय हो भाई । श्री ॥ २१ ॥ दोहा ॥ राणी सुरी का बयण सुण । नपति अति विस्नाय । कूल भषण मुझ नानड्या। किण विध मार्या जाय । ॥ १॥ विष वृक्ष हाथे लगाविया । ते पिण नहीं कटाय। कल्प वृक्ष सम तनुज दो। विन गुन्हे किम सराय ॥२॥ जन्म से आज दिवस लगे कर्यो न कोई अन्याय । श्राण न उल्लंघी माहेरी । ते किम होवे दुःख दाय। ३॥ कदा राणी सोक खार से । बोले मिथ्या वेण । पण देवी क्यों मिथ्या लवें । अाश्चर्य अधिक एकेण ॥ ४ ॥ यों चिन्ता सागर विषे । राय गौता रह्या खाय । खाड कूप के मध्य रह्या । सुचे ना कोई उपाय ॥ ५ ॥ ढाल ४ थी ॥ वैदरवी सै Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० मन वस्यो ॥ यह देशी ॥ उत्तम अपमान सहे नहीं। नीच न लाज न प्राय हो लाल । केशरी जावे एक बचन से । श्वान धुकर्या बहु प्राय हो लाल ॥ उत्तम ॥१॥ निश्चय मन महीपति कीयो । मारण में नहीं सार हो लाल । वस्यवृत्ति महारे। करूं । ज्यों न होवे कोई विगाड हो लाल ॥ उ०॥२॥ निजर कैदी कर के रखं । वाहिर न जाने पाय हो लाल । बिना चेतायां विन हुकम से । महारे पास न प्राय IN हो लाल ॥ उ० ॥३॥ फिर किम दुःख देशी मुझ भणी। जचीयो एही उपाय । हो लाल ॥ बोलायो दरवान ने । शक्त हुकम यों फरमाय हो लाल ॥ उ० ॥ । कुमरों ने मेरे हुकम विना । जाने न देना बाहर हो लाल ॥ तैसे न आवे मेरे कने। * वात मत करना जाहर हो लाल ॥ उ ॥५॥ यो पुक्तो वन्दोवस्त करी । निश्चिन्त IN रहे राजान हो लाल । प्राते तात चरण वन्दवा । कुंवर अाया दोडी स्थान हो लाल ॥ उ ॥ ६॥ दरवान रोक्या तत्क्षिण । कहे पूछ अावू इणवार हो लाल । फिर आप अन्दर पधारजो । हुकम कियो दरबार हो लाल ॥ ७ ॥ खेदाश्चर्य Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० अति पाइया। दोनों कुमर तत्काल हो लाल । किम आजही रोक्या जावता । हुवा ___१४ | कांइ हवाल हो लाल ॥ उ०॥८॥आपण जाण अजाण में । कीनो नहीं को ! । कसूर हो लाल। विना गुन्हें अाज अपणने। नृपति राख्या दूर हो लाल ॥ उ०॥ ॥ अपमान स्थान क्षीण एकही। रहणा जुगतो नाय हो लाल ॥ पुण्यें आया || 1 राजकुल विषे । आगे भी पुण्य संग प्राय हो लाल ॥ उ०॥ १० ॥ अटन किया | अन्य देश में । भाग्य परिक्षा होय हो लाल । चातुरी बल बुद्धि वढे । यों चिन्तव | ते दोय हो लाल ॥ उ०॥ ११ ॥ परवश पणे इहां रेहवो। यह तो मोटो दुःख हो । | लाल । परदेशे फिर आपण हिवा। भोगां स्वेच्छा को सुख हो लाल ॥ उ०॥ १२॥ | निशरम अपमान सही करी । पड्या रहे तेही ठाम हो लाल । निति बचन ए है । | खरो । सुज्ञ तजी लहे आराम हो लाल ॥ उ ॥ १३ ॥ ॐ श्लोक ॥ त्रय स्थान || न मुच्यते । काका का पुरुषा मृगा । अपमान त्रयो यांति । सिंह सत्पुरुषा गजाः | ॥ १॥ ॥ ढाल ॥ इम सोची साहस धरी । अाया मेहल के द्वार हो लाल । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १५ सावध कर पिता भी । श्लोक रचा तेही वार हो लाल ॥ उ० ॥ १४ ॥ ॥ श्लोक ॥ तुलवलेय सहसे वृथैवं । समं प्रमाणं निखिलान ये हम । गुरूव धस्ताद गुरून दुच्चान। करोष्यशेषान कुदृदृषत्समाश्च ॥ १ ॥ रत्नानि रत्ना करमां वमंस्था । महमि भीर्यद्यपि ते बहुनी । हानिस्तवै वेह गुणैस्त्विमानी। भाविन भूवल्लभ मौलि भांजी ॥ २ ॥ न चैव दोषस्त्व किन्तु कस्या । प्यन्यस्य यः क्षोभ करस्तवापि । गुगोथवाऽयं कथमन्यथास्ति । तेषां गुणैः स्वैर्महिम प्रवृति ॥ ३ ॥ ॥ अस्यार्थ ढाल || होताकडी मकर मानतुं । में करूं सब का तोल हो लाल । ऊंच नीच नी खबर नहीं । तिथी तुझ होसी मोल हो लाल । उ० ॥ १५ ॥ रत्नाकर रत्न करंड को | मत कर मन अभिमान हो लाल । वे रत्न रूठा जो तुझ थकी । तो ही सहसे अपमान हो लाल ॥ उ० ॥ १६ ॥ पण दोष नहीं यह तुझ तणो चहाडिये कीनो क्षोभ हो लाल ॥ गुणी गुण सर्व स्थान पामसी । बधे रत्न की शोभ हो लाल ॥ ३० ॥ १७ ॥ यों कथो तीनों श्लोक को । पत्र चेंटायो द्वार हो Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० लाल ॥ सुरत्व धरसिंह सारखा। चले दोनों कुमार हो लाल ॥ उ० ॥ १८ ॥N शकुन श्रेयकार तब भया। ऋद्धि सिद्धी दातार हो लाल ॥ समझा हर्षाया । घणा । सीख्या कला के मझार हो लाल ॥ उ० ॥ १६ ॥ निश्चयवादी क्षत्रि - कुली । उर सोच नहीं को लगार हो लाल ॥ विश्वास्या सुशकुन से ।। चलिया उत्सहा अपार हो लाल ॥ उ ॥ २० ॥ पुण्यात्म पगले पगले । पावे सुख । विशाल हो लाल । ऋषि अमोल ने यह कही । रसीली चौथी ढाल हो लाल ॥ । उ० ॥ २१ ॥ ॐ ॥ दुहा ॥ जामान्तर नरपति तदा । संभार्या कुमार । बोलाया 1 मिलिया नहीं । तब भय पायो अपार ॥१॥ रखे किहां ही गुप्त रही। करे अचिन्ती घात । ढूंढावे अति खंत से । द्वारपाल तब भात ॥२॥ द्वार पत्र जे लगावियो । कहा सहु समाचार । नृप सामंत साथे लही । तत्क्षिण आया द्वार ॥३॥ पढ़िया श्लोक तिहूं प्रकट तहां । अर्थ समझा सब भूप । परसंस्ये खुल्ले N मुखे । हाहा बुद्धि अनूप ॥ ४ ॥ चिन्ते नृपति श्रेय भयो । सहजे टलियो पाप । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १७ में भी यहां निश्चिन्त रहू । तेभी न पाया त्रास ॥ ५ ॥ दोनों कुमर की मात सुए । दुःख ते पाइ अपार । श्रीमति हर्षि घणी । करण पुत्र सिरदार ॥ ६ ॥ चिन्तित. 'न हुवे कोइ को । होवे जो हो हार । श्रोताजन आगल सुखा । जय विजय अधिकार ॥ ७ ॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ बालुडा तूं संग न जाजेरे । पाछो घर बेमो जेरे || यह चाल ॥ पुण्य फल भव्य जन जोजो जी । पुण्य करवा उत्सुक होजो जी || टेर || जिम २ कुमर आागल बधे । तिम २ शकुन श्रेय थाय । चिन्ते इण वन ने विषे । महा लाभ मिले किस्यो आय ॥ पु० ॥ १ प्रागल विषम रम्य वन में | शीघ्र जावे देखत विनोद | मध्याने क्षुधित भया । लियो विश्राम धरी प्रमोद ॥ पुण्य || २ || मिष्ट निरोग फल भोगव्या । पीयो शीतल झरणा को नीर | बात बनावे प्रेम की । बैठा तरु तल दोनों वीर ॥ पुण्य ॥ ३ ॥ दुपट्टो वीछाइयो । भुज उसीस्थो तल देय । थाक प्रमाद निवारने । तहां भूमी पे सूता तेय ॥ पुण्य ॥ ४ ॥ जैसे वक्त यह पडे । सुज्ञा होवे उसी प्रमाण । खेद न Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० वेदे चित्त में । फल येही पाया विज्ञान ॥ पुण्य ॥ ५॥ लघु बन्धव निद्रित भया जी। जेष्ट छांय निश्चिन्त । जय जी पड़े विचार में । पूर्व पश्चात् केइ चिन्तित ॥ । पुण्य ॥ ६॥ तेहीज वट ना वृक्ष पे जी। यक्ष युगल मुखे रेय । देखी दोनों पुण्यात्म को । यक्षणी कर जोडी केर ॥ पु०॥७॥ प्राणेश अाज अपने घरे । हुवा पाहूणा राज कुमार । ज्ञानी गुणी धर्मात्मा । योग्य करो यांरो सत्कार ॥ पु०॥८॥ यक्ष कहे सुगुणी प्रिया । वक्ते भली चेताइ मोय । घर आया मा 12] जाया सारीखा । हूं तोषु हिवणा दोय ॥ पु०॥६॥ त्रिजगे मिलणी दोहली। । तीनों वस्तु है मुझ पास । ते इनके अर्पण करी । हूं तो पूरुं महारी अास ॥ पु० ॥ १०॥ हर्षी दम्पति मानव रूपे । प्रकटे जयजी ने पास । नमन कियो प्रेमातुरा। नरभी ने करे अरदास ॥ पु०॥ ११ ॥ भले पधार्या पाहुणा। आज पवित्र प्रांगण | कीध । हम जंगली भक्तिसी करां । तुम भुक्ता हो राज रिध ॥ पु०॥ १२॥ अमूल्य वस्तु त्रिहूं मुझ कने । कृपा करी करो अंगीकार । आप जैसा पुण्यात्म के Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १६ जोगी । हे जी करसो उपकार || पु० ॥ १३ ॥ प्रथम मंत्र यह लीजिये । कीजिये सात दिन जाप । अष्ट दिने निश्चय पावसो । महा राज्य ऋद्धि श्रमाप ॥ पु० ॥ १४ ॥ दूसरी मणी यह अमूल्य छे । इसे रखे जब मुख मझार । रूप होवे धारे जिसो | उड जावे गगन मझार ॥ पु० ॥ १५ ॥ पखाली पाणी पावतां । स्थावर जंगम विष करे दूर । सामग्री युत भोजन दे सहू । वली इच्छित ऋद्धिपूर ॥ पु० ॥ १६ ॥ तीसरी जडी महा औषधी यह । जो होवे शास्त्र अग्नि घाव | पशुदंश व्यन्तर दुःख ने । हरे लगायां अटल उपाव ॥ ५० ॥ १७ ॥ यह थोड़ी सेवा माहेरी । बहु जाणी करो अंगीकार ॥ कुँवर अचिन्त महालाभ जो । हियड़े हर्षे अपार ॥ ० ॥ १८ ॥ अग्रह सत्कारे ते गृही | सन्मान्यो जुगल ने अपार ॥ पर संसी भक्ति घणी । वली मान्यों प्रोढ उपकार ॥ पु० ॥ १६ ॥ हर्षित हुवा दोनों घणा जी । सुणी कुमर ना बचन । नमी गया निज स्थानके । अर्धी ने तिहुं रतन ॥ ५० ॥ २० ॥ यों पुण्य के प्रभाव से । अल्प दुःखे पावे महा सुख Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - २० । ज०वि० ढाल पंचम अमोलक भणी । भागे रसीली कथा मुख ॥ पु० ॥ २१ ॥ ॥ | दुहा ॥ जय जी मन पाणंदिया। पा लाभ अपरंपार । सूता लघु बंधव कने । रही न चिन्ता लगार ॥ १ ॥ महा औषधी प्रभाव से । उपसर्ग न जरा होय ।। निशी सर्व तहां ही रहा । सुखथी कुमार दोय ॥ २॥ प्रात जय जी जागीया।। विजय भणी जगाय । नित्य नियम स्थिरचित कियो । तेतले रवी प्रगटाय ॥३॥ प्रेमातुर जयजी हुई । लघु बन्धव को जणाय । पूर्व सुकृत्य यहां फले । अमूल्य | त्रिवस्तु पाय ॥ ४॥ यक्ष युगल की भक्ति को । कह्यो सर्व विरतान्त । देखाई । तीनों वस्तु ते । विजय भी अति हर्षत ॥ ५॥ ॥ ढाल ६ ट्री ॥ पियाजी थारा चित्त मांहे कांइ वसी ॥ यह चाल ॥ देखोजी भाइ भाइतणी प्रीति । कहां देखिये जग में रीति ॥ देखो० ॥टेर ॥ राजमन्त्र विधि सहित बताया। प्राण के प्रेम अति । अति अग्रह कर तास सिखाया । देने राज क्षीति ॥ देखो० ॥१॥ कपट रहित सो मन्त्र यादकर । करता विचार चिति । राजधणी जेष्ट बन्धव Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० २१ IN होवे यह शास्त्र की नीति ॥ देखो० ॥ २॥ अति नम्र हो मिष्ट वयण से । यो करता विनंति । पिता सम जेष्ट राज योग्य तुम । अनादि यह वृति ॥ देखो० ॥ ३॥ में तुम सन्मुख सेवक सो रहूं । ज्यों लक्ष्मण सीतापति । इसीलिये विद्या यह । श्राप सिद्धकर । होवो भू इन्द्ररति ॥ देखो०॥ ४ ॥ जय कुमर लघु बन्धव । | ताइ । वांछे करण भूपति । बोले तूं किम् नहीं राज जोगो । न बोली जे अघटति | ॥ देखो० ॥ ५ ॥ अपन दोनों राज योग्य हां । लक्षण गुण प्राकृति । दोनों मिल । सिद्धकरां यह सिद्धी । रहकर पुक्त यति ॥ देखो० ॥ ६॥ विजय वचन प्रमाण | करी ये । बैठा जपनठिति । लघु बन्धव के विश्वास काजे । जय करे ढोंग रीति ॥ - देखो०॥७॥ मन्त्र जाप तो न करे किंचित । मुख हिलावे निति । देखो प्रेम जेष्ट बन्धव का । निर्लोभी ज्यों जति ॥ देखो०॥८॥ तात ज्यों भ्रात की आज्ञा पालन । विजय सदा स्थिरचिति । यथा विधि साधे साविद्या । देखो लघुत्व वी | नीति ॥ देखो० ॥ ६ ॥ पग फिरण क्यों परिश्रम कीजिये । जो है वस्तु छति । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० मणी प्रार्थी उडिये गगन में । चलिया शीघ्र गति ॥ देखो० ॥ १० ॥ विद्याधर सम विविध प्रकारे । क्रीडा करत क्षीति । संत सतीयों के दर्शन करते । सुने व्याख्यान गीति ॥ देखो०॥ ११ ॥ क्षुधित हुवे तेहि मणी पसाये । नीपाय भोजन इच्छति । शाल दाल पक्वान व्यंजन तोय । सरस सुखद बहुभांति ॥ देखो० ॥ १२ ॥ उत्तम भूषण वस्त्र सजे सदा । दान पुण्य करते विति । देवसमा यों सुख | भोगवते । जाय आनन्दे मिति ॥ ॥ देखो० ॥ १३ ॥ यों फिरता ते दिवस । सातवे । कामपुर ने अंकति । उतरे अाइ वाग मांही । हर्षे जो नगरा कृति ॥ खो० ॥ १४ ॥ साक्षात् जाने स्वर्गपुरी ये । दिव्य ज्योति झलकति । चिन्ते चित में जय जीते वारे । आज भाइ ले राजप्रति ॥ देखो० ॥ १५ ॥ पण यह तो गृहण न करसी । महारी लज्जावति । इण कारण भेजूं इणने ही पुर में ! मैं यहां ही | - लेवू विश्रंति ॥ देखो० ॥ १६ ॥ कहे भाइ में विश्राम यहां लेवें । तुम जानो नगर N] प्रति । अनोखी वस्तु मिले सो लाग्यो । ना कह जो थे मति ॥ देखो० ॥ १७ ॥ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० | थोड़ी वार से मैं भी श्रावूगा । विजय सरल प्रकृति । मानी वयण चाले कामपुर । २३ ।। में । विसरी बात चिति ॥ देखो० ॥ १८ ॥ आये पुर में तापे घबराये। बैठे एकांत क्षीति । मार्ग प्रेक्षा करे बड़े भाइ की । प्रेक्षे नगर प्रति ॥ देखो० ॥ १६ ॥ पुण्य फले ये इसी नगर के । होवे अबी ही पति । कह अमोल सुणो अहो श्रोता। षष्ठी ढाल इति ॥ देखो० ॥ २० ॥ दुहा ॥ ते अवसरे ते पुरपति । अपुत्र्यो मरण पाय । अन्यने गादी दिया विना । दहन क्रिया न थाय ॥ १॥ सामान्त मिल । सम्मति करी । पंच द्रव्य संग लेय । फिरे तदा राजपुर विषे । पुण्यात्म कोइ छेय N॥ २॥ राज लालसा बहुत धर । द्रव्य सन्मुख बैठे अाय । संचित विन किम पामीये । द्रव्य अपूठा जाय ॥ ३॥ फिरता २ प्राविया। जहां बैठा विजय कुमार । । दैव जोग तस ऊपरे । वूठा द्रव्य श्रेयकार ॥ ४ ॥ गज गरज्यो हयवर हिंस्यो। कलश ढुला सिर प्राय । छत्र छयो चामर ढुले । सब सानन्द देख पाय ॥ ५॥ ढाल ७ वी ॥.अाज अानन्द घन जोगीश्वर श्राया ॥ यह चाल ॥ पुण्यात्म को Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० सुख सवाया । गज विजय पुण्य पर खायारे लो॥ सूंडे से गीरी कुंभ स्थले २४ । बैठाया । उंच उंचो पद पायारे लो ॥ पुण्या० ॥ १॥ कुसुम वृष्टि सुर करी कुमर पर । राज भूषणे सजायारे लो । प्रत्यक्ष देव प्रभाव यह देख के । सज्जन सहु हर्षायारेलो ॥ पु० ॥ २॥ पुण्य पोरषा जाणी विजयते । जय २ शब्दे बधायारे लो। पंच शब्द वाजित्र बाजे । विरुदा वली बोलायारे लो ॥ पु०॥ ३॥ रूप 1 तेज बल आकृति निहाली । नम्या सामांत भूपालीरेलो । हर्षी प्रजा मुखे चडीलाली । भांगी चिन्ता कंकालीरे लो ॥ पु० ॥ ४॥ आकाश में बोले देव वाणी । यह छे उत्तम प्राणीरेलो । सहूजन पाल जो राहनी आणा । जो चावो सुख खाणीरे लो ॥ पु० ॥ ५॥ यों सुण अरिजन त्रास जो पाया। नमीया तत्क्षीण पायारे लो । पुरेन्द्र सम प्रताप जम्यो तस । मेहले चालण सज थायारे लो ॥ पु०॥ ६ ॥ तब कहे विजये सब धैर्य धरीये । एक महारी कही करियेरे | लो । मुझ जेष्ट बन्यव गुण गण दरिये । तास हुकमें अनुसरी येरेलो ॥ पु०॥ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० २५ ॥७॥ सो इहां छे वाग के मांही। लावो सत्कारी बोलाइरेलो। तस देवो तुम | | तख्त वैठाइ । होसी सहुने सुखदाइरे लो ॥ पु०॥ ८ ॥ यों सुनकर सब आश्चर्य । पाये । अहो निर्लोभ विनीत सवायारे लो । प्रधानादि वाग में आया। पण जय ।। | जी तस नहीं पायारे लो॥ पु० ॥६॥ तव सचीवादि कर जोड बोले । आपही * रत्न अमोलेरे लो । दैव हमने न्हाख्या अाप खोले । पालो पोषो राज भालेरे लो। | ॥ पु० ॥ १० ॥ श्राप पुण्य श्राप संपत पाया । सो तो बीजा थी नहीं विलसायारे IN लो । बडा भ्रात कोइ स्थान न पाया । अन्य स्थान सीधायारे लो ॥ पु०॥११॥ तब बिजयजी चमक्या चित्त मांइ । दिन सप्तम जाण्याइरे लो। इणही काज भाइ दियो मुझ पठाइ । श्राप तो दूरा गयाइरे लो ॥ पु०॥ १२ ॥ होणहार सो. निश्चय थावे । अब भाइ किण विध पावेरे लो । ते तो गगन भमें मणी प्रभावे । | सुझ दृष्टिए कैसे आवेरे लो पु० ॥ १३ ॥ यो फिकर करता राज में आया । सब जन मिल गादी वैठायारे लो । पहिला नृप की दहन क्रिया करी ! जग व्यवहार Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० करायारे लो॥ पु०॥ १४ ॥ जय भाइने जरा विसरे नाहीं । क्षीण २ चित्ते आइरे । २६ लो। राज साहेबी शुन्य लखाइ। पण रह्या फासे फसाइरे लो॥ पु०॥ १५ ॥ पुत्र तणी परे प्रजा ने पाले। नीति प्रमाणे चालेरे लो। सज्जन जन न घणाही सुहावे । दुशमण ने मन सालेरे लो ॥ पु० ॥ १६ ॥ निज राज में हिंसा बन्ध कराइ । कु. रिवाज दीया मिटाइरे लो। न्याय चाले ने सहुने चलाइ। यों सुखी करी प्रजा ताइरे लो ॥ पु०॥ १७ ॥ दान शाम विद्या शाळा स्थापाइ । अनाथालय की । [१] धाइरे लो। ओषध शाला धर्म शाला थी। कीर्ति विश्व फेलाइरे लो॥पु०॥ १६ ॥ पुण्य पसाय जे संपति पाइ । पुनः ते पुण्य में लगाइरे लो। पुण्य से पुण्य की । बृद्धि थाइ । पुण्य सदाइ सुख दाइरेलो ॥ पु०॥ १६ ॥.यों रहे इहां सदा सुख । मांही। बीजयजी राज पद पाइरेलो। सम्यक्त्व उत्सवे ढाल यह सप्तमी । ऋषी अमोलक गाइरे लो ॥ पु० ॥ २१ ॥ दोहा ॥ जयजी रही प्रत लिख विषे । देख्या । | सहू विरतंत ॥ बंधव भूप हुवो लखी। हुवा खुशी ते अत्यन्त ॥ १ ॥ पण इच्छे । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ ज०वि० नहीं मिलण को । रखे न्हाखे फंद मांय । विदेश कौतक देखन की । | इच्छा निष्फल थाय ॥ २॥ इम चिन्ती मिल्या विना । चाल्या गगन मझार । कौतक रसिया जीवडा । आलस न करे लगार ॥३॥ उत्तमपुरे उतंग गीरे । गह न वने सर पाज । उदधि आदि स्थान के । विचरे इच्छे त्यांज ॥ ४॥ मणी प्र• भावे पूरवे । मनोर्थ मन का सर्व । पुण्यात्मने पगपगे । वरते सदा ही पर्व ॥५॥ ॐ ॥ ढाल ८.वी ॥ श्रेणिकराय हूंरे अनाथी निग्रंथ ॥ यह ॥ श्रोताजन सुणियों पुण्य विरतंत । जयसेण कुमर पुण्यवन्त ॥ श्रोता ॥ टेर ॥ तिण अवसर मही । IN मंडणोजी । जयपुर नगर प्रधान । गढ मढ मन्दिर मालीयाजी । अलकापुरी ने समान ॥ श्रोता ॥१॥ जेत्रमल नाम शोभतो जी । न्यायी तहां को नरेश । दाता भुक्ता गुणनिलोजी । सुखद सहु ने हमेश ॥ श्रो० ॥ २ ॥ जेत्री आदि । तीनसोजी। अंगना रूप शीलवान । पुत्र पांचसो ऊपरेजी । एक पुत्री गुण | खान ॥ श्रो० ॥३॥ जेवश्री जीती लक्ष्मी जी । रूप कला बुद्धि तेज । शशी Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि० वदनी ज्यों सुरांगना जी। पेखत उपजावे हेज ॥ श्रो० ॥ ४॥ तिणही पुर माहें २८ ! रहे जी । कामलता वैश्या अनूप । रुपे लजाइ अपत्सरा जी। तेजे दीपें जैसे धूप ॥ श्रो० ॥ ५ ॥ चन्द्राननी कुरंग लोचनी जी । शुक घ्राण अरुणोष्ट । कम्बू ग्रीवा । IN/ उर उन्नत्ती जी। सुवर्ण वरण अंगोष्ट ॥ श्रो० ॥६॥ गजगमनी दंत दामनी जी। कामनी मोहन वेल । पांचसो दिनार देवे सोही जी। भोगवे ताको छेल ॥ श्रो० ॥७॥ जयकुमर पाया पुर विषे जी । ऊभा तस घर दार । नयन वयन लटका 2 करीजी । मोहित कीया कुमार ॥ श्रो०॥८॥ बांची पट मांही गया जी । द्रव्य | अपार तस देय । विलसे सुख पांच इन्द्रिका जी । सदा तहां सुखे रेय ॥ श्रोता | ॥ ६ ॥ मणी तणे प्रशाद से जी। नित्य प्रत बहू मोलमाल । वस्त्र भूषण भोजन | दिये जी । द्रव्य इच्छित तत्काल ॥ श्री०॥१०॥ माता कामलता तणी जी। | कपट कला की भन्डार । अक्का बृद्ध वये हुइ जी। जाग्यो लोभ अपार ॥ श्रो० | ॥ ११ ॥ एकदा सा चित चिन्तवे जी । मूर्ख पुत्री मुझ । लुब्धि एक ही नर संगे । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० २६ जी । जाणे न कुल को गुरु ॥ श्र० || १३ || बोलाइ कहे पुत्री ने जी । अनिष्ट वयण करुर । तें एक नर धारण कियोरी । फूली योवन के गरूर ॥ श्र० ॥ १३ ॥ कुलाचार किम थें तज्योरी । भंग कियो लियो नेम | पांचसो मोर नित्य तुझ दिये । तास्युं ही कीजीये प्रेम ॥ श्र० ॥ १४ ॥ कामलता देखाडीया जी । मणी भूप बहू मोल । अक्का खुशी हुइ घणी जी । लोभित हो करे तोल ॥ श्र० ॥ १४ ॥ खाती हा प्रावीयो जी । कि हाथी लावे यह माल । विश्वासी पूछे पूत्री को जी | कहे तूं देख्या जे हाल ॥ श्र० ॥ १५ ॥ सा कहे छोटा बटवा थकीं । कोटडी मांही जाय । वस्त्र भूषण भोजन दिये जी । क्षीण मांही ते लाय ॥ श्र० ॥ १६ ॥ पुनः कहै का पूळजे तूं | तास मोह उपजाय । यह करामात हाथे लगे तो । दरिद्र आपणो विरलाय ॥ श्र० ॥ १७ ॥ तनुजा कहे कांई अड्यो जी । पूछे विन ए बात | अनिष्ट लगे जावे तजी तो । मुझ से विरह न खमात ॥ श्रो० ॥ १८ ॥ नियम से अधिक देवे जी । द्रव्य आपण नित्य तेय । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ० अति लोभ दुःखदायी है जी । न लीजे कोइ को छेय ॥ श्रो० ॥ १६ ॥ इम कही ते भगगइजी । भाइ कुमरजी पास । अन्तर नहीं जणावतीजी नित्य नव अकरत विलास ॥ श्रो० ॥ २०॥ सुसंयोग्य पुण्ये लहेजी । लोभे मूलही N जाय । अष्टमी ढाल अमोलकेजी । जो वो अक्का का उपाय ॥ श्रो०॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥ अक्काने लागो भूतडो । लोभ तणो विकराल । बारम्बार कहे पुत्री | 12 को। पूछ कहां से दे माल ॥१॥ अग्रह अति जाणी मात को। एकदा अवसर जोय । ललचाइ पूछे जय भणी । फरमावो गुप्त मोय ॥ २ ॥ इच्छित वस्तु | नित्य प्रते । जो अर्को हम ताय । कहां से लावो स्वामीजी । सच्ची दो फरमाय ॥ | ३ ॥ विजय सुणी चित चिन्तवे । जो राखू में छिपाय । तो तो भंग पडे प्रेम में।। रखे यह दुःखपाय ॥ ४ ॥ गुप्त कहवो नहीं कोइने । नारी ने तो विशेष । उत्पात | केइ उपजे । यह नीति निरेश ॥ ४ ॥ ॥ श्लोक ॥ न कस्यापि प्रकाशितः।। N गुह्य स्त्रीणां विशेषत । तस्यै तथापि सप्रौच । स्त्रीवस्यं किन कुर्वेत ॥ १॥8॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० दोहा ॥ पण यह बचन ने वीसरी । मोहमद छकी कुमार । वीतक वात दाखी !! सहू । अखन्ड निभावा प्यार ॥ ५॥ * ॥ ढाल : मी ॥ मोक्ष पद पावै हो । जिनन्द गुण गावतां ॥ यह० ॥ कपट कला देखोरे चतुर वैस्यातणी ॥ टेर ॥ | कामलता निज मातने सरे । कही सगली बात मांउ । अका सुपी हर्षी घणी । सरे । ज्यों चधित क्षीर खांड ॥ क०॥१॥ तेह मणीने हरण करण को । उत्सुक Aथयो तस मन । कपट कला केलववा कारण । करवा लागी यतन ॥ क० ॥२॥ । छल छिद्र नित्य देख विजय का । मूशक मंजारी जेम । परन्तु मणी-हाथ नहीं आवे । धरे चित्त अखेम ॥क०॥३॥ तब समझी हों शार घणोये । मणी रक्खे निज पास । किणरीते मुझ हात ए लागे । करूं कैसो प्रयास ॥ कप०॥४॥ अवसरे नित्य कुमर पास बाइ । भक्ति करे बहु कोउ । कला केलवी वस्य किया तस । कुण करे कपटी होउ ॥ क०॥ ५ ॥ चन्द्रहांस मदिरा तस पाइ। डाली भरम के मांय । क्षिण में प्रवस्य हुवा कुमरजी । तब ही ढिग आय ॥ क०॥ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ३२ ६ ॥ ढूंढलीवीणी गुप्त स्थान से | तब पाइ चित्त खेम | छिपा रखी तस गुप्त स्थान के । हाथ न लागे जेम ॥ क० ॥ ७ ॥ कालन्तर ते नशो उत्तरीयो । कुमर हुवा सावधान | संभलता ढिग मणी न पाइ । खेद पाया असमान ॥ क० ॥ ८ ॥ समझा मन का मुझ छलीयो । डाली ने मोह फास । मणी हरी कंकर धर्मो से यहां । कीयो मुझ निरास ॥ ० ॥ ६ ॥ ऐसी मदिरा वस्य में डाली । कापीले सीस । इतो मी लेइ मुझ छोड्यो । करी आत्म वक्सीस ॥ क० ॥ १० ॥ रत अति उपजी चित माही । चिन्ता से प्रज्वले अंग । स्नेह बंध पड्यो कामलता को । तज्यो न जावे संग ॥ क० ॥ ११ ॥ निर्द्रव्य नर कुमर ने जाणी । अक्का तनुजा बोलाय । कहे दारिद्री कहाड घर वाहिर । रहे कुल कृतव्य मांय ॥ ॥ क० ॥ १२ ॥ निर्धनीया से नेह करण को । नहीं अपणो आचार | मान मिठास से वाणी महारी । दे निकाल घर बहार ॥ क० ॥ १३ ॥ कामलता मा वचन सुणीने । मुरझाणी मन मांय । उत्तम कुमर के गुण में लोभाणी । बोले यों नर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ३३ माय ॥ क० ॥ १४ ॥ इन पुण्यवन्त को नहीं छोडूं । जवलग जीव तन माय । धन इच्छा किंचित नहीं मुझने । गुणवन्त की है चहाय ॥ क० ॥ १५ ॥ पूर्वो पार्जित कोइ पुण्य जोगे । यह पाया अपने द्वार । अपार द्रव्य दियो अपने ताइ । किम कहाडी जे बार ॥ क०॥ १६ ॥ कृतघ्नता को पातक मोटो । निर्दय काम न कीजे । तुम दानी श्याणी सहू समझो । मुझ ऐसी शिक्षा न दीजे ॥ क० ॥ १७ ॥ तो पण त्रुद्धि बात न माने । ताणे अपनी रुढ । वार २ कहे निकाल जल्दी । लोभ वस्य हुइ मुढ्ढ ॥ क०॥ १८ ॥ कामलता तो जरा न माने । करे नित्य नवल विनोद । ते देखी अति डोसी प्रज्वले । करवा लागी विरोध ॥ क० ॥ १६ ॥ कामलता ने कामे पठाइ । जयजी को कियो अपमान । कर झाली कहाड्या घर बाहिर । बोली हलकी जबान ॥ क० ॥ २०॥ कुमर सदन तज भारत धरता । जा बैठा गुप्त स्थान । कामलता प्राइ पति न दीठा । कीनो बात ध्यान ॥ क० ॥ २१ ॥ निज दासी हाथे ढुंढाया। पण कुमरजी नहीं पाया। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० हुइ निराश अति दुःख धरती । अन्य नर नहीं चित्त चाया ॥ क०॥ २२ ॥ बीच घरे उत्तम आचरणी । यों पुण्यात्म पावे । ढाल यह नवमी गाइ अमोलकं । शीघ्र शीले सुख पावे ॥ क०॥ २॥ * ॥ दोहा ॥ गुप्त स्थान जयजी चिते । | ध्यावे आर्त ध्यान । नीच नारी संगत करी। पायो में अपमान ॥१॥ अमूल्य महा मणी गइ । छुट्यो प्रेमला संग ॥ नीच परमा हेरो । कियो मन इन भंग ॥ २॥ किहां जावू किणने कहू । करूं अब कांइ उपाय ॥ आफस्यो कर्म जाल में । हे प्रभु अब करूं काय ॥ ३॥ विश्वासी मणी संगथी। छोट्या बंधव | N/ संग । ते गइ सब सुख लेइ मुझ । अब होसी किस्यो ढंग ॥ ४ ॥ कर कपोल । दृष्टि मही । नयणे नीर बहाय ॥ देखो पुण्यात्म प्राणीया। शीघ्र ही सब सुख पाय ॥ ५॥ ढाल १० वी ॥ ब्राह्मी ने सुंदरी दोनों बाइ । यह॥हिवेतिण अवसर ।। ने मांइ । जेत्रमल राजारी जेत श्री बाइ । खेले सखीयों ने मझारो ॥ पुण्य वन्त ने सुख मिले श्रेयकारो ॥१॥ खेलती नदी ने तट आइ । सखीयों साथ ते पण Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ३५ न्हाइ ॥ वस्त्र सजी निकली बारो ॥ ५० ॥ २ ॥ कुमरी ना अशुभ कर्म जाग्या । अचिन्त्य पीशाच तस अंग लाग्या । मुरही पडी धरणी तत्कालो ॥ पु ॥ ३ ॥ जैसे वृक्ष ती तूटे शाखा । मुख फाटो विकराल यांखा | देखी सखीयों डरी अपारो ॥४॥ के दोडी आइ राजाजी पासे । वीतक बात सब प्रकाशे ॥ घबरायो भूप सुणी समाचारो ॥ पु ॥५ ॥ तत् क्षीण आया कमरी पासे | देखी चेष्टा हुवा उदासे । सज्जन प्रजन मिल्यो परिवारो ॥ पु || ६ || केइ रोग केइ दोष बतावे । यो केह hs तरह बैमलावे | लाया उठाइ भवन मझारो ॥ पु ॥ ७ ॥ मंत्र तंत्र मंत्र वादी घणा आया । डोरा दांडा धुप दीप केइ लगाया | औषध भवद करे उतारो ॥ ॥ ८ ॥ भोपा बाबा वैद्य सब हर्या । एक ही गरज नहीं सार्या । निकम्मा भया सहु उपचारो ॥ पु ॥ १० ॥ वेदना अधिक बढन लगी । चेष्टा विगाड़ी मरण भीती जागी । मचो मे हल में हाहा कारो ॥ पु ॥ ११ ॥ नृप राणीया भाइ भोजाइ । सहूने प्यारी अति बाइ । कर्म आगे सब लाचारो ॥ पु ॥ १२ ॥ सचीव कहे मही पति तां । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ ज०वि० देवो नगर में दोंडी पीटाइ । इनाम श्रेष्ट कांजे जहारो॥ पु॥ १३ ॥ जो खुटी नहीं होसी अायुरासी । तो पुण्यात्म कोइक अासी । और तो वस्य नहीं लगारो | ॥ पु॥ १४ ॥ नरेश रे बात पंसद आइ । तत्क्षीण हुकम सो फरमाइ । शीघ्र करो प्रसिद्ध नगर मझारो ॥ पु ॥ १५ ॥ जो बाइ का दुःख गमावे । तेहने बाइM यह परणावे । दायजे दे क्रोड दीनारो ॥ पु ॥ १६ ॥ योंही तव पउह बजाबाइ । सुणी ललचाइ घणा अायाइ । पण पुण्य विन किम मिले ऐसी नारो॥ पु॥१७॥ जयजी उद्घोषणा श्रवण सुणी । तत्क्षीण हर्ष्या चिन्ताधुणी ।मुझ पास औषधी श्रेयकारो ॥ पु॥ १८ ॥ पउह छवी राज में अाया। केइ तरह ढोंग जमाया । आडम्बरे होवे मनवारो ॥ पु ॥ १६॥औषधी पखाली पाणी मांही । दीनी कमरी 12. ने पीलाइ । भाग्यो व्यन्त्र पाडी किलकारो ॥ पु॥ २० ॥ तत्क्षीण कुमरी साबध । होइ । देखी परिवार सब होइ । प्रत्यक्ष देख्यो चमत्कारो ॥ पु ॥ २१ महा पुण्य वन्त जय जीने जाण्या । लक्षण संस्थान रूपे यह छाण्या । जोगी जोडीये करो Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि० | संस्कारो ॥ पु ॥ २२ अति उत्सवे जेतश्री परणाइ । उत्तम मेहल दीया रहवा * ताइ । वस्त्र भूषण. दास आदि सुख सारो ॥ पु ॥ २३ ॥ दो गुंदक सुरवर की | परे। जयजी नित्य प्रत मोज करे । गुणवन्ती मिली छे गुण धारो ॥ पु॥२४॥ अचिन्त्य फले करी पुण्याइ । दाखी। ढाल दशमी मांइ। ऋषि अमोल करे ऊचारो॥ पु ॥ २५ ॥ दोहा ॥ तिण ही पुर माहे रहे । धूर्त एक सिरदार ! तृष्णा से | प्रेर्या अति । कपट कला भन्डार ॥१॥ जय महिमा तिण सांभली । औषधी | को प्रभाव । ते लेवण इच्छा जगी । रचीयो तब ही उपाव ॥ २॥ क्षत्री रूप । सामे करी । रह्यो आजयजी पास ॥ विनय विवेक भक्ति करी ।कीया कुमर वस्य 1 खास ॥ ३॥ जयजी भद्रिक भाव से । रीज्या गुण तस जोय । गुप्त कछु राख्यो 10 नहीं। दीठी जडी ते सोय ॥४॥हयों अवसर पाय के। ले गयो तेह उठाय। जयजी भेद न जाणीयो । सरल पणे सुखे रहाय ॥ ५ ॥ ढाल ११वी ॥ पहिले । संवर जिन वर यों कहे ॥ यह ॥ कोइक कारण उपनो एकदा। पेखे औषधी रक्खी Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ३८ जगा तदा ॥ चाल ॥ तदा तिहां खूंटी न पाइ । धस्काइ घबरावीया । कहाँ गइ कोई हर कीनी । शोक इम बहू आवीया । न देख्यो भट जोवायो तब । तास पत्तो नहीं पावीयो । सुणो श्रोता कहे वक्ता । धूर्त तेहने ठेराबीयो ॥ १ ॥ कुमर चिन्तातुर चिन्ते चितने । धिक्क २ होजोजी कपटी मिंतने ॥ चाल ॥ कपटीमिंत विश्वास पमाडी गमाडे वित आपणो । सेवा साधे वयण राधे करे कार्य बहुल पणो । आखीर घातक पातक करके चिन्ता ज्वाला सिलगावई । कहे वक्ता सुणो श्रोता कुमित्र काम न आवह || २ || शोक कियां से हो पाछो न पामीये । समता रखे तो सुख मिले नामीए ॥ चाल ॥ नामी फल मिले समता से । औषधी को फल में लियो । बहू गुणवन्ति राज कन्या । पाणी ग्रहण इण से भयो । गयो sis आपणो | यह लाभ से हर्ष आवइ । कहे वक्ता सुणो श्रोता । समता से सुख पावइ || ३ || देव जो दीधी हो दिव्य मणी श्रोषध । सो कैसे जावे हो छोडी ने पोषध ॥ चाल ॥ पोशक छोड़न जावे कवहू । दोडी मिलेगा पुण्य थी Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ३६ । देवे दीधी देव देशी । पुण्य थी कुछ न्यून नथी । यों ज्ञान से चित्त स्थान लान कर सुखे रहे कुमर सही । कहे वक्ता सुणो श्रोता। ज्ञान पदार्थ सुखदह ॥ ४॥ || हिवे ते अक्कारे वैश्या एकदा । धन इच्छा धर पूजी मणी तदा ॥ चाल ॥ पूजे || N मणी इच्छा घणी धन देवो देव हम भणी । पुण्य विन देव तुष्टे नाहीं। किम NI पूरे इच्छा तेह तणी । फूटी कोड़ी धन नही मिल्या से । मन में अति पस्तावइ ।।।। कहे वक्ता सुणो श्रोता दगाबाज दुःख पावइ ॥ ५॥ पुत्री निर्भरे माधि क्क तुझ भणी । पुण्यवन्त कहाड्यो में जाणी बुद्धि तुझ तणी ॥ चाल ॥ तुझ तणा बुद्धि | भृष्ट भइ । हाथ आयो निधी खोइयो । मुझ बल्लभ को अन्तर पाडहो । हृदय अति मुझ रोइयो । हिवे तस छोडी अवर न वांछु । निश्चय मुझ मन यह सही। कहे वक्ता सुणो श्रोता । प्रिती यों जणावइ ॥६॥ सब परिवार हो निन्दे अक्का भणी । धिक्क २ बुढी रे कहाडयो पुण्य धणी ॥ चाल ॥ पुण्य धणी हुवा राज । * जमाइ । हिवे एहवी खोउ कहाडस्ये । धन लूंटी निकाली कूटी । फोडा बहुत ही Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि०/ पाउसे । सुणी अक्का डरी दिल में । धमकी राय जमाउनी । कहे वक्ता सुणो श्रोता । जयजी के पुण्य सहाही ने ॥ ७॥ देविक वस्तु हो धर्मी प्राणी ने । इ- II च्छित आये । न आपे अन्नाणी ने ॥ चाल ॥ अन्नाणी वैश्या ने तिस्कारी। कहे | सभ एकठा मिली । जावो देवो कुमरनेमणी । जो तूम चावो मनरली । नहीं तो | पूरो विचार करजो । वे हुवा राज अधिपति । कहे वक्ता सुणो श्रोता । जेष्ट दु खायां कुगति ॥ ८॥ अक्का घाबरी श्राइ कुमर कने । रुदन करती हो कर । जोडी भणे ॥ चाल ॥ जोडी कर कहे कुमर से खमो अपराध देव माIN| हेरो । परवस्य हुइ में मदिरा जोगे कियो गुन्हो बहु थायरो । अहो नाथ हम ने श्राप छन्डी । मन्डी प्रीति राज बाइसे । कहे वक्ता सुणो श्रोता। कौन हमारो सहाइ छ ॥ ॥राज प्रताप से श्राप मोहित भया । गरीव की सेवा और सुख | भूली गया ॥ चाल ॥ भूलिया ज्यों स्वर्ग जाइ निज कुटम्ब भूले सही। त्यों हमा । री सारन लीधी घणी किसी जावे कही ॥पण हमारे आप एक हो। आधार दूजा | Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० को नही । कहे वक्ता सुणो श्रोता । स्वार्थीयों बोले सही । भानू अस्ते जी कमल ज्यूं कूमले । त्यों तुम विरह थी पुत्री मुझ टलबले ॥ चाल ॥ विल विले चेन | जरा नहीं पडे । वियोग अग्नि से जल रही । संजोग रूपी नीर सींची। शीतल करो दया लही । तुम वियोगे मरण पासी । अति कर संताप थी । कहे वक्ता सु. को श्रोता । सुखी होसी वेद्य श्राप थी ॥ ११ ॥ एक काम वली है म्हारे सही ।। श्राप विना ते अन्य ने कहवो नही ॥ चाल ॥ नहीं कहवो बल्लभ विना किस । * ने । नहीं अन्य तुम सारखो । महा मणी हमे घर में लाधी नहीं जाणा हम पार । खो। तेह भणी हम तुम ने आपां लीजीये कृपा करी । कहे वक्ता सुणो श्रोता। कुमर हर्ष्या देखि सिरी ॥ १२ ॥ मा फिर बोली हो तुम होता जदा । हमने नि त्य नवी वस्तु देता तदा ॥ चाल ॥ वस्तु नित्य नवी देता हम ने । तुम ने यह कारण आपीये । अन्य हमारे नहीं तुम सरीखो। चाकर कर ढिग थापीये । कृपा करी मुझ घर पधारो। पतीत पावन कीजीये । कहे वक्ता सुणो श्रोता । स्वार्थे Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० आदर दीजीये ॥ १३ ॥ उत्तम नर ते, प्रार्थना भंगे नहीं । आप हम इच्छा, यह | पूर्ण करो सही ॥ चाल ॥ पूर्ण करो सब इच्छा महारी, मणी आप यह लीजीये। | मणी मेली कुमर पासे हम घर पावन कीजीये। लेइ मणी कुमर हा परख्यो | कपट अक्का तणो। कहे वक्ता सुणो श्रोता । कुमर विचक्षण है घणो ॥ १४ ॥ | प्रीति संभारी हो कामलंता तणी । कोप न कीधो हो हुलस्यो मिलवा भणी ॥ चाल ॥ मणी मिली प्यारी हिली । सुख सह चिन्त्यो पाछलो । कहे अवसर देख प्रास्युं । तुम पधारो निज स्थलो । अक्का घर गई खुशी थइ ॥ ढाल एकादश विषे । कहे वक्ता सुणो श्रोता । जोडी यह अमोलक रिषे ॥ १५ ॥ दोहा ॥ अक्का गया तदनंतरे । कुमर पड्या मोह फंद । कामलता मन में वसी । धिक्क काम मतिमंद ॥ १॥ स्वसुर पक्ष निज कुल की । लज्जा मर्यादा तोड । काम | लता सदने चल्या । राज कन्या को छोड ॥ २॥ जयजी अाया देख के । ह यो गणिका परिवार । अति सन्मान दीधो सभी । आज तूठा किरतार ॥ ३॥ || Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च०वि०॥ नित्य नवला सुख भोगवे । खान पान ने स्नान । गान तान गुलतान में । मग्न- AM | ता माने राजान ॥४॥ जय जी की आज्ञा मुजब । सह रहे एक चित्त । पुण्यात्म ने कमी किसी । अानन्द मंगल नित्य ॥ ५ ॥ ढाल १२वी ॥ रे लाला विछीयो म- | हारो बाजणो ॥ यह० ॥ रे भाइ कुमरी सुणी यों बारता । तुम पति गया वैश्या | घोररे भाई । मुरछाइ धरणी बढती । यातो भारत करे बहू पेर रे भाई । धिक्क 2 २ व्यश्नी जीवने ॥ टेर ॥१॥रे भाइ शीतल पवन जले करी । ते क्षीण अन्तर : | ने मायरे भाई। सावध हो रोती कहे । हिवे महारी गति सी थायरे भाइ ॥ धि0 क्क ॥२॥रे भाइ वैश्या व्यश्नी मुझपति । पड्यो कामलता ने फन्द रे भाइ। लाज रखी नहीं कुल तणी । थया मोहोदय से अन्ध रे भाइ ॥ धि ॥३॥रे भाइ उर कूटे सिर प्राथड़े वहे नेत्रे नीर परनाल रे भाइ । दासी दोडी गइ भूप | पे । कह्या बाइ का सहू हाल रे भाइ ॥ धि०॥ ४ ॥ रे भाइ नृप शोकातुर थयो । अति । वली लज्जाणोघणोमन रे भार।मुझ जमात नायिका घरे । कुलनिन्द से अब । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि ४४ जग जनरे भाइ ॥ धि ० ५ ।। रे भाइ शीघ्र आया कुमरी कने । लीनी खोला में बैठायरे भाइ ॥ कर से आश्रू पूंछने । बुचकारी कहे इमवाय रे बाइ ॥ धि ॥ ६ ॥ रे बाइ फीकर किंचित करे मति । तुंळे मुझ जीवन प्राणरे वाह || पर्यत्न करी तुझ पति भणी । देस्यूं थोडा दिने ठाम आनरे बाइ ॥ धि ॥ ७ ॥ प्रय रे भाइ सचीवने कहे भूपति । शीघ्र जावो वैश्या श्रावसरे भाइ ॥ तेडो धिक्कारी जमातने । लागे हम कुल ने कालासरे भाइ ॥ धि ॥ ८ ॥ रे भाइ पायक लेइ प्रधाजनी | गया कामताने घेर रे भाइ || बाहिर रही मोटा साद से । कहे जयजीने यों टेर रे भाइ ॥ धि ॥ ६ ॥ अहो भाइ झट निकलो घर बारणे । छोडी नीच नारी नो संग रे भाइ ॥ लज्जा घरो जरा कुल तणी । यों कैसे भइ मति भंगरे भाइ ॥ धि ॥ १० ॥ रे भाइ सुण के कुमर प्रति लाजीया । पड्या फिकर समुद्र के मांरे भाइ ॥ धिक धिक मुझ व्यश्री भणी । राय चाकर साथ बोलायरे भाइ ॥ धि ॥ ११ ॥ रे भाइ इण जाणे से मरणो भलो | कैसे जाके देखावुं मुख रे Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ४५ IN भाइ ॥ सब तर्जनी से बतावसी । हुयो कुमर मने अति दुःख रे भाइ ॥ धि ॥ । १२ ॥ रे भाइ मही भाग दे अबी मुझ भणी। तो पेदूं में प्यारे उद्रे भाइ ॥ रा जाजी किस्यो जाणसी । निकल्यो महारो जमाइ क्षुद्र रे भाइ ॥ धि ॥ १३ ॥ रे । भाइ राज घरे जाणो नहीं । वली इहां पण रहणो नथायरे भाइ॥लज्जा जीवित । दोइ रहे । ऐसो करूं में हिवे उपाव रे भाइ ॥ धि ॥ १४ ॥ मणी तणे प्रभाव से । K गया गगने उडी देसंत्र रे भाइ ॥ स्वदेश की चोरी थकी । भीक्षा भली कहे | अन्यत्र रे भाइ ॥ धि ॥ १५॥ रे भाइ आश्चर्या गणिका चुप रही। चुप चाप गया । । प्रधानरे भाइ । बात वीती कही जयतणी । ते सुण विसम्या राजान रे भाइ | ॥ धि ॥ १६ ॥ रे भाइ कुलवन्त कुमर लाजी गयो । हे पुण्वयन्त विद्या भरपूर | रे भाइ ॥ चिन्तामत कर मुझ लाडली । तुझ ने कन्त मिलसी जरूरे भाइ ॥M | धि ॥१७॥रेभाइ गुणवन्त सज्जन वीसरे नहीं। दुर्गुणी से नहीं पलै प्रेमरे भाइ । इत्यादि योग्य बचन थी । कुमरी पाइ चित खेमरे भाइ ॥ धि ॥ १८ ॥रे भाइ राजा Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .४६ ज०वि० जी स्थाने गया । कुमरी पडी सोच माय रे भाइ । वियोग साले पति तणी । पण गुणी जाणी हर्षायरे भाइ ॥ धि० ॥ १६ ॥ वह अन्तराय कभी टूटसी मुझ । मि. लसी आइ भरताररे भाइ । शील पसाये सुख पामस्युं । रही दृढ पतिव्रत धाररे IN] भाइ ॥धे ॥२०॥ रे वाइ भूमी सयन पाहार एक टंक । तज सिणगार धर्म ध्यान ध्यायरे भाइ । अमोल कही ढाल बारमी । कांइ विश्न तज्यां सूख पायरे भाइ Tilधि ॥ २१ ॥ दोहा ॥ मणी प्रभाव कुमरजी । रूप परावती कीध । वृद्धवयी जोगी बण्या। सामग्री सब सिध ॥ १॥ जटा झुट दीर्घ काबरी । अंबर भगवां । N/ अंग। भस्मी रमी भाले तिलक । वैराग्य नेत्र रक्त रंग ॥ २ ॥ गले दाम कर स्मरAणा । तुम्बि झोली कांख । चिमटा दंड करमे धरा । ईस नाम मुख भाख ॥ ३॥ लंगोट तंग अनंग जय । पगमें ऊंच खडाव । पुष्ट ऊंच तनभाल दिव्य । करे सो रण में पडाव ॥४॥ स्वेच्छा भूखग फिरे । पेखे पुर वर ठाम ॥ आनन्दे काल निर्गमे । अब कहू पुण्य परिणाम ॥ ५ ॥ * ॥ ढाल १३ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि० ४७ वी ॥ निन्दक तूं मति मरजेरे ॥ यह ॥ भविका पुण्य बल देखोजी । गत वस्तु प्रापति होय ॥टेर ॥ एकदा एक वनके विषयजी । शकुन हुवा श्रेय कार । अर्थ | समझी आश्चर्य लहो । इण महा अटवी ने मझार ॥ भ ॥१॥ गत वस्तु कैसे मिले। ये शकुन न निष्फल जाय ॥ स्थान मनोरम देखके बैठा तहां ध्यान लगाय ॥ भ ॥ ॥२॥ अचिन्त्य तिहां आयो तदा जी कपटी अवधूत वेष । जय जी जोगी। जो हर्षायो । नमन कियो विशेष ॥ भ ॥३॥ सेवा साचवे प्रात हितेजी । कुमर । | ओलखीयो तास ॥ बात प्रगट करी नहीं । नहीं पूगे जिहां लण आस ॥ भ ॥ ४॥ ढिग रह्यो शिष्य होय के जी। भक्ति करे अपार । जयजी भीतस पोषताजी। | भोजनादि सत्कार ॥ भ ॥ ५ ॥ अण निपजाया नित्य दिये जी। इच्छित भोजन पान । करामाति जोगी जाणनेजी। धूर्त हो असमान ॥ भ ॥ ६॥ एकदा का- " र्य साधवाजी । करे गुरू ने प्रसन्न । कुमर मन तस अोलखी। निज श्लाघा करे ।। कथन ॥ भ ॥ ७ ॥ मंत्र जंत्र मणी औषधी जय । मुझ से छिपी न लगार।। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ४८ । जो चहीये सो ही कहे । धूर्त हर्षी करे उचार ॥ भ ॥ ८ ॥ श्वामीजी मुझ पास एक मूल । गुण विधि तस प्रकासीये । ते किम होवे मुझ अनुकूल ॥ भ ॥ ६ ॥ कहाडी दी जोगी करेजी । कुमर देख हर्षाय । प्रत्यक्ष शकुन फलित थया । गइ औषधी मिली पुनः आय ॥ भ ॥ १० ॥ जय पूछे सत्य की जीय । यह कहां से आइ तुझ पास धूर्त प्रति नरमी करी । कर जोडी करे - रदास ॥ ॥ ११ ॥ श्वामी इहां से सत योजने जी । रहे एक जोगी राज । में सेवा तस साचवी । ते प्रसन्न हुवा घाज ॥ भ ॥ १२ ॥ ति ए औषध मुझ दीवी जी । गुण क्या कह्यो एम । जा तूं शीघ्र उत्तर दिशा । महा जोगी मिलेगा प्रभु प्रेम ॥ भ ॥ १३ ॥ ते कहेगा तुझने सहू । इस बूंटी में गुण अपार । में आयो आप चरण में | फरमावो गुण जे सार ॥ भ ॥ १४ ॥ एक प्रभाव तो इण तणोजी अनुभव हुवो है मोय । जब से इ मुझकने । तव से मुझ मन खिन्न होय ॥ भ ॥ १५ ॥ अरूण नयणे जय जी वहै रे दुष्ट तूं दिखता चौर । तव ही दुख यह सुझ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ४६ दिये । ये एक गुण इसमें कठोर ॥ भ० ॥ १६ ॥ दगाबाज तस्कर भणी यह । संतापे दिन रात । तूं निश्चय महाधूर्त है । कर आयो किसकी घात ॥ भ० ॥ १७॥ यहां फल इस पाप का में, तुझे बतावु याज । फिर आगे तूं नहीं करे | ऐसो महा कोइ अकाज ॥ भ० ॥ १८ ॥ इम साची सुण विसम्यो अति । भये थरथरी छूटी अंग । औषधी छोड भागी गयो । कुमर न कियो तस संग ॥ भ० ॥ १६ ॥ पापी पापोदय करीजी पीडा सहजे पाय । धर्म के धर्म प्रसाद से जी । सहजे जाय बलाय ॥ भ० ॥२०॥ मणी औषधी गइ पुनः मिलीजी । जयजी अति हर्षाय । पुण्य फल दर्शावणी । ढाल तेरे अमोलक गाय ॥ भ० ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥| प्रदेश के प्रयास को । दुःख नहीं वेदे लगार । सार हुवो फिरबा तणो । वस्तु पाया श्रेयकार ॥ १ ॥ जो कार्य पापिष्ट को | दुःख का कर्त्ता होय । सोही कार्य पुण्यवन्त के । सुख कारक लो जोय ॥ २ ॥ निकले थे अपमान से । लज्जित हो दुःखपाय । कारण से कार्य पक्यो । महा औषधी मिली श्राय ॥ ३ ॥ हर्षित हो आगे चले | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ५० विद्या के प्रभाव । देखन होंस्य पूरी करी । मिटा मन उत्साव ॥ ४ ॥ स्थिर रहने इच्छा हुइ । सोही बने उपाय । इच्छित फले पुण्यात्म के । सुजो चित्त लगाय ॥ ५ ॥ ढाल १४ वी ॥ इण सरवरीयारी पाल ऊभी दो नागरी ॥ यह० ॥ ति अवसर के माय । भूमंड विभूक्षिती । हो सुजाण । भूमंड विभूक्षिती । स्वर्गपुरी अनुहार । नगरी छे भोगवति ॥ हो सुजाण ॥ नगरी छे भोगवति ॥ ऋद्धि से करी पूर्ण चूर्ण दारिद्रता ॥ हो सु० ॥ चूर्ण ॥ भवन वाग निवाण सोभे लोभे इन्द्रतां ॥ हो सु० ॥ सो ॥ १ ॥ सुभोग नामे राजिन्द्र । सकेन्द्र ने सारीखो ॥ हो सु० ॥ सक्रे ॥ न्याय नीति में निपुण । जाणे नर पारखो || होसु• ॥ जाऐ || भोगवति पटना । आकार सुरी समो || होसु० ॥ श्राका || शील रूप गुणखान । सज्जन नृप मन रमो ॥ होसु० ॥ सज्ज ॥ २ ॥ तास उदर उत्पन्न | रत्न सम बालका ॥ होसु० ॥ रत्न || भोगिनी तस नाम सूरूप सुख मालिका ॥ होसु० ॥ सुरू ॥ गुण कला विद्या भंडार | विनय शील जिममणी ॥ होसु० ॥ उपवये हुइ दिव्य रूप । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ५१ हुलसित अंग कामणी । होसु• ॥ हुल ॥ ३ ॥ सज सोलेह सिणगार । भार वस्त्र भूषणो ॥ होसु० ॥ भार ॥ मात पठाइ तात पास । वर दो सुलक्षणो ॥ होसु० ॥ वर ॥ कन्या रूप वयं जोय । राय चिन्तातुर भया ॥ होसु० ॥ राय ॥ किसको परणानुं धीए । सर्व गुण गणमया ॥ हो० ॥ सर्व ॥ ४ ॥ जो गुणवन्त मिले जोग । भोग सुख पावइ ॥ होसु• ॥ भोग || अप लक्षणी संयोग | जन्म दुःखे जावइ ॥ होसु• ॥ जन्म ॥ पुत्री को देइ सीख । सचीव बोलाइया ॥ होसु०॥ सची ॥ धूया वर विचार | एकन्त वैठाविया ॥ होसु० ॥ एक ॥ ५ ॥ तेतले अचिन्त्य व्याल । विकराल तहां आवीया ॥ होसु० ॥ विक ॥ कुमरी जाती थी मेहल मांय । रस्ते में सोचाविया ॥ होसु॰ ॥ रस्ते ॥ मुरलाइ पडी भूंपूठ । टूटे ज्यों तरुलता ॥ होसु० ॥ टूटे ॥ दोड दासी भूप पास । दाखी कुमरी कथा || होसु० ॥ दाखी ॥ ॥ सुप भूप आश्चर्य पाय । खेद अति लावीयो ॥ होसु० ॥ खेद ॥ तत्क्षिण या तहां जोय । हीयो थररावीयो ॥ होसु० ॥ हीयो ॥ सब याया तहीं दोड । छोड काम Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ५२ काज ने || हो० ॥ छोड़ || बोलाया भोपा वैद्य । लेइ सब साज ने || होसु० ॥ लेइ ॥ ७ ॥ मंत्र मंत्र जडी जाण । वैद्यादि घणा श्रावीया ॥ होसु० ॥ वैद्य ॥ पणी सब करामात । उमंगे अजमावीया ॥ होसु० ॥ उमं ॥ किया बहुत उपचार | लगार लगे नहीं || हो० ॥ लगा || थाये उनकी उमंग । मेहनत निष्फल गइ ॥ होसु० ॥ मेह ॥ ८ ॥ श्रार्त प्रति करे राय । निरासा धारी मने || होसु० ॥ निरा ॥ चिन्त से क्या होय । सचीव नरमी भने ॥ होसु० ॥ सची ॥ कोह यत्न करो शीघ्र राय । ज्यों रत्न यह रहावाइ ॥ होसु० ॥ ज्यो || बहु रत्न वसुंधरामांय । उपकारी को पावई ॥ होसु ॥ उप ॥ ६ ॥ उद्घोषणापुर माय । राय करावई || होसु ॥ राय ॥ करे मुझ तनुना खुशाला तास परणावर ॥ होसु ॥ तास | पडह बाजायो पुर मांय । श्राय उमंगी घणा ॥ होसु ॥ ते तले जयजी तहां चाय । शब्द सुण पडा तथा ॥ होसु ॥ शब्द ॥ १० ॥ देखाने चमत्कार | रूप बावनो कियो | होसु ॥ रूप ॥ लघु देही दीपे पुष्ट । वरणे सांवलियो । होसु ॥ वरणे ॥ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० शुभ वस्त्र सजा तन । जेष्टिका कर विषे ।। होसु ॥ जैष्टि ।। चंदन तिलक लिलाट । ५३ - माल गल में दिशे ॥ होसु ॥ माल ॥ ११ ॥ एक हाथे करताल । बजावे चूंपसे होसु ॥ बजा ॥ दुजे हाथे फिरे माल । चले भक्त रूप से ॥ होसु चले ॥आये मध्य । IN बजार । देखण लोक बहू जम्या । होसु ॥ देख ॥ हंसे हंसावे सब तांय । वावन । जी मन रम्या ॥ होसु ॥ वाव ॥ १२ ॥ पडह बातो सुण । कारण सब पूछिया ॥होस । कार ॥ विस्तारी हुइ बात । भक्त ने जन किया होसु ॥ भक्त ॥ वावनो कहे करूं आराम । क्षिणेक के मायने । होसु ॥ क्षीण ॥ देखो करामात मुझ । सर्व । तहां आयने ॥ होसु ॥ सर्व ॥ १३ ॥ सबी कहे भक्तजी मन । भक्कणी चाविया ॥ al होसु ॥ भक्त ॥ राय कन्य जोग जोडो । येही जग पाविया ॥ होसु ॥ येही ॥ वरीयां विन कैसे रेय । सुरूपा इन सारखा ॥ होसु ॥ सुरू ॥ यों हंसे सब लोक । क्या जाने पारखा ॥ होसु ॥ क्या ॥ १४ ॥ कितनेक दाने शाणे प्राय । शिक्षा । देवे इसी ॥ होसु ॥ शिक्षा ॥ गये करामाति बहुत हार । तो थारी चली किसी Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जं०वि ५४ ॥ होसु ॥ थारी ॥ मत कर फोकट फंद । अपमान तूं पावसी ॥ होसु ॥ अप ॥ राय न देवे तुझ पुत्री । पछे पस्तावसी ॥ होसु ॥ पछे ॥ १५ ॥ तब कहे हंसीने कोय । अन्त राय न कीजिये ॥ होसु ॥ अन्त ॥ जरूर परएसी एह । इच्छा पूर्ण दीजिये || होसु ॥ इच्छा ॥ यों हंसता आया राय पास । अरदास वावनो करे ॥ हो ॥ ॥ में करूं बी विष दूर । बचने दृढ रीजिये ॥ होसु ॥ वच ॥ १६ ॥ दी आज्ञा भूपाल | या कुमरी कने || होमु ॥ श्राया ॥ बूंटी ली कर मांये । ढोंग जमा बहूत ॥ हो || ढोंग || मोठे स्थान चादर ढोंग से पावइ ॥ होसु ॥ ढोंग | धूप दीप अक्षत | आदि मंगावइ || होसु ॥ श्रादि ॥ १७ ॥ उदक मिश्रि औषधी कर | पूछे भूपसे तिहां ॥ होसु ॥ पूछे || उद्घोषण पुर मांय । किसा आपने किया ॥ हो । किसा ॥ भूप कहे करो आराम | जरूर परणावस्युं ||होसु ॥ जरूर ॥ वावन कहे दृढ रखो बचन । वदे जिन भावस्युं ॥ होसु ॥ वरे ॥ १८ ॥ बड २ ता मुख मंत्र | पाणी सो पावियो || होसु ॥ पाणी ॥ ताही क्षीण के मांय । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ५५ विष सहू विरलावियो ॥ होसु ॥ विष ॥ निद्रागत की पेर कुमरी सावध हुइ ॥ होसु ॥ कुम ॥ हर्यो सब परिवार | चिन्ता चारत गइ || होसु ॥ चिन्ता ॥ १६ ॥ नरवर पुरजन सबी । श्रति पाविया ॥ होसु ॥ श्रा ॥ वावनजी की करामात । सबी सरसावीया ॥ होसु ॥ सबी ॥ करामाती वावना भक्त । विरला जग तुम मम ॥ होसु ॥ वि० ॥ चमत्कार प्रत्यक्ष | देख सब मन रमा ॥ होसु ॥ देख ॥ |२०|| महीमा फेली पुर माय । हंसक शरमावीया ॥ होसु ॥ हंस ॥ पुण्य पसाये जयजी का हुवा चावीया ॥ होसु ॥ हुवा || यह हुइ तेरवी ढाल । रसाल कौतक ती ॥ होसु ॥ रसा ॥ कहे अमोल अणगार | आगे मीठी घणी ॥ होसु ॥ आगे ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ नव जीवन कन्या लियो । हयों सब परिवार ॥ वावन भक्त तणो सबी । मान्यों अति उपकार ॥ १ ॥ आर्ति टली आँखो खुली | हुवो राय ने विचार ॥ अहो प्रभु इस स्थान के । वचन पडे कैसे पार ॥ २ ॥ चन्द्र कला सम बाइ मुझ । यह राहू प्रत्यक्ष ॥ गुण अन्तर मही अन्त लिख । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० कैसे जोडे ए दक्ष ॥ ३ ॥ अजब गति करतार की । विरूप अर्को गुण ॥ गुणी ५६ यह रत्न अमोल है । चिन्ता में पडयो निपुण ॥ ४ ॥ बोल्या भी पलटे नहीं। जे क्षत्री मुख वेण ॥ खाड श्राड विच में पड्यो । कीजो किस्यो अब सेण ॥५॥ N ॥ ढाल १४ वी ॥ तावडो धीमो सो पडजे ॥ यह०॥बडे नर बचन को निभावे । हो ॥ बड़े नर०॥ पुण्यवन्त तो नाना कहता। अलभ्य लाभ पावे ॥ टेर ॥ वचन । भंग से यश भंग होवे । परतीत नहीं राही ॥ विन प्रतीत अपमानी बने। ते मुरदा । तुल्य थाइ ॥ बडा ॥१॥ कन्या का संचित प्रमाणे । पति मिल्यो यह आइ ॥ | यत्न महारा चले किसा यहां । होत बसो थाइ ॥ बढा ॥ २॥ आतुर होइ बोले वावनो । बचन पार पाडो ॥ नहीं तो में जावु निज स्थाने । मन की वाहिर | काडो॥ बडा ॥३॥राजाजी दिग मुढ हो रहीया। हां ना नहीं बोले ॥ चिन्ता सागरे गोता खावे । केइ विचार तोले ॥ बडा ॥४॥ तब वावन कहे चिन्ता । मत करो। में भी योंही जाणू ॥ मुझने राज कन्या नहीं शोभे । कूरूप तन न्हा Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ५७ नु ॥ बडा ॥ ५ ॥ में दुर्भागी ही अंगी ने । रंभा किम दीजे ॥ हंसली श्रीवा वायस बन्धन | अन्याय किम कीजे ॥ बडा० ॥ ६ ॥ जो कदापि आप जबरी से । पुत्री मुझ देश ॥ श्रङ्गीकार सो नहीं कियो तो । क्या शोभा लेशो ॥ बडा ॥७॥ सामन्त परजा आवरण बोलेगा । ते सह्या न जाशे ।। इस कारण मुझ ना कहो तो । सब जन सुख पासे ॥ बडा ॥ ८ ॥ सुन्दर मुझ से ग्रही न जावे । कारण सब जाणे ॥ चतुर सोड मोडण को जितनी । तित ना पग ताणे ॥ बडा ॥६॥ भाग्य पार जो वस्तु इच्छे । सो मूर्ख जग मांइ ॥ इसलिये में परशुं नाहीं । फिकर तजो राइ ॥ बडा ॥ १० ॥ बचन सुगड यों सुन वावन का । सब वर्य पाया ॥ प्रत्यक्ष चमत्कार यह देखो । निर्विषयी निर्माया ॥ बडा ॥ ११ ॥ * ॥ श्लोक ॥ कचित् गुणः रागी नरा । तत् गुणवन्त क्वचित् ॥ तत्वा गुणवन्त गुणे रक्ता । स्व गुण प्रेक्षा कचित् ॥ १ ॥ * ॥ ढाल ॥ गुणानुरागी होकर धरा धव । नरमी यों बोले || तुम सम गुणवन्ता निर्लोभी । न मिले जग खोले ॥ बडा ॥ १२ ॥ निश्चय 1 Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ५८ | पुत्री तुमकों ही देवूगा । बचन म्हारा पालू ॥ प्राण जावो पण बचन न जावो । lal उत्तम रीति चालू ॥बडा॥१३॥ राम लक्ष्मण वचन पालन । वन में वास कीना॥ हरिश्चन्द्र दारा तनुज बेंच कर । मेहतर घर लीना ॥ बडा ॥ १४ ॥ यों अनेक N/ दृष्टान्त दे भूपत । व्यावन हट करीयो ॥ तब सामान्त कुटम्ब बदल कर । ना । कारो भरीयो । बडा ॥ १५ ॥ सबही वयण सुणी असुन कर । लग्नोत्सव मंडा यो॥ वावनजी को मौकब काजे । द्रव्य अति दीलायो । बडा ॥ १६ ॥ नवरंग । मेहल दीया रेने को । हय गय आदि सारा । उत्तम लम महूर्त देखायो । प्रावो । सजी प्यारा ॥ बडा ॥ १७ ॥द्रव्य तहां सर्व जोगा मिले । बने सज्जन केइ । मिली सहेली मङ्गल गावे । गगन गरजेह ॥ बडा ॥ १८ ॥ वाजित्र बाजे विविधM प्रकारे । वन्दोला फिरता । देख विद्रूप हस्ये बहू कौतकी । केइ अाश्चर्य धरता ॥ बडा ॥ १६ ॥ यों अानन्दे लग्न दिन आया । सजी अति सजाइ । गजारूढ हो । चलीये वावनजी । सुबर्ण वर्षाइ ॥ बडा ॥२०॥ लग्न मंडपे आया भराया। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि० सज्जन पुरजन सारा । ढाल चतुर्दश कही अमोलक । अब देखो चमत्कारा ॥ ५६ || बडा ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ राजकन्या भी सज हुइ । अाइ मंडप मांय । वावन कर स्पर्शे नहीं । सब रहे आश्चर्य पाय ॥ १॥ पाणी ग्रहण करो नृप कहे । तब. वावन कहे राय । में नहीं जोगो सुन्दरी । क्यों जबरीये परणाय ॥२॥ महीपत कहे जोगा लखी । मेने दी तुम ताय । अटल वयण मुझ ना फिरे। जो कभी मेरु 2 कम्पाय ॥३॥ पूछे नृप निज अंगना । कहो देनी के नाय । सा कहे अाप हुकम । विषे । म्हारी खुशी सवाय ॥ ४ ॥ कुमरी को पूछे कहे । यह मुझ मोड समान ।। इनके विन सब जगनरा । आप समा लिया जान ॥ ५॥ ॥ ढाल १५ मी.॥ आज महारा संभव जिनका ॥ यह० ॥ अहो सुज्ञजन अाज अानन्द धन । नगर | में हर्ष वधाइ राज । सत्य से सर्व सुख जन पावे । दिन २ बधे पुण्याइ राज ॥ || अहो ॥ १॥ यों देखी अति जय हर्षाया । परीक्षा पूरी थाइ । महा सत्यवन्तो | क्षितीपति जाण्यो । तैसीही राणी बाइ राज॥ अहो ॥२॥ निज स्वरूप तव प्रगट Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Gof करन को । वावनजी बोल्याइ । अहो भूपादि सुणियो सर्वजन । कहूं मुझ मन जे आइ राज ॥ अहो ॥ ३॥ कुरूप कन्या रत्न ग्रहयो । नीति से युक्तो नाहीं । इस- Lal लिये में विद्याबल से, वनु नलकुंवर साइराज ॥ अहो ॥ ४॥ सत्य प्रभाव तुमारो | प्रकास्यूं । मुझ विद्या दरशाइ । सब मिले कुछ कर सको नहीं । पण मेरे से कैसे | Ial थाइ राज ॥ अहो ॥ ५॥ नर देही वांछित फलदाता । जो कर जाने कमाइ । । मूल रूप अब देखो मेरा । सह भ्रमना विरलाइ होराज ॥ अहो ॥६॥ नगर IN] वाहिर बहू लम्बी चौडी। दो एक खाड खिणाइ । वावनो चन्दन वन्ही प्रजालो। शीघ्र करो यह सजाइ होराज ॥ अहो ॥७॥ ज्वाला स्नान किया मुझ तनका । | रूप बने इन्द्रसाइ । फिर तुम बाइ खुशी ते परगूं । इसमें शंका नाही होराज ॥ . अहो ॥ ८॥ सवी कहे यह मरणो चहावे।अग्नि से कौन उवर्याइ । सब समझायो । । एक न मानी । खाइ में अनल दीपाइ होराज ॥ अहो ॥ ६ ॥ न्हाइ धोइ गन्ध । लगाइ । वस्त्र भूषण सजाइ । कुञ्जरा रूढ हो वाजित्र नादे । सब जन से परवर्या Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० । इ होराज ॥ अहो ॥ १०॥ अपूर्व आश्चर्य जन देखन को । प्रागे २ धाइ । क्रोडों । गम जम्यो वन्ही कुंडपे । कौतक कौन न चहाइ होराज ॥ अहो ॥ ११ ॥ ज्वाला गगन तले अवलम्बि । ढिग ऊभो न रहाइ । केइ अचंभे केइ खेदाश्चर्य । देखे दृष्टी लगाइ होराज ॥ अहो ॥ १२ ॥ स्मरी मंत्र सर्व देखता । जाइ पड्यो कुंड मांइ । हाहाकार मच्यो अति तब तहां । किम जीवत यह भाइ होराज ॥ अहो ॥ १३ ॥ | क्षिणन्तर में देव जैसा बन । बाहिर भाऊ भाई । सानन्दाश्चर्य सहू पाइ। इसे । अग्नि से सगाइ होराज ॥ अहो ॥ १४ ॥ औषधी महिमाए । विश्वानल की। ता| पन किंचित्त लगाइ । सजा भूषण मूल रूपे तव । अधिक रह्या सो भाई होराज ॥ अहो ॥ १५ ॥ नृपादि तस अति सत्कारी । घूछकर हटी लाइ । बावनजी व नीया किण करण । साची देवो फरमाइ होराज ॥ अहो ॥ १६ ॥ मूल मंडाण से । योगी हकीगत यथा तथ्य दीनी सुनाइ । मंत्र औषधी मणी प्रभावे । चिन्तित | काज सिधाइ होराज ॥ अहो ॥ १७ ॥ सुणी वाणी अति विस्मय मानी । जय २ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय बधाइ । धन्य २ नर महापुण्यात्मा। धन्य बाइ की पुण्याइ होराज ॥ अहो ॥ १८ ॥ अति उत्सवे पुनः शहर में लाया । दिया तेही मेहले उतराइ । सर्व जन ।। गया निज २ स्थाने । वायुजों कीर्ती फैलाइ होराज ॥ अहो ॥ १६ ॥ तीनों रत्न बहू गोपी रखे जय । रखे फिर जाय खोवाइ । रहे अानन्दे सज्जन सम्बन्धे । चिन्ता दुःख विरलाइ होराज ॥ अहो ॥ २० ॥ ढाल दश पर पांच शिरोमणी । | ऋषि अमोलक गाइ । श्रोता भरीये सुकृत्य खजाने । पुण्याइ काम अाइ होराज ॥ अहो ॥ २१ ॥ 8 ॥ दोहा ॥ पुनः अति प्राडंबर कियो । जयती और पुरराय । भोगनी पुत्री जय भगी। शुभ लग्ने परणाय ॥ १॥ शतगज तुरंग सहश्रदश । दायजा में दिया राय । गाम जागीर दीया घणा । हाथ खरच के तांय ॥२॥ महापुण्यात्म दम्पति । जोडी जोगी मिली प्राय । खामी नहीं कोई सुखकी । संचित सम फल पाय ॥ ३ ॥ नित्य नवला सुख भोगवे । दोगुंदक सुरसार । मणी NT पसाये सामुग्री । होवे सब तैयार ॥ ४॥ भोगवे तो अन्यने । देइ इच्छित दान। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० होनहार आगे सुनो। श्रोता लगाइ ध्यान ॥ ५ ॥ॐ ॥ ढाल १६ मी ॥ महारे ६३ अाज अानन्दनो दिन छेजी ॥ यह० ॥ पुण्यवन्त कुं बोल सहे नहींरे । चातुर ने | चिन्ता होवे सहीरे ॥ पुण्य ॥ १॥ एकदिन सजाइ उत्तम सजीरे । निकल्या फिरवा ।। जयजी पुरमा गजीरे ॥ पुण्य ॥ २॥ हय गय पायक बाजा बहूरे । शोभे राज IN साहबी तस सहूरे ॥ पुण्य ॥ ३॥ मध्य बजारे जब सो अावी यारे । पुरजन देखण | अति लोभावी यारे ॥ पु ॥ ४ ॥ ठठ जम्यो बजार के मायनेरे । जोवे गोरडीयों गोखे आया नेरे ॥ पु ॥ ५ ॥ तामें नारी एक बोली जो रासभीरे । ऊंचे श्वर करी MM । ज्यों सुने सबीरे ॥ पु॥ ६॥ क्या देखो सबी ऊपर चडीरे । अपणा राय जमाइ | ये खबर पडीरे ॥ ॥ ७ ॥ घर जमाइ सदाइ रहे इहारे। किस्यो देखणो यह जावे Lal किहारे ॥ पु ॥ ८ ॥ शब्द स्पोए जय कानमारे । लज्जा पाया चिन्ते नीति a मानमारे ॥ पु॥६॥ॐ॥ श्लोक ॥ उत्तमा स्वगुणे ख्याता मध्यमा स्तुपितुर्गुणे। अधमा मातुले ख्याता स्वसुरेर धमाधमा ॥ १ ॥॥ ढाल ॥ यों बिचार मुख Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि० ६४ नीचो कियोरे । क्रिडा उत्सहा सब भागी गयोरे ॥ पु ॥ १० ॥ धिक मुझ | बुद्धि ने अरु रिद्धि नेरे । में तो गमाइ लाज काज सिद्धिनेरे ॥ पु ॥ ११ ॥ जैसा । हर्ष से गया था खेलमारे । तैसा शोग से आया पाछा मेहलमारे ॥ पु ॥ १२ ॥ ४ एकान्त बैठा चिन्ता सागरे पड्यारे । अपमान दुःख अति तस मन नड्यारे ॥ पु ॥ १३ ॥ इहां रहणो मुझने जुगतो नहींरे । जावू कामपुर विजय पासे सहीरे ॥ | पु ॥ १४ ॥ पुनः चिन्ते तहां कैसे जाइयेरे । ते है राजा किम दास होय राहीयेरे । ॥ पु ॥ १५ ॥ मंत्री साधी में भी वणुं राजीयोरे। स्वेच्छाए रहूं विन लाजीयोरे ॥ N| | पु ॥ १६ ॥ यों विचारी मंत्र संभारीयोरे । पण हृदय तास विसारीयोरे ॥ पु॥ १७ ॥ भूल्या प्रमादे याद आवे नहींरे । पश्चाताप अति पावे तबहीरे ॥ पु ॥ १८ ॥ हाहा अनर्थ यह में मोटो कियोरे । महाराज दाता मंत्र भूली गयोरे ॥ पु॥ || १६ ॥ विजय विना यह तंत्र मिले. नहींरे । जाणो भाइ पास अबतो सहीरे ॥ पु ॥ २०॥ मुझ प्रमाद सुझने नीचो कोरे । पड्यो व्यश्न वश तेहथी स्ववश होरे | Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जानि ० पु ॥ २१ ॥ हिवे पस्ताइ लाभ क्या लीजीयेरे । महाराजा बनू सो उपाव कीजीयेरे ॥ पु ॥ २२ ॥ यों निश्चिन्त हुया सतरमी ढालमारे । अमोल अाशा फले पुण्य अल्प कालमारे ॥ पु ॥ २३ ॥ ॥ दोहा ॥ रूप परावर्ती प्रथम में । देखू ।। भाइ प्रेम ॥ मंत्र लेइ साधन करी । पावू इच्छित खेम ॥१॥ मणी प्रभावे तत्क्षीणे । निमंती रूप बनाय । शुभ्र वस्त्र सजीया तने । भाले तिलक लगाय ॥२॥चक्री बन्धि पागडी । गले रुद्राक्षकी माल । कर बहुरंगी टीपणो । जानोइ गलडाल ॥ ३॥ आकाश में उड चालीया । उतर्या कामपुर प्राय । मिलिया हर्षी विजयको।। आशिरवाद सुनाय ॥ ४ ॥ प्रेम परिक्षा कारणे । करे वचन ऊचार । ते सुणीये श्रोता सह । लघु विनय प्राचार ॥ १॥ * ॥ ढाल १८ मी ॥ नणदलरा नगदल ॥ यह० ॥ में जाणं विद्याबले । तुमलोबंधव दोयहो राजिन्द । तात अपमाने नीकल्या । मार्गफल अति होयहो राजिन्दा । सुणीयो हमारी वारता ॥ ये ॥ १॥ वनमें वृद्ध वट के तले । रह्या सुखे निशी श्रायहो राजिन्द । तीन वस्तुही तुम Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० भणी । यक्ष देव संतुष्ट थाय होराजिन्द ॥ सुणी ॥ २॥ जेष्ट भाइ कपटे गया। तुम पाया यहां राज हो राजिन्द ॥ कहो में कहूं सो सत्य है । राख्या वीत क काज होराजिन्द ॥ सुणी ॥ ३॥ सुणी विजय वीतक कथा । आश्चर्य अधिको । Mलाय होराजिन्द ॥ अहो ज्ञानी ये पूरो गुनी । भाइ गुन चित श्राय होराजिन्द ॥ | सु॥४॥ हृदय भरणो मोह वस्ये । नत्रे नीर वषोय होराजिन्द। पूछे अति नर माय के । मुझ बंधव छ किणठाय होज्ञानी ॥ सु ॥ ५ ॥ कब दिन ऐसो ऊगसी। N/ मिलसी पूज्य मुझ भ्रात होज्ञानी ॥ शीघ्र बतावो मुझ भणी । अति उपकार मोपे थात होज्ञानी ॥ स ॥६॥ कहे नीमति फीकर तजो । जयसेण सदा जय माय होराजिन्द॥विदरामणी के प्रशाद से। तास कमी कछु नाय होराजिन्द॥सु॥७॥ । सो सुखमें लुब्धा रह्यो।दुष्कर मिलण तुम ताय होराजिन्द॥क्या करोगा तिणसे मिली तुभने कमी छे काय होराजिन्द॥सु॥८॥यों सुण दिलगीर हुवा अति।कहे तस विन फीको सुख होज्ञानी ॥ सफल दिन ते जाणस्यूं। देखस्यूं बंधव मुख होज्ञानी॥सु॥६॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि०॥ निमन्ति भणे विद्या बले । देवता को ले सहाय हो राजिन्द ॥ कहो तो बुलावं ! ६७ । इण जगा। तुम वन्धव क्षीण माय हो राजिन्द ॥ सु०॥ १०॥ परन्तु उनके जाये से। तुमने होवेगा दुःख हो राजिन्द ॥ कारण जेष्ट ते तुमथकी। इच्छा । । चारी को जासे सुख हो राजिन्द ॥ सु० ॥ ११ ॥ तुम हित भणी पहिला कहूं । जो अखणुं सुख चहाय हो राजिन्द ॥ तो दोनों रहो जुजुवा । जिनसे विघन नहीं प्राय हो राजिन्द ॥ सु०॥ १२ ॥ यह प्रश्न ने छोडके । अन्य पूछो सुख उपाय IN हो राजिन्द ।यों सुणकर विजय जी देव किम यों बोलो विबुधराय हो ज्ञानी ॥ सु०॥ १३ ॥ मतलबी प्रीति विषे । इन बचने पड है विरोध हो ज्ञानी ॥ सत्य प्रीति जिनके मने । तास न कीजिये बोध हो ज्ञानी ॥ सु० ॥ १४ ॥ यह संपति | सब भाइ को । अर्पण करण ने तैयार हो ज्ञानी ॥ पण वांछे नहीं मुझ बन्धवो । निर्लोभी गुण अागार हो ज्ञानी ॥ सु०॥ १५ ॥ जैसे तात लघु बाल को संखडी में भरमाइ जाय हो ज्ञानी ॥ त्यों इन राज में भोलवी । गया मुझ छिटकाय हो Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ज्ञानी सु० ॥ १६ ॥ यह राज नहीं महेरो। में नहीं मालक यास हो ज्ञानी ॥ मिलिया नहीं भाई मुझ भणी। जो वाया घणा तास हो ज्ञानी ॥ सु०॥ १७ ॥ निरासा हुइ मुझ अति । तव परवश करने काम हो ज्ञानी ॥ वैठो में राजगादीये । अभिग्रहधारी तामहो ज्ञानी ॥ सु०॥ १८ ॥ जहांलग भाइजी नहीं मिले। छत्र धरु नहीं सीस हो ज्ञानी । चामर बीजावो नहीं। राज चिन्ह तजते दीस हो ज्ञानी * ॥ सु०॥ १६ ॥ उमंग घणी मन मिलण की। पण नहीं सुण्या समाचार हो ज्ञानी।। जो तुम जाणो तो शीघ्र कहो। मानुगा अति उपकार हो ज्ञानी ॥ १० ॥ २० ॥ यों सुण जयजी खुशी हुवा । अष्टादशमी यह ढाल हो ज्ञानी ॥ अमोल ऋषि | * कहे आगे सुणो। दोनों प्रगट मिले उजमाल हो ज्ञानी ॥ सु० ॥ २१ ॥ दोहा ॥ | निमन्तिक कहे विजय को । प्राकर्षण विद्या बल ॥ जयजी वन्धव तुमारडा।अावे । IN क्षीण में चल ॥ सु०॥१॥ भूप कहे शीघ्र ते करो। देवंगा वांछित इनाम ॥ इमसुण तांई निमन्तियों । अदृश्य होगयो ताम ॥ २ ॥ नेमन्ति रुप छोडी करी। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ६६ | मूलगे रूपे थाय ॥ वस्त्र भूषण दीपता । साक्षात इन्द्रमाय ॥३॥ मगन से उत्तर के भावीया । विजय सभा के मझार । अचंभे सहूजन अति । देख के यह चमत्कार ॥४॥ विजय पैलानी भ्रात को। आनन्द अंग न माय ॥ उमंगी या पड्या चरण में। श्रांश्रुये ते धोवाय ॥ ५॥ 8 ॥ ढाल ॥ १६ वी ॥ पोष दशमी दिन आनन्दकारी यह॥ सज्जन सुपात्र मिल सुख होवे भारी॥ते जाने ज्ञानी के तस अात्मारी॥टेर। उढ कोटी रोम गया विक्सारी । नेत्रसे वर्षे हर्ष का वारी । धन्य दिन घडी अाज हमारी। कुशले भेट्य जेष्ट भ्रातारी॥ सज्जन ॥१॥ दोनों उत्तमास ने बैठा बरोबर । अनिमेष रहे आपस में निहारी । जय कुमर निज वीती हकीकत । यथा उचित भाइ आगे उचारी ॥ स०॥ २॥ विजय नरमी कहे राज संभालो । में तो सेवा में रहूंगा तुमारी ॥ जो जोग सो तस स्थान ही सोहे । ढील विचार न कीजे ल. गारी ॥ स०॥ ३ ॥ जय कहे तुझ उपार्जित मुझ । योग्य नहीं लेवो नीति वि1) चारी । भूल्यो मन्त्र पुनः याद करावो । येह भक्ति सादो हिवे थारी ॥ स०॥४॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७० ज०वि० अति अग्रह कीयो राज लियो नहीं। तब राज मन्त्र दीयो तस सुनारी ॥ धारी मन्त्र भाइ कुशल पूछता । तत्क्षीण उडगया गगन मझारी ॥ स०॥ ५॥ भोगः । वती नगरी में प्राया। जहां महेल है निज इक्त्यारी ॥ एकान्त रही ते मन्त्र ने 1 साद्यो । जैसी विधी यक्ष पास से धारी ॥ स० ॥ ६॥ भोगवति पुरपति की सभा में में । प्राया निमित ज्ञान का धारी ॥ कहे नृपति से सुणो होवो सावध । बात चेतावू एक चमत्कारी ॥ स०७॥ इसी वक्त तुझ पाटवी कुंजर । उन्मत होवे जो । मद छक छारी ॥ तो तुम बात मानो मुझ साची । आज सेही दिन सात मझारी । IN ॥ स०॥ ८ ॥ थारो अायुबल पूर्ण होवेगा । इसमें संशय नहीं लगारी ॥ होण हार टले नहीं टाल्यो । पुक्त देख्यो में ज्ञान लगारी ॥ स०॥ ६॥ हितेच्छु हो । शीघ्र श्रावो यहां । ले निजात्म काज सुधारी ॥ दान धर्म सुकृत्य सु करणी। IN करना सो करले वक्त है यारी ॥ स०॥ १० ॥ इतने में तो सुण्यो सहाय करो शीघ्र । गज मद छक करे जुलम अपारी ॥ सुणपर तीत्या वयण ज्ञानी का। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ লনি | जाण्या तास परम उपकारी ॥ स०॥ ११ ॥ निश्चय में अब दिन सात में । पर । वश्ये छोड जास्यूं ऋद्धि सारी ॥ जो कुछ करनो होवे सो करलूं । जो पर भव | संग आवे म्हारी ॥ स० ॥ १२ ॥ निमन्त ज्ञानी को संतुष्ट कीना । तेतो गया स्व-। के स्थान इछारी ॥रायजी ज्ञान दया धर्म उन्नति । कीनी लीनी खरची टकारी ॥ स०॥ १३ ॥ जयजी को बौलाके पयंपे । हिवे मुझ ऋद्धि सहू तुमारी॥ द्रव्य संभालो प्रजा पालो । आज्ञा मुझ देवो इन वारी ॥ स० ॥ १४ ॥ अचंभी नरमी! जयजी उचारे । अवचिन्त यह क्या आप विचारी ॥ रायजी वात प्रकाशी निमन्तनी । तब तिण राज ऋद्धि स्वीकारी ॥ स०॥ १५ ॥ पुरपति तब ऋद्धि त्या| गी । जिनेन्द्र परुपित दीक्षा धारी ॥ एकान्त स्थान प्रासण द्रढ स्थापी। हुवा ।। ध्यानस्त मेरुगिरी सारी ॥ स० ॥ १६ ॥ पदस्थ से पिण्डस्थ में पेठा । रुपस्थ ध्याता रुपाती तारी ॥ यों धर्म ध्याने रमे वर्या शुकल । क्षपक श्रेणी चडे शीघ्रतारी | ॥ स० ॥ १७ ॥ वेद कषाय कीया क्षीणमें क्षय । सयोगी केवल ज्ञानी भयारी ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि अयोगी हो पाया मुक्तिपद। अजरामर हुवा अवीकारी ॥ स० ॥ १८ ॥ सीजो। संथारो जाणी सज्जन जन । जगत् व्यवहार योग्य साचव्यारी ॥ धर्मोदय कियो बहुतोइ । कीर्ती जस जगमें विस्तारी॥ स ॥ १६ ॥ अनित्य प्रायु जाणीयों भव्यजन । अात्म कार्य लेवे सुधारी॥ सफल अवतार तास जगमांइ । जैसे भोग्यवती राजारी।स०॥२०॥ ढाल उन्नीसवी धर्म पुण्य फल । दाखण ऋषि अमोल ऊचारी॥ धर्म पसाय तिरीया भूधव । जयजी पुण्य को रह्या दीपारी ॥स० ॥२१॥ ॥ ॥ दोहा ॥ महामंत्र प्रसाद से । जयजी पाये राज ॥ होणहार होवे जिसा।। प्राय मिले सब साज ॥ १॥ एकदा संभारी युगद्रिया । जयपुर नृपती धीय ॥ कामलता गणिका विषे । लाग्यो अन्तस जीय ॥ २॥ राज संभलाई सचीव को। कियो दल वल तैयार ॥ जयपुर आये सुखे चली। उतरे गाम के बार ॥३॥ | सामन्त संग पठावीया । सुसरा को समाचार ॥ सुणी नृपादि हर्षिया । जयजी । पुण्य प्रसार ॥ ४ ॥ सतपुत्रादि परिवारते । मिलाया जाइ जमात ॥ सुसजन Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० संयोग से । कौन नहीं हर्षात ॥ ५ ॥ उत्सवे लाया पुर विषे । मिल दम्पति सुखी ७३ ।। होय ॥ रहे सुख में जयजी इहां । हिवे धर्म कथा सुणो लोय ॥ ६॥ॐ ॥ ढाल | । २० वी ॥ दलाली लालन की ॥ यह ॥ पुण्याइ जयजीकी । सुणो २ हो भवीका | चित लाय ॥ पुण्य ॥ टेर ॥ तिण अवसर पधारीयाजी । जयपुर बाग मझार ॥ | चरण करण गुण सागरुजी। मुनिवर बहु परिवार ॥ पु०॥ १॥ वनपालक सज | होय के जी। राज शभा में प्राय ॥ दी बधाइ मुनि श्रावीयाजी। सुणी सब अति हर्षाय ॥ पु०॥ २॥ सजी साजाइ राजवीजी । ले संग सेना सज्जन ॥ वंद्या श्रा मुनिवर भणीजी । तैसे ही बहु पुरजन ॥ पु०॥३॥ परिषद वैठी भरायके जी। | जग तारण मुनि राय । वागर्यो धर्म उपदेशने जी । अहो सुणो भव्य चित्त लाय ॥ पु० ॥ ४ ॥ अनित्य असार संसार में । मिल्यो मतलबी सब परिवार ॥ क्षीण भंगूर शरीर यह जी । मुरजाहो किमे ही विचार ॥ पु० ॥ ५॥ पुण्य संचातो मिली सायवीये । पुण्य खुटे विरलाय ॥ पुण्य छत्ते सुकरणी करे तो । अजरामर Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ७४ बन जाय ॥ पु० ॥ ६ ॥ बनी वक्त में सबी बने जी। बिगड्या बने न काय ॥ वणी २ में सुधारलो तो। फिर पस्तावो न थाय ॥ पु०॥७॥ इत्यादि गुरु देश नाजी । अमृत बृष्टि सम ॥ मुरजा मिथ्यात्वी जवासीया जी। भव्य चंपक गइ रम M॥ पु०॥ ८॥ सम्यक्त्व व्रत केइ वर्याजी । वैराग्या नृपाल ॥ वंदी मुनि सब निज || 1 गृहेजी । प्राया फिरी तत्काल ॥ पु ॥६॥ चिन्ते पुत्र सो होय के जी। एकही नहीं राज जोग ॥ जयजी सह गुण संपनाजी । देवु राजगुण छोग ॥ पु ॥१०॥ । शीघ्र बुलाइ जय भणीजी । दर्शायो ते विचार ॥ सो कहे सह सला लेइजी। करो काम सुखकार ॥ पु॥ ११॥ राणी पुत्रों मंत्रीने जी । कही उपजी सो बात ।। 1 जची सबी के मन विपेजी । जयजी ने गादी बैठात ॥ पु॥ १२ ॥ जेत्रमल राजे श्वर । कर महोत्सव दिक्षा लेय ॥ अंग एकादश सीखीया । फिर तप दुक्कर मा ड्यो तेय ॥ पु ॥ १३ ॥ संचित कर्म खपाय के जी । पाया केवल ज्ञान ॥ धणा । भवी को तारके जी । पायापद निर्वाण ॥ पु॥ १४ ॥ जन्म प्रमाण ते नरतणोजी।। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ०वि० अवसरे करे उद्धार ॥ जेत्रमल ऋषिराज त्यों ते । पावे सुख श्रेयकार ॥ पु ॥ १५ ७५ ॥ जयपुर पति जयजी भयाजी । संभाली राज लगाम ॥ संतोष्या सब साजना जी । अर्पि युक्त जे ठाम ॥ पु ॥ १६ ॥ धर्म कामार्थ साधताजी । सुख से रहे ॥ जयराय ॥ ढाल बीस अमोलक कहेजी । पुण्यें सुख सवाय ॥ पु ॥ १७ ॥॥ दोहा । जिस दिन से जय कुमरजी । तज्यो कामलता गेह । तिसदिन से पति व्रता सम । अभिग्रह धररही तेह ॥ १॥ स्नान भूषण मही वस्त्र तज्या । न कियो | सरस आहार ॥ एकान्त वास सयन धरा । अल्पभाषी प्राचार ॥ २ ॥ अक्का सम- 1 । जावे घणी । ते माने नलगार । मांस द्वादश वीतीया । तब सुपीया समाचार ॥ N३॥ जयजी जयपुर पति भया । उमंगी मिलण तेवार ॥ श्राका लाइ वैठाय के । शिविका में दरबार ॥ ४॥ वीती बात कही भूपने । सत्यवन्ती तस जाण । राखी अन्तेउरी विषे । प्रेमे पोषी प्राण ॥ ५ ॥ ॥ ढाल २१ वी ॥ वीसरेमति नाम जिनंदजी को ॥ यह ॥ जय विजय नृपति का पुण्य भारी ॥जय ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ७६ टेर || दो देश अधिपति भया जयसेनजी । गुणवन्ती मिली तीन नारी ॥ जय ॥ ॥ १ ॥ तीन सिद्धी तीन लोक में अपर बल । विलसे सुखसो सुरसारी ॥ जय ॥ ॥ २ ॥ एक दिवस बन्धु याद आयो । ऋद्धियुत मिलणो हि जारी ॥ जय ॥ ३ ॥ बहूत विछोहा रह्या इत्ता दिन । अबतो रेवां एक ठारी ॥ जय ॥ ४ ॥ मंचने तब राज भोलायो । नीति रीति सब चेतारी ॥ जय ॥ ५ ॥ जौर योग्य बन्दोबस्त सब करीयो । कराइ सेना सज सारी ॥ जय ॥ ६ ॥ तीनों राणी ने साथही लीनी । और ऋद्धि बहू श्रेय कारी ॥ जय ॥ ७ ॥ शुभ महूर्त प्रयाण कर्यो तब । हयगय रथ दल परिवारी ॥ जय ॥ ८ ॥ प्राहूणाचारी करता मार्ग में पुर २ पती घर मनवारी ॥ जय ॥ ६ ॥ सुखे २ यों मुकाम करता। आया काम पुर सीम मांरी ॥ जय ॥ १० ॥ समाचार ये पाया विजयजी । अनन्द पाया - पारी ॥ जय ॥ ११ ॥ शीघ्र हुकम कीयो करो सजाइ । नगरी स्वर्ग सी सिणगारी जय ॥ १२ ॥ आप सबी परिवार संघाते । सन्मुख याया पाय चारी ॥ जय ॥ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० | ॥ १३ ॥ देख जेष्ट भाइ उमंग भराइ । जा पड्या चरणां मझारी ॥ जय ॥ १४ ॥ उठाइ जय हृदय से भीडया । गर्क प्रेमरत गुलतारी ॥ जय ॥ १५ ॥ मेमांश्रुत कहे || अचिन्त्य गया तजी। में दुःख पाया अपारी ॥ जय ॥ १६ ॥ आज कृतार्थ मुझ ने कीनो । भाइ सन्मुख दयालारी ॥ जय ॥१७॥ दोनों प्रारूढ हुवा एकही गय पर । रवी शशी सम शोभतारी ॥ जय ॥ १८॥ सब परीवारे चल मध्य | बजारे ॥ छत्र शीश चमर ढुलारी ॥ जय ॥ १६ ॥ सहकारों मोती मेहे वर्षाया। | सोभागणी लिया व धारी ॥ जय ॥ २० ॥ आया मेहल में राज सभा में । सिंहासण दीपे दोनों बैठारी ॥ जय ॥ २१ ॥ सुखे २ दोनों रहे एक स्थाने। लघु जेष्ट अनुज्ञा मझारी ॥ जय ॥ २२ ॥ देख भक्ति तुष्टया जयजी विजय पर । मणी औषध तस स्मर प्यारी ॥ जय ॥ २३ ॥ निश्चिन्त रहे सुख भोगे इच्छित । राज तिहूं को IN संभारी ॥ जय ॥ २४ ॥ ढाल इक्कीसी गाइ अमोलक । पुण्य फल सदा मुखकारी । ॥ जय ॥ २५ ॥ 8 ॥ दोहा ॥ एकदा विजय रायजी । सुख सेजा के माय । सूता Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि निश्चिन्त पश्चिम निश । स्वप्न अचिन्त्यो प्राय ॥ १ ॥ जयति नयरी स्वर्ग सी। जयन्त राजा गुण धार ॥ विजिया तनुजा तेहनी अतुल्य गुणागार ॥ २॥ । सवरा मंडप तेहनो। रुचो अजब रंग ढंग । राज राजेश्वर बहू मिल्या । घरता वरण उछरंग ॥३॥ सर्व राजा को परहरि। विजया वरी विजय तांय ॥ हर्षे स्यन्द तब तन भयो । तत्क्षीण जाग्रत थाय ॥ ४ ॥ तत्क्षीण उठ बैठा हुवा। आश्चर्य अति मन लाय। कि हां विजीया किहां जयंतीपुर किम स्वप्न यह मुझ पाय ॥५॥ N॥ ढाल २२ मी ॥ न्यालदे की देशी में ॥ सुणजो कथा पुण्यशालीनी,जी भाइ । पुण्य सदा सुखदाय ॥ पुण्यवन्त ने पुण्यवन्त मिले जी। जो दूर देशे ही रहाय । ॥ सुण ॥ १॥ चिन्ते अचिन्त स्वप्न अावीयोजी कांइ । यह तो खोटो नहीं थाय ॥ जावू भाइनी रजा लइ जी। लेवू स्वम अजमाय ॥ सुण ॥ २॥ प्राते जणायो । जय भणीजी भाइ । दी आज्ञा तत्काल ॥ मणी प्रभावे खगगति जी। गया जय न्ति चाल ॥ सुण ॥ ३॥ चिन्ते इण रूप में मुझवरे जी कांइ । तामे आश्चर्य । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ७६ काय ॥ कूरुपो बणुं जो मुजवरे जी । तो सत्य स्वप्न जगाय ॥ सु ॥ ४ ॥ मणी प्रभावे तब कर्यो जी भाइ | विद्रूप कुब्ज स्वरूप ॥ कूब मोटी उर पृष्टपे जी । ठेंगणों तन मस्सी ऊप ॥ सु ॥ ५ ॥ एक पगे लंगडा बण्या जी भाइ । पेट गयो पाताल || कर पग दुर्बल बाँकडा जी । चाले डगमग चाल ॥ सु ॥ ६ ॥ चीवडी आँखों बैठी नाशीका जी कांइ । श्लेषम तामे सडडाय ॥ दंत तीन मुख बाहीरे जी । लांबा होट हलाय ॥ सु ॥ ७ ॥ मस्तक मूंछ ने दाढीना जी कां । कबरा विखर्या बाल ॥ फटे मलीन वस्त्र तन सजी जी । पडे मुख मांहे से लाल ॥ सु० ॥ ८ ॥ जेष्टीका सहाही कर विषे जी कांइ । डगमग चल्या जाय || शीशु पाछे देखवा जी । हंसे आप तास हंसाय ॥ सु० ॥ ६ ॥ सवरा मंडप में पेसीया जी। हंसीया सब जन जोय ॥ सब से ऊंच आसन कियो जी। कम्बले ढांक्यो सोय ॥ सु० ॥ १० ॥ ता ऊपर विराजीया जी कांइ । मूळे देता ताव ॥ अवलो कता सब भूप को जी । जगाता पर भाव ॥ सु० ॥ ११ ॥ हंसता लोक कहे Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० ज०वि० तेहनेजी कांइ । अहो २ रूप प्रधान । परणन् अावा पद्मणीजी । वणकर बीदराPजन ॥ सु० ॥ १२ ॥ ते हट कर कहे परणस्यूं जी काइ। निश्चय हूं विजीया तांय ॥ हंस सो सो रोसो घणाजी । देखो अबी क्षीण मांय ॥ सु ॥ १३ ॥ राते कुलदेवी । स्वप्न में जी कांइ । चेतायो विजीया तांय ॥ बरजे कूरूप कूबडा भणी जी। जो पूर्ण सुख चहाय ॥ सु ॥ १४ ॥ कुमरी रख्यो ध्यान में जी। न्हाइसजी सिणगार ॥ दासीयों वृन्दे परिवरीजी । नेपुरने झणकार ॥ सु ॥ १५ ॥ हरती मन नयन सहूतणाजी कांइ । पेठी मंडप मांय ॥ वेत्रधारणी दरसावतीजी । रूप नृप आदी सोसाय ॥ सु ॥ १६ ॥ नम ऋद्धि कीर्ती नृपों कीजी कांइ । सुणाती आगे जाय ॥ कुमरी बरे नहीं कोयनेजी । कूबडो रही चित्त ध्याय ॥ सु ॥१७॥ अावे जिस नप सन्मुखे जी कांइ । हर्षे दीये तस नूर ॥ तजीने अांगल संचरेजी। तब शोकी होवे ऊतरे ज्यों पूर॥सु०॥१८॥तेतले वीजय कुब्ज प्रावीया जी कांइ। वेत्र धारणी चिन्ते मन॥जो इणने नहीं वरणवू जी।तो युक्ति भंग लगे दोषन ॥सु०॥१६॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० थानी a थाकी खीजी इम ऊचरे जी बाइ। सबसे अधिक गुणधाम ॥ वरनो तो वर ये कूबडोजी। नहि मिले ऐसो अन्य ठाम ॥ सु ॥२०॥ दासी वेण देवी केणथी जी। कुब्ज गले डाली वरमाल ॥ऋषि अमोले आर्श्वयनीजी। कांइ। भाखी यह बारवी ढाल ॥सु॥२१॥ * ॥दोहा॥ सर्व राय असुरक्त भये । कहे मूर्ख कन्या येह ॥ मरोल सम महीपति तजी । वायस भिक्षु के धर्यो नेह ॥१॥ पण जुगतो नहीं राय ने । देनी नीच जाति | ने बाल॥ खोशी लो कुब्ज कने थकी शीघ्रये वरमाल॥२॥ कोपातुर वदे नरवरा । छोड कुब्ज वरमाल ॥तुझ जोगी कन्या नहीं। भाग्य प्रमाणे चाल ॥३॥ कुब्ज उत्तर प्रापे नहीं ।तब अति लाइ रीस । कहे रे अर्प वरमाल शीघ्र । नहीं तो छेदां सीस ॥४॥ | समता सायर झीले कुजजी । वदे नहीं एकबाच ॥ धैर्य से धोका टले । जरान लागे अांच ॥५॥॥ ढाल २३ वी॥ राघव प्रावीया हो ॥ यह०॥ राजिन्द प्रावीया । व हो। होकर सबही शूर ॥टेर॥ लेइकर करवाल नागी। बोले बचन बिकराल || अरे धीठा हीये चीठा । छोउ शीघ्र वरमाल ॥रा०॥१॥ गम्भीर वयण तब कुब्ज Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० बोले । अहो हत भागी राय ॥ निज देव पर रोश करो तुम । मुझ पर किया । ८२ क्या प्राय ॥रा०॥२॥ खोटा कर्म तुमारडा। न लगी पद्मणी हाथ ॥ फोकट रोश क्या काम आवे । भरो वायु की बाथ ॥ रा०॥ ३॥ यो दुर्गम वयण सुण । | सब । अति प्रज्वल्या अंग ॥ कुमरी को कर धर खेंची । चड्यो कुब्ज को रंगा॥ रा०॥ ४ ॥ श्रोषधी निज अनन में धर ॥ जेष्टिका दृढ कर सहाय कूटवा लगा सबी राय को । ज्यों नेरीयों को जमराय ॥ रा०॥ ५॥ ते उलट खड्ग हणे - कुब्ज को । जरा न लागे घाव ॥ कुब्जे मार्या पड्या धरणी । आश्चर्य धरे सब | राव ॥ रा०॥६॥ मृगपति देख मृग भागे । त्यों भग्या नृपाल ॥ केइक लंगडा लूला भइया । केइ ढिग पहोंता काल ॥ रा०॥७॥ खेदाश्चर्य धर कहे सुज्ञ तब । यह नर नहीं कोई देव ॥ महा जोधा वीरे हराया। एकडले इण हेव ॥रा० ॥८॥ सजन अतिचित्त चिन्ता धरता । थर २ अंग थरराय ॥ मान मरद्या । पाहूणा का । शरमाया शूर राय ॥रा०॥ ६॥ कन्या तात भया चिन्तातुर । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म०वि०पुत्री देवू किस तांय कुब्ज ने देतां राय कोपे । निंद्या जग फैलाय ॥रा ॥ १०॥ राय को देतां कुब्ज कोपे । करे सब संहार ॥ दिग मुढ सम होकर बैठो। सुचने कोइ विचार ॥ रा०॥ ११ ॥ विघ्न में सन्तोष करने । नभथी उतयों विमाण ॥ तेहथी उतर एक खेचर नरमी । करजोड़ी वदेवाण ॥रा॥१२॥ अहो विजय नरेन्द्र जयवन्त । वर्तो सदाही आप ॥ राय भूषण मौली मणी सम । बढो तेज प्रताप | ॥रा० ॥ १३॥ कुब्ज चिन्ते दान इच्छक । बोले बिरूदावली कोय ॥ दान आपण कर लंबायो। फिर नरमी कहे सोय॥रा॥१४॥ गिरी वैताब्ये दक्षिण श्रेणि में। राय कN न्या महारूप ॥ प्रज्ञाप्ति विद्या प्राराधी। पूछे वर घर चूप ॥रा॥१५॥ सुरी स्वरूप रू महिमा आपकी । वरणी सुण हाराय ॥ तेडवा मुझ वहां पठायो । पधारो शीघ्र महाराय ॥ रा०॥ १६ ॥ यों विनंती बहु बिध करतो। तबही तास सखाय। | दूसरा खेचर आकर उतर्या । बोल्या विजय को बधाय ॥ रा०॥ १७॥ उत्तर श्रेणी विद्याधरनाथ की। कंन्य गुण रूपे अपार ॥ रोहणी सुरी ने पूछा वर निज। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० आषे बखण्या अपार ॥ रा०॥ १८ ॥ बोलावा में सचीव प्रायो। शीघ्र चलो रायनाथ ॥ कुब्जजी रहे मौनधारी। सब देख अति अचंभात ॥रा०॥ १६ ॥ | यह नहीं कुब्ज छे नरेन्द्र को ॥ विजय विधान प्रसिद्ध ॥ खेचर पत युग सेव चहावे ।। तो नर है को विध ॥ रा०॥ २०॥ कौन कहां का कुब्ज क्यों बने । संशयी आनन्द विशाल ॥ ऋषि अमोल पुण्य प्रताप की ॥ कही त्रीवीस ढाल ॥ रा०॥ ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ अवसर अोलखी विजयजी । कुज रूप कियो दूर ॥ । पूरेन्द्र सम मूल रूपे रह्या । दीपे झलहल नूर ॥ १॥ सर्व नरेन्द्र श्राइ नम्या । | अहो पुण्य कृपा निधान ॥ अजा जे गुनो हुवो माफ कर । बने रहो मैहरवान 1॥२॥ युग खेचर करे विनंती। शीघ्र चलो महाराय ॥ विजिया तात प्रणमी हे । परण्या विना न जवाय ॥ ३॥ मानी विजयजी अर्ज ते । नभचर रखे सादर ॥ परण्या विजीया ठाठ से । दम्पति आदि प्रेम भर ॥ ४ ॥ परसंस्ये सब । बाइ बुद्ध । किया राजेन्द्र भरतार ॥ सुखे रहे विजयजी तहां। खेचर बात विसार । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ॥ ५ ॥ॐ ॥ ढाल २४ वी ॥ जिल्ला की देशी में ॥ तब तहां खेचर विजय ने । विसर्या जाणी हो ॥ पुण्य फल सुखदाय ॥ तब तहां खेचर विजय ने विसर्या | N/ जाणी हो ॥ राजिन्द ॥ श्राया चेतवा नमी विजय मधु वाणी हो ॥ पुण्य फल०॥ * अाया चेतवा नमी वीनवे मधु वाणी हो ॥ राजिन्द ॥ १॥ यहां प्राय सुखमें लुब्धि हमने भूल्या दीशो स्वामी हो ॥ पुण्य० ॥ यहा० ॥ रा०॥ इम सुण विज| यजी चित्त में शरम अति पामी हो ॥ पुण्य० ॥ इम० ॥२॥ तस साथही जावा शीघ्र ही सज्ज सो थाइ हो ॥ पुण्य० ॥ तस०॥रा०॥ पत्नी स्वसुर ने योग्य बचन से समझाइ हो ॥ पुण्य० ॥ पत्नी०॥रा०॥३॥ बैठ विमाने असमाने - पन्थ से चाल्या हो ॥ पुण्य० ॥ बैठ० ॥रा०॥ गीरी बेताड रूपा का पहाड निहाल्या हो ॥ पुण्य० ॥ गिरी० ॥ रा० ॥ दक्षिण श्रेणिये पचास नगर लेणी N| शोभे हो ॥ पुण्य० ॥ द०॥ रा० ॥ जगती वागीचा युगल खेचर देखी लोभे हो | ॥ पुण्य० ॥ ज०॥ रा०॥ ५ ॥ जयतीपुरे जयन्त राज सभा अाया हो ॥ पुण्य० Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ॥ ज०॥ रा० ॥ उतर्या विमान से माघव समान शोभाया हो ॥ पुण्य० ॥ उ० ॥ ८६ रा०॥६॥ खेचर पति सपरिवारे उछरंगे बधाया हो ॥ पुण्य० ॥ खे०॥ रा०॥ घणेही सन्मान से ऊँचे अासन वैठाया हो ॥ पुण्य० ॥ घणे० ॥ रा०॥७॥ अति अाडम्बर लमोत्सव को कराइ हो ॥ पुण्य०॥ अति०॥ रा०॥ जयती नामे बाइ विजय ने परणाइ हो ॥ पुण्य० ॥ ज०॥रा०॥८॥ कन्यादान सु प्रमान देवन की वारे हो ॥ पुण्य० ॥ कन्या०॥ रा०॥ प्रज्ञाप्ति महाविद्या दीवी । सुखकारे हो ॥ पुण्य० ॥ प्रज्ञा० रा०॥६॥ और यथा विधी सुसरे जमाइ स न्मान्य हो ॥ पुण्यः॥ और०॥रा०॥ अपूर्व लाभ ले अनन्द विजय अति मान्या हो ॥ पुण्य० ॥अपू०॥रा०॥ १० ॥ सर्व सुख में लीन स्वल्पकाल तहां V रेइ हो ॥ पुण्य० ॥ सर्व० ॥ रा० दूसरे विद्याधर युत नृप सम्प्रती लेइ हो ॥ पुण्य० ॥ दूस०॥रा०॥ ११॥ बैठ विमान में पुनः असमान मे चाल्या हो ॥ पुण्य०॥ | बैठ०॥रा०॥ उत्तर श्रेणि साठ नगर का ठाठ निहाल्या हो ॥ पुण्य० ॥ उत्त०॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ८७ । रा०॥ १२ ॥ विजयति नगर ऋद्धि सिद्धि भर में पधार्या हो ॥ पुण्य० ॥ वि०॥ रा०॥ विजयन्त भूपत हर्षत विजयजी ने जोइ हो ॥ पुण्य० ॥ विज० ॥ राजि० | ॥ १३ ॥ पुण्यात्म जमाइ ने लियसौ बधाइ हो ॥ पुण्य० ॥ पुण्या०॥ रा०॥ | अति प्राडम्बर विजयन्ति वाइ परणाइ हो ॥ पुण्य० ॥ अति०॥ रा०॥ १४ ॥ । महाविद्या तस रोहणी नाम सु दीनी हो ॥ पुण्य० ॥ महा० ॥ रा०॥ अति प्रा| नन्दे विजयजी गृहण तस कीनी हो ॥ पुण्य० ॥ अति० ॥ रा०॥ १५ ॥ थोडे काल तहां रेइ पुनः करी तैयारी हो ॥ पुण्य० ॥ थोडे० ॥ रा०॥ निजपुर जाने । स्वसुसरादि रजा गृही जहारी हो ॥ पुण्य० ॥ निज० ॥ रा०॥ १६ ॥ गजगाजी IN दास दासी गगन चारी दीना हो ॥ पुण्य० ॥ गज०॥ रा०॥ सब ऋद्धि से परि बर्या नभ मार्ग लीना हो ॥ पुण्य० ॥ सब० ॥ राज० ॥ १७ ॥ पुनः जयन्ति आया सुख से रहा या हो ॥ पुण्य० ॥ पुनः०॥ रा०॥ तहां से भी ऋद्धि अ|धिक ले आगे सिधाया हो ॥ पुण्य० ॥ तहां० ॥ रा०॥ १८ ॥ जयन्ति विजन्ति Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ८८ नारी अप्सरा समानी हो ॥ पुण्य० ॥ जय० ॥ रा०॥ काम देव ने रति प्रीति | जोडी सो जानी हो ॥ पुण्य० ॥ काम० ॥ रा० ॥ १६ ॥ और सब | ऋद्धि तेज बल कर शोभे हो ॥ पुण्य ॥ और ॥ रा०॥ ऐसे ठाठ से काम पुरे । चल पाया हो ॥ पुण्य ॥ ऐसे ॥ रा०॥ २०॥ पुर वाहिर उतरीया खबर संचरीया हो ॥ पुण्य ॥ पुर० ॥ रा०॥ लोक सब आश्चर्य भरीया देखन हरीया हो ॥ पुण्य ॥ २१ ॥ जाणी जयजी सेना-मंगल ताम सजाइ हो ॥ पुण्य ॥ जाणी॥ रा०॥ सामें पाया लीना लघु बन्धव बधाइ हो ॥ पुण्य ॥ सा०॥रा० ॥ २२ ॥y नगरी सिणगार गोरडी गीत उचारी हो ॥ पुण्य ॥ नग ॥ रा० ॥ दोनो गज अारूढ पेस्या सब परिवारी हो ॥ पुण्य ॥ दोनों ॥रा०॥ २३ ॥ देखी खेचर भू चर अति विस्मावे हो ॥ पुण्य ॥ देखी ॥ रा०॥ मोतीयों का मेह वर्षाइ राय बधा| वे हो ॥ पुण्य ॥ मोती ॥ रा०॥ २४ ॥ अाया मेहल मेहल मांही सुखे सहू साथ || रहाइ हो ॥ पुण्य ॥ श्रा०॥ रा० ॥ वीती वारता भ्राता ने वीजय सुनाइ हो ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न.वि. पुण्य ॥ वीती० ॥ रा० ॥ २५ ॥ जेष्ट की छांये निश्चिन्त विजय जी रहावे हो । पुण्य ।। पाता ।। पुण्य ॥ जेष्ट ॥ रा०॥ स्वर्ग समा सुख भोग में काल बीतावे हो ॥ पुण्य ॥ स्व ०॥ रा० ॥ २६ ॥ जय के चार विजय के तीन है राणी हो ॥ पुण्य ॥ जय ॥ | | रा०॥ पुण्य ढाल चौबीस अमोल गवाणी हो ॥ पुण्य ॥ पुण्य ॥ रा०॥ २७ ॥ * ॥ दोहा ॥ पुण्य वृक्ष निज फल लखी। दोनों बन्धव उस वार ॥ तात से मिलने ऊमंगीया। देखाने चमत्कार ॥ १॥ विन गुने अपमानीया । तास बतावां फल ॥ चालो सेना ले सहू । कीजे कुल वीमल ॥२॥ ता तदि सज्जन सह ।। क्या जानेंगे मन मांय ॥ कुवर गया प्रलय भया । के रह्या ऋद्धि पाय ॥३॥ भचर नभचर की सबी । करी सेना तैयार ॥ नभ भूभी भाग संकीर्षा कर । चले ! करत जयकार ॥ ४ ॥ रस्ते आते अन्य राज में । शक्ति से मनाता प्राण ॥ करपता सेना सामठी । सुखे २ करे प्रयाण ॥ ५॥ ॥ ढाल २५ वी ॥ खडका छन्द । मे ॥ आयो सब सीम जहां प्राइ निज तात की। छावनी डाल तहां सह रहीया॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० लूटता खोसता त्रासता ठाकरा । जायजों खबर तात अावे अहीया ॥ १ ॥ प्रा. ताप प्रताप महा पुण्य बलीया तणा । अरि हरी जय श्री वेग पावे ॥ टेर ॥ शूर । || ने वीर रणधीर राणा मिली । जोर को तोर अधिको जणावे ॥ आताप ॥२॥ भागीया राजीया अाया नरेन्द्रपे । दल बल छल रोशे जगावे ॥ सुणी धर्मराय || भराय कोपे अति । है कोन दुष्ट मुझ सामे अावे ॥०॥३॥ सजी सब फोज रख चोज लडवा तणी । खोज खोवा दुष्ट परी नर नो ॥ गज रथ पालखी भेट शूरा सजी । शूर ज्यों गाजीया मेघ भरनो ॥ श्रा० ॥४॥ मयंगल मद भर्या । सिणगारी सज कर्या । श्याम घटा छाइ ज्यों माधव अावे॥ गुल गुलाट गर्जारब विद्युत होदा चमक । लम्ब घण्टा घोर नाद थाये ॥ श्रा०॥ ५॥ तुरंग कुरंग ज्यों चपल पग स्थिर नहीं। रोसाल चौफाल हणणाइ रहीया ॥ पालाण मजबूत रजपूत बैठा सजी। शस्त्र सम्बन्ध कर सज थइया ॥ श्रा०॥ ६॥ रथ संग्रामी सजा। झणणाटे अरि लजा । जरी खोल पचरंग नेजा फरके ॥ राणा वैठा मांय खेंची धनुष्य Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवि० जमाय । मारे भरी जरा लारे न सरके ॥ प्रा०॥७॥ वक्तर संगीन रंगीन नयन | रोश में । झल झले अस्सी न ली भाला कर में ॥ शूर रस में छके बके अरी । लोभवो । सूर रस पर रणतर रम्में ॥ प्रा०॥८॥ यों चतुरंगी बहजंगी सेना बनी। धर्म राजा तणी चोजे चाली ॥ अाइया कटक जहां प्रतिष्ट कुमर का। रण में चौगान विशाल भाली ॥ प्रा०॥६॥रणां गण झडावीया । सड चडावीया। निशाण फररावीया दोनों राजा ॥ शस्त्र अस्त्र सजी थइ २ नाचे शूरमा। बाजे जुजावु रणतूर बाजा ॥ श्रा० ॥ १०॥ दयाल जय विजय यों देख चित्त । चिन्तवे । विन काम घमशाण महा अभी थावे ॥ महा पाप संग्रही निश्चय जावे | मरी। नहीं करूं यह अकृत्व भावे ॥श्रा०॥ ११ ॥ श्रापणी सेना को ना कही लडन की ॥ दोनों भाइ आगे ऊभा जो रहीया ॥ प्रति पक्ष तेन छंछेडी कू वेण कहे । एक बाजू संग्राम चालूनी थइया ॥ प्रा० ॥ १२ ॥ धर्मराय सेन रोश कर । न्हाखे शस्त्र कुमर पर ॥औषधी महीमा कर नहीं लागे ॥ मेघ धारा ज्यों वर्षे शस्त्र Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ६२ I सेना पर || देख आश्चर्य सर्ब मन जागे ॥ ० ॥ १३ ॥ आये शस्त्र सब संग्रही ने ढग कियो । निशस्त्र हुइ पिता सेना जारे || शूर मगदूर क्या करे शस्त्र विना । थर २ कम्पेत इत उत सौ निहारे ॥ ० ॥ १४ ॥ लेइ गदा दोनों बंधव लगे मारने । सेना निराधार ने भागी त्यारे ॥ धर्म राज लगे भागने कुमर जो लागने । सन्मुख ऊभा कर तारे ॥ ० ॥ १५ ॥ अहो वृद्धि राजीया । बालसे भागीया लाजीया कैसे देंगे जाने ॥ कौन गुने जय विजय अपमानीया । शीघ्र फरमावे | ही म्हाने ॥ ० ॥ १६ ॥ सो बीज वाये सो फल अब आवीये । दोष जणावो कुमर केरो ॥ वि न्याय किये कयो रोषीय पुत्र से । जानवा चावे हमसोइ बेरो । ॥ ० ॥ १७ ॥ यों बचन सुणी चमक्या तब धरा धणी । वैर लेवण येह कुमर श्राया ॥ उमंग्यो प्रेम प्रेक्षी पुत्र या निज । अजान अपराध हुवा कहे क्षमाया ॥ १८ ॥ संक्षेप में बात दर्शाइ वीमा तनी । देवी कुरापात ये घात थाती । तुम गया नन्तरे जाणी खरी चरा सह । तब महारी घणा जली छाती ॥ श्र० ॥ ० ॥ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि०१६ ॥ चौकस करावी पावी नहीं तुम खबर। भारत धर आज तक रहीया ॥ ___६३ | तुम पुण्यात्म मिल्या चमत्कार कर । हर्षे हीय न समाय भइया ॥ श्रा०॥ २० ॥ । हृदय चम्पी दोनों गर्क भया सुख में । सपूत पेखी सब हर्ष लावे । तो खुशी मा- | वित्र की कैसी वरणवी॥ ढाल पच्चीस अमोल गावे ॥श्रा०॥ २१ ॥ * ॥ दोहा॥ शरलता पेखी तात की। हर्ष्या दोनों कुमार ॥ चरणे पडी अर्जी करे। हम गुनेगार अपार ॥१॥ नाहक सताया अापने । कर अविनय भरपूर ॥ सब अप- 12 | राध माफी करो । मावित्र मतिये भूर ॥२॥ नृपति कहे संतोष ने । गुन्हो न हुवो | लगार । उज्वाल्यो कुल भाहेरो। गाल्यो अरि अहंकार ॥३॥ सह पहचानी राज | पूत्र । हर्षित हुवा अपार ॥ मंगलतूर बजन लगे। परसरे सबी कुमार ॥४॥ खेचर ।। भूचर पत भया। विद्या बलीया अपार ॥ ४॥ जीत्या प्रबल सेना ने। हिंसा न कीनी लगार ॥ ५ ॥ॐ ॥ ढाल २६ मी ॥ जीवो हो जीवो वीरा ॥ यह० ॥ हा हो । हा सजन सहू घणा जी। प्रेक्षी जय विजय की रिद्धजी ॥ जोयो हो जोयो Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ज०वि०। प्रत्यक्ष चमत्कारने जी। विद्या घणी छे सिद्धजी ॥ हा ॥ १॥ अरी जन हो अरी जन सुणीने लाजीया जी।सज्जन पाया आणंद जी॥बाँटी हो बांटी बधाइ प्रेम की जी। अाज मिल्या सुख सम्बन्ध जी ॥ हा ॥२॥ मुहूर्त हो मुहूर्त शुभ तब अाइयो जी। विवुद्ध कहे पुकार जी ॥ पेसण हो पेसण पुरमे अबी करोजी। मुहूर्त विजय श्रेयकार जी ॥ हा ॥ ३॥ बेठा हो वैठा रायजी कुंजरे जी । | दोइ पास कुमर बैठाइ हो ॥ मान हो माने सुख अति मन विषे जी । छत्र सिर N चमर वीजाय हो ॥ हा ॥ ४ ॥ सेना हो सेन सब हुइ एकठी जी। खेचर चाले खग माय हो ॥ भूचर हो भूवर चाले भूपरे जी। ठाठ अनोखो देखाय हो । | हा ॥ ५ ॥ बाजे हो बाजे अम्बर गर्जावीयो जी । हर्ष निशाण कर राय हो ॥ बोले हो बोले विरुदावली घणाजी । बन्धीजन पुण्य सरसाय हो ॥ हा ॥६॥ | लीधा हो लीधा बधाइ गोरडीजी । शुद्ध द्रव्य गीत सिणगार हो ॥ चल्या हो चाल्या मध्य रथी जी । परवरी सहू परिवार हो ॥ हा ॥ ७॥ निरखे हो नि-|| Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ६५ रखे गौरव से गोरडी जी । मर्ग थी प्रज सर्व हो || देखी हो देखी ऋद्धि जय विजय नीजी । गलीया शत्रु गर्व हो ॥ हर्ष्या ॥ ८ ॥ श्रायहो आय राज सभा विषे जी । बैठा सौ थया योग स्थान हो । भाखे हो भाखे सचीव जय रायनो जी । सुणी यों सब देइ कान हो || हर्ष्या ॥ ६ ॥ पुण्यथी हो पुण्यथी ऋद्धिपगपगे जी । पावे पुण्यात्म प्राण हो ॥ जयजी ने जयजी विजयजी राजीया जी । इहाथी कियो प्रयाण हो ॥ हर्ष्या ॥ १० ॥ मार्गे हो मार्ग यक्ष संतुष्टीया जी । दीघा तीन रतन हो । पाया हो पाया राज तिहूं मोटका जी । वली खेचपत दासपन हो । हर्ष्या ॥ ११ ॥ दाखी हो दाखी चरी सब दोइनी जी । सुखी सब वर्य पायो || हो आयु सुख गिरीखा रहोहो । आशीर्वाद सुपाय हो । ह० ॥ १२ ॥ पता हो पहूंता सहू निज २ घरे हो । अठाइ महोत्व कराय हो || दुःखीया हो दुःखीया सहू सुखीया कीया हो । दान धर्म फैलाय हो ॥ ० ॥ १३ ॥ या हो या दोनां बन्धवा जी । निज २ माता ने पास हो । प्रणम्या हो प्र Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० kणम्या राणीया संग लेहो । विरह दुःख कीया नाश हो ॥ ह०॥ १४ ॥ पूत्रज हो । | पुत्र सपूता देखता हो । जननी अति सुख पाय हो ॥ प्राशीर हो आशीरवादे । तोपीया जी । हृदय सहू ने लगा यहां ॥ ह० ॥ १५ ॥ दीधा हो दीधा मेहल श्रेय रहवाजी। सहू सुख सामग्री सजाय हो॥परिवर्या हो परिवर्या सब परिवारथी हो। दोनों रहे सुख माय हो ॥ ह० ॥ १६ ॥ जोइहो जोइ रचना कुमर की हो। श्रीमति मन मुरझाय हो॥आखीर हो आखीर राज वीये ही हुवा हो । मुझ व्यर्थ गयो उपाय हो ॥ १७ ॥ होतब हो होतब कौण टाली सके हो । पुण्यात्म सुख पाय हो ॥ यों जाणी हो यों जाणी सुस्ती रही हो। मनही मन समजाय हो ॥ह० ॥ १८ ॥ कुमरजी हो कुमरजी मणीद्र भाव थी हो । साधे इष्ट सब काम हो ॥तोष हो तोषे 12 सब सज्जन भणी हो । पूरी इच्छित हाम हो॥ ४० ॥ १६ ॥ जावे हो जावे गगने IN उडी करीजी। करे सहू राज संभाल हो। रहवे हो रहवे पिता की छांह में हो। V सदाचित उजमाल हो ॥ ह० ॥ २०॥ विलसे हो विलसे सुख स्वर्ग समा हो ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि०11 ३० * * हुइये छबीस मी ढाल हो ॥ पभणेहो पभणे ऋषि अमोल का हो। पुण्ये सुख | विशाल हो ॥ ह० ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ तिण अवसर भूमंडले । चारित्र चूड अणगार ॥ विचरे बहू मुनिवर संगे। करता परम उपकार ॥ १॥ नन्दीपुर के उद्यान में । समोसर्या महाराज ॥ हा नृपादि सुणी । ज्यों मिली समुद्रे जहाज ॥२॥ हुकम कियो सब परिवार को। चालो सुणन व्याख्यान । सेना आदि सामग्री सह । संग ले चले राजान ॥३॥ पुरजन बहू उत्सहा धर । यथा योग्य सज होय । आये विधी से वंदीये । उरे दर्श अमी लोए ॥ ४॥ परिषद बैठी भराय के वाणी सुणन उमंगाय ॥ सर्व जीवो हित कारणे । मुनी सबोध फरमाय ॥५॥ ढाल २७ वी चेतन चेतोरे दश बोल ॥ यह ॥ लावो लेवो हो भव्य जीवों । अवसर दुल्लभ पाया हो ॥ लावो ॥ टेर ॥ निर्वाण साधक मानव देही । पाया तेही साधो हो ॥ धर्माराधन सूत्र सुण्या । श्रधी ने अाराधो हो । ला०॥ १॥ पुद्गल स्वभाव पूरणोगलणो । मेघाडम्बर सो जाणो हो । क्षीण भंगूर या साहे Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० बी पाई । मुढ मुरजाणो हो ॥ ला०॥ २॥ वणी वक्ते जो चेते सुधारे । सामग्री लेखे लगावे हो ॥ तो जालभ दुःख क्षीण में गमाइ । अक्षयानन्द पावे हो ॥ ला॥ ५३॥ इत्यादि उपदेश सुणी। सहु सभा अति हर्षाइ हो ॥ सम्यक्त्व व्रत यथा ।। शक्ति प्राचरी । निज स्थान प्राइहो ॥ लावो ॥ ४॥ संवेगे भीना धर्म राजा। कर जोड़ी करे अरजी हो। राज पुत्र न देइ बासुं । संयम लेवा मरजी हो । | ॥ ला०॥ ५ ॥ यथा सुख करो मुनि फरमावे । धर्म में ढील न कीजो हो । वंदी | । गुरु नृप राज में आया । धर्मे मन भीजो हो ॥ ला० ॥ ६ ॥ जय विजय || जय को कहे बोलाइ । राज ये तुम संभारो हो ॥ तुम सम सुपुत्र में पायो । करूं * सुधारा हो ॥ ला०॥७॥ दोनों कहे अाप पुण्य पसाये । राज सम्पत हम पाया | हो ॥ यो राज देवो जयधीर ने । होवे मा चहाया हो ॥ ला०॥८॥ तब नृप । तीनों राणी बोलाइ । वैराग्य बात जणाइ हो । जन्म सुधारूं वणी वक्त । तुम | इच्छा कांइ हो ॥ ला०॥६॥ प्रश्नोत्तर बहूता हुवा नन्तर । तीनो राण्या वैरागी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० हह हो ॥ कहे हम किमधिक करां रेही । आाप जावो त्यागी हो ॥ ला० ॥ १० ॥ तब नृपति कहे रणधीर ने । राज संभला भाइ हो ।| जय विजय तो पाया राज अन्य | ये तुझ तांइ हो ॥ ला• ॥ ११ ॥ जयधीर कहे जयवीर पिता सम । हू तो राज न स्यू हो || विजय बरोबर भ्रात भक्ति में । सदाही रहस्यूं हो || ला० ॥ १२ ॥ सब की सला से विजय कुमर ने । जबरी से गादी बैठाया हो ॥ तातमात का दीक्षा त्सव | जयजी मन्डाया हो || ला० || १३ || सब परिवारे बाग में माया | संसारी वेष तजाया हो ॥ धारी मुनि वेष लीनी दीक्षा | जग दुःख छिटकाया हो ॥ ला• ॥ १४ ॥ सब परिवार चित्त आरत धरतो । फिर कर निज गृह चाया हो | संभारे गुण रहता सुख में । जगरूढ सहाया हो ॥ ला० ॥ १५ ॥ तीनो सती रही सतीयों मांइ । मुनि श्राचार्य ढिग रहा इहो । प्रथम ज्ञान सीखे अति चूंपे । जे सिद्ध दाताइ हो || ला० ॥ १६ ॥ नन्तर दुक्कर करणी करता । वाह्य अभ्यन्तर शुद्धे हो ॥ दृष्टि लगाइ निर्वाण पन्थे । जो दाखी बुद्धे हो ॥ ला० ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० 5 . ज०वि० ३०- १७॥ धर्म ऋषि धर्म ध्यान से चढीया । शुक्ल वरी शुक्ल भैया हो ॥ कर्म हटाइ Lal केवल पाइ । मुक्ति गैया हो ॥ ला०॥ १८ ॥ सतीयों ऊंचे स्वर्ग सिधाइ । थोडे | 4 भवे मुक्ति पाइ हो ॥ जन्म सफल जो आत्मा तरे । अवसरे भाइ हो ॥ ला०॥ १६ ॥ समकित उत्सव जय विजय रासे । पुण्य अधिकार खण्ड पहलो हो ॥ ढाल सत्ताइस नाना रसमय कीनो मेलो हो॥ गुरु प्रसादे कहे अमोलक । पुण्य का संचय - करीये हो ॥ तो जय विजय कुमर के जैसे । सुख शीघ्र वरीये हो ॥ला०॥२१॥ ॐ |॥ हरी गीत छन्द ॥ श्रीसमकितोत्सव सर्व सुखकर पुण्य फल दशाइया ॥ जय विजय दोनों पुण्य प्रतापे । अखूट ऋद्धि सुख पाइया ॥ ऐसा जाण सुखार्थि प्राण निर्वद्य पुण्य संग्रह करो।कहे अमोलक तस पसाये, धर्मकर शिव सुख वरो॥१॥ ॥ परम पूज्य श्रीकहानजी ऋषिजी महाराज के सम्प्रदाय के बाल ब्रह्मचारी मुनिश्री अमोलक ऋषिजी महाराज रचित-समकितोत्सव-जय विजय चरित्र का पुण्य अधिकार नामक पूर्वार्ध खण्ड समाप्तम् ॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १० श्री सद्गुरुभ्यो नमः “समकितोत्सव” जयसेण विजयसेण चरित्र का सम्यक्त्व अधिकार नामक द्वितीय उत्तरार्ध खण्ड प्रारंभ ॥ दोहा ॥ प्रणमुं सिद्ध साधु चरण । सरस्वति गुरु पाय ॥ विघन हरे मङ्गल करे । द्वितीय खण्ड वरणाय ॥ १॥ समकित मूल धर्म वृक्ष का । व्रत शाख कीर्ती पान ॥ यश कुसुम फल मोक्ष दे। अाराधे मति मान ॥ २॥ विजयसेण सम्यक्त्व द्रढ । पाली संकट मांय ॥ गृहेवासे केवल लही । पाये सुख शाश्वताय ॥ ३ ॥ ऋद्धि बृद्धि हुइ बहू । यशः सुख विस्तार ॥ प्रमाद तजी चित्त चटक धर । कथो सुणो धर्म धार ॥ ४॥ जय नृपति । करे राज वर । विजय अनुज्ञाये रेय ॥ प्रीति पयोदक सारखी। अन्तर छे फक्त देय ॥ ५ ॥ वीता बहूत काल वृत ते । ऐसी तरह सुख पाय ॥ एकदा विजय है। कुमार ने । पश्चात् स्मरण श्राय ॥६॥राज देइ सचीव को। में लुब्धा यहां प्राय॥ || अब शीघ्र जाकर तहां । संतोषु परजा तांय ॥ ७ ॥ॐ ॥ ढाल १ ली ॥ सैयां ये । । मोय डररे लगो उस दिन को ॥ यह० ॥ सुणोजी भाइ विजय चरित्र सुखकारी॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १०२ टेर ॥ प्रात समय श्री विजय भूपति । करी शृंगार शोभारी ॥ सु० ॥ १ ॥ प्रेमोत्सुक विनययुत कहे जय से । कामपुरे रहवा हुइ इच्छारी ॥ सु० ॥ २ ॥ इच्छा होवे सो हुकम फरमावो । हूं इच्छु आज्ञा तुमारी ॥ सु० ॥ ३ ॥ जाण चातुर तस मधुरा वदे जय । कीजे जो तुमे सुखकारी ॥ सु० ॥ ४ ॥ सुणी हर्षाया लस्कर सजाया । खेचर भूचर तेही वारी || सु० ॥ ५ ॥ बन्ध्वादि सब जन ने संतोष्या । साथ लीनी तीनों नारी ॥ सु० ॥ ६ ॥ शुभ मुहूर्त प्रयाण कीया सब ! सुखे मुकाम करतारी ॥ सु० ॥ ७ ॥ श्राया कामपुर ढिग जाणी प्रजा । हर्षित हुइ अपारी ॥ सु० ॥ ८ ॥ पुर सिणगारा स्वर्गपुरी सम | आये सन्मुख सज थारी ॥ सु० ॥ ६ ॥ लेगये बधाइ विजय भूप तांइ । मोतीयन मेह बर्षारी ॥ सु० ॥ १० ॥ सपरिवारे सुखे रहे विजयजी | कामही पुर के मझारी ॥ सु० ॥ ११ ॥ बन्धु वियोग खटके जयजी चित्त । मिलण मन उमंगारी ॥ सु० ॥ १२ ॥ नयधीर को राज संभलाया । दीनी सब मुक्त्यारी ॥ सु० ॥ १३ ॥ निज परिवार सम्पति सर्व Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ জৰি| लेइ । काम पुरे चाल्यारी ॥ सु० ॥ १४ ॥ सुणी विजयजी अति हर्षाया । शोभा । सर्व सजारी ॥ सु०॥ १५ ॥ सन्मुख अाइ भाइ बधाइ । पुर प्रवेश करारी ॥ सु०। N॥ १६ ॥ एकही स्थान गुलतान प्रेमे हो । रहे सुखे स्वेच्छाचारी ॥ सु० ॥ १७ ॥ यथा उचित काज करे उमंगे। राज भोग सम्बदारी ॥ सु० ॥ १८ ॥ बात विनोदे | एकदा चोजे । अापस मांहे उचारी ॥ सु० ॥ १६ ॥ निर्थक बैठा काल जाय यों। करां कछु नामनारी ॥ सु० ॥ २० ॥ ज्यों बल ऋद्धि पाइ प्रसिद्ध होवे । छटा देखां विविध प्रकारी ॥ सु० ॥ २१ ॥ दिग विजय करने उमंगाना। करी सब फोज तैयारी ॥ सु० ॥ २२ ॥ रोहणी प्रज्ञाप्ति आदि विद्या । साधी शीघ्र आवे काममारी ॥ सु० ॥ २३ ॥ मणी औषधी लीनी साथे । कसर न रखी जान मारी ॥ सु० ॥२४॥ महा ऋद्धि महा युति महा बल संग। चले नगारा घोरारी॥सु०॥२५॥ अनुक्रमे सब राय वस्य कर्ता । शक्ति से भक्ति वृत्तारी ॥ सु० ॥ २६ ॥ गंग सिन्धु खण्ड दोनों साध्या । वैताब्य लग मही सारी ॥ सु० ॥ २७ ॥ तृप्त्या मन दोनों Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १०४ बंधव का । त्रिखण्डे आण फिरारी ॥ सु० ॥ २८ ॥ नाना विधी ऋद्धि सिद्धी ले । पाछा सहु पलट्यारी ॥ सु० ॥ २६ ॥ उत्सवे प्राया काम पुरे सहू । सहश्र सोले राय परवारी ॥ ० ॥ ३० ॥ कामपुर का नाम बदल कर । विजयपुर नाम स्थाप्यारी ॥ सु० ॥ ३१ ॥ सब नृपत करीया विदा तब । यथा योग रीति सतकारी सु० ॥ ३२ ॥ हरी हलधर सी जोड दोनों की | कीर्ती जग विस्तारी ॥ सु० ॥ ३३ ॥ यह पुण्य कथा दोनों की गाइ । अब कहूं धर्म कथारी ॥ सु० ॥ ३४ ॥ उत्तरार्ध अधिकार प्रथम ढाल | संक्षेप अमोल उचारी ॥ सु० ॥ ३५ ॥ * ॥ दोहा ॥ ते काले मही मण्डले । गुण कर ऋषि सर्वज्ञ || लाभ स्थानक सो विचरते । तार ते जीवों बहु अज्ञ ॥ १ ॥ भव्य पुण्योदय यवीया । विजयपुरी के बहार ॥ उतरे वनपाल रजा लइ । विजय उद्यान मझार ॥ २ ॥ माली हर्षी सज हुइ । नृपति सभा में आय । अंजिल युत बधाइ दे । ये सर्वज्ञ महाराय ॥ ३ ॥ नृपादि सु आन्दिया । सिंहास से उतर ॥ तहां से वंदन करी मुनि भी । प्रेमोत्सुक Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० | हो उर ॥ ४ ॥ अर्धवारे कोड हीरण तणी। माली को बक्साय ॥ वस्त्रा भूषणे ।। तोषे तस । कीधो ताम वीदाय ॥ ५॥ ॥ ढाल २ री ॥ बन्धव बोल मानो | हो ॥ यह ॥ सर्वज्ञ मुनि आगम लखी। दोनों भूप हर्षाया हो ॥ धन्य दिन है ।। Pाज को । रोम २ विक्साया हो ॥ भविक समकित पाराघो हो ॥ आराधे सुर तरु जिसी । अात्म कार्य साधो हो ॥ भविक ॥१॥ सेना सजन सहू सज किया। विधी वंदन चाल्या हो॥ पुरजन जनी वहू तंघहुवा । जतना से हाल्या हो॥ भ०॥ | २॥ देखी मुनि वाहण तज्या । मुख यत्ना कीनी हो । तिखुत्ता विधी वंदन कियो। | मति गुण रंग भीनी हो ॥ भ० ॥ ३॥ यथा योग्य वैठा सहू । ज्ञान सुणन का M रसीया हो ॥ परोपकारी मुनिवरा । बोधन तर चसीया हो ॥ भ० ॥ ४ ॥ अहो * भव्यो इन अात्म ने । भव भ्रमण के मांही हो ॥ अनन्त पुद्गल परावृतीया। दुर्लभ । देही पाइ हो ॥ भ०॥ ५ ॥ उपना क्षेत्र आर्य विषे । उत्तम कुल अवतारो हो । । आयु दीर्घ पूरण इन्द्रिय । देही निर्विकारो हो ॥ भ० ॥ ६॥ मिल्या निम्रन्थ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० गुरु गिरवा । जिन वाणी सुणीज्यो हो ॥ श्रद्धो परतीतो रोचवो । करणी शक्ति | थुणी जो हो ॥ भ० ॥ ७ ॥ धर्म मूल सम्यक्त्व है। शुद्ध श्रद्धा धारो हो ॥ - परम दुर्लभ जिनवर कही । पाया भवो दधि पारो हो ॥ भ० ॥ ८ ॥ स्वल्प | क्रिया श्रद्धा सहिता होवे महाफल दाता हो । अभव्य तपी श्रधा वीना । अनन्त । 1. संसारी रहाता हो ॥ भ० ॥६॥ नक विना चन्द्राननी । चन्द्र विन जिम रजनी हो ॥ रस वती सब रस बिना। बिन प्रीति ए सजनी हो ॥ भ० ॥ १०॥ जिम एता फीका लगे। तिम धर्म की करणी हो ॥ श्रधा विना निसार है। M नहीं पार उतरनी हो ॥ भ० ॥ ११ ॥ इण कारण धर्म इच्छु ओं। प्रथम IN खेत सुधारो हो ॥ शुद्ध होइ समकित लइ । धर्म बीज फिर डारो हो ॥ * भ०॥ १॥ व्यवहारी समकिती पहिले बनो । सत सठ गुणवन्ता हो ॥ परमार्थिक परिचय करो । परमार्थ वरन्ता हो ॥ भ० ॥ १३ ॥ वमनी पाखण्डि संग तजो। यह चउ श्रद्धा धारो हो ॥ क्षुधित भक्ष कामी कामीनी । सेवे ज्ञानी ज्ञान वारो Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० हो ॥ भ० ॥ १४ ॥ ये तीन लिंग ज्यों जिन बचने, द्रढ़ प्रीति धरी हो ॥ अरि- !! १०७ । हंत सिद्ध सूरी ज्ञानी । मुनि तपी संघ चारो हो ॥ भ० ॥ १५ ॥ कुल गण ने | क्रियावन्त का । नित्य विनय करीजे हो ॥ त्रियोग शुद्ध जिनमति तणा । गुण हृदय धरीजे हो ॥ भ०॥ १६ ॥ शम सम्वेग निर्वगता। अनुकम्पा प्रास्ता हो। | यह लक्षण ने धारता । मिले सुख शाश्वता हो ॥ भ०॥ १७ ॥ शंक कांक्षा वितिगिच्छा । पाखण्ड परसंसा हो ॥ परिचय तजे पाखण्डि का । दोष पंचहिंसा हो ॥ भ०॥ १८ ॥ क्षमाधैर्य गुणज्ञता । धर्मी भक्ति उन्नती हो ॥ भूषण पंच धारण करे । जो नर समकिती हो ॥ भ० ॥ १६ ॥ सूत्रज्ञ बोधक वादी जय । त्रिकालज्ञ * तपसी हो ॥ प्रसिद्धवति बुद्धवन्त कवी । प्रभावक दिपसी हो ॥ भ० ॥ २० ॥ राजा बली गुरु न्यात ने । देव मरण संकटे हो ॥ दोष लगे जो समकिते । प्रा. गार छे दंटे हो ॥ भ० ॥ २१ ॥ बोलाया विन बोलाया ही । बोले धर्मी से जाइ । हो ॥ दान मान वंदन नमन । छे यत्ना कराइ हो ॥ भ० ॥ २२ ॥ मूल कोट Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० | १०८ नीम करंडीयो । हाट भाजन जैसी हो । धर्म की समकित गिणे । छे स्थानक ऐसी हो ॥ भ० ॥ २३ ॥ श्रात्मा है सदा शाश्वती । कम करती भुक्ति हो ॥ भा - वना निश्चय ये रखे । त्रिरत्ने मुक्ति हो ॥ भ० ॥ २४ ॥ यह व्यवहार सम्यक्त्व | सत सठ गुण पावे हो ॥ भावे अनन्तानुबन्धि चौकडी । त्रिमोह क्षपावे हो ॥ भ० ॥ २५ ॥ तदेव निग्रन्थ गुरु । दया धर्म व्यवहारे हो || देवात्म गुरु ज्ञान ने । धर्म शुद्ध भाव धारे हो || भ० || २६ || सम्यक्त्व धर्म द्रढाववा । देशना ये फरमाई हो || खण्ड दूजे ढाल दूसरी । ऋषी अमोलक गाइ हो ॥ भ० ॥ २७ ॥ * ॥ दोहा ॥ श्रोता ऋप्त्या सम्यक्त्व सुधा । अत्यन्त आनन्द्या मन || अपूर्व भाव श्रवणे हुवा | आज दीहाडो धन || १ || राजेश्वर जय विजय युग । पाया ही प्रकाश ॥ उत्सुक हो लुली २ नमी । प्रणम्या करे अरदास || २ || स्वामीजी कृपा करी । कहो भवन्तर विध || संजोग वियोग हम किम लीयो । कैसे मिली यह रिद्व ॥ ३ ॥ उपकार कारण जाके । श्री सर्वज्ञ भगवन्त ॥ पूर्व भव जय Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि विजय को । देखा जैसा कथन्त ॥ ४ ॥ करणी भरणी विश्वमे । ले दे सके कोइ नाय ॥ प्रत्यक्ष देखीये पारखा । नृपादि सर्व सभाय ॥ ५ ॥ॐ ॥ ढाल ३ री॥ जय जिनराया २ ॥ यह० ॥ सुणो सुणो भाइ २ । पूर्व भवों की सुकृत्य कमाइ ॥ सुणो ॥ ॥ भूतिलकपुर नगर भलेरो । धन धान्य ऋद्धि सुख घणेरो ॥ सुणो 2॥१॥अरी जय भूप रुधारणी राणी । बुद्धि विजय प्रधान गुण खाणी ॥१०॥ २॥ तहां रहे ऋद्धिवन्त व्यापारी । भानु भमर नामे भाग्य धारी ॥ सु०॥३॥ AN श्राद्ध पक्ष पर्व एकदा आया। जीत व्यवहारे भुक्त निपाया ॥ सु०॥ ४ ॥ तात । | तिथी होती ते दीहाडे । मित्र स्वजन भिक्षुक जीमाडे ॥ सु० ॥ ५॥ क्षीर पुरी रसवति जीमावे । तब श्वानी एक तहां चल पावे ॥ सु०॥६॥ परमानन्दो भाजN ने मुख डाला । देखा दोनों भाइ शेशे हुवा काला ॥ सु०॥७॥ जेष्टिक सजोर । कम्मरे मारी । धरणी पडी मूर्छित तेवारी ॥ सु०॥ ८॥ तब एक भेंसो दोड तहां आयो । दुर्बल थाक भूखे घबरायो ॥ सु० ॥ ६ ॥ पाडो कुत्ती दोनों रोने लागा। Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० ज०वि० पूर्व भव का नेह तस जागा ॥ सु० ॥ १०॥ नरवाणी से म्हेसो उचारे। देखे ताक Iसब आश्चर्य धारे ॥ सु०॥ ११ ॥ सुणे पण पूरी समझ न पावे । भेद जाणन सबी के मन चावे ॥ सु०॥ १२ ॥ भव्य भाग्ये श्रुत केवली अाया। देखी सर्व अति । हर्षाया ॥ सु० ॥ १३ ॥ भानु भमर लुली वंदना कीनी । शुद्ध भिक्षा उलट भाव से दीनी ॥ सु०॥ १४ ॥ फिर कहे कृपा करी प्रकाशो । अपूर्व अाज यह देखो तमासो ॥ सु०॥ १५ ॥ पूर्व ज्ञाने उपयोग लगाइ। कहे मुनि सुनो कर्म कथाइ ॥ सु० ॥ १६ ॥ पाडो पिता कुत्ति तुम माजी । जिसका आज यह श्राद्ध कियाजी ॥ | सु०॥ १७ ॥ सात भवों से प्रीति इनकी जाणो । भवोभव पाइ ऐसी हाणो ॥ सु० । ॥ १८ ॥ महा मिथ्यात्व पाया विखवादो । हुवा दुर्बल बोज तुम लादो ॥ सु०॥ १६ ॥ निजके कामे निज पीडाणो । सुणी नाम इहापो लगाणो ॥ सु० ॥ २० ॥ | अकाम कर्म लहूथैया। जाति स्मरण ज्ञान दोनों लैया ॥ सु० ॥ २१ ॥ कहे भेंसो कुत्ति नारी तांइ। धिक्कार पडो ये पुत्र कमाइ ॥ सु० ॥ २२ ॥ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि १११ आपणे नामे भोजन निपजाया । लादी लाय मुझ जरा न चखाया ॥ सु०॥ I २३ ॥ ये क्षीर खाइ कम्मर तोडाइ । दोष ने किनका स्वकर्म कमाइ ॥ सु०॥ 11 २४ ॥ ये दोनों ऐसी कर रह्या बातां । रखे संशय तुम जरा मन लाता ॥ सु०॥ २५ ॥ निधान बतावे पाडो तुम तांइ । तो सत्य ये समझ जो भाइ ॥ सु०॥ | २६ ॥ पाडे गौशाला पग थी कुचरे । खोदी देखे भानु द्रव्य निसरे ॥ १०॥२७॥ परतीत अाइ सत्य बात जणाइ । भानु संतोष्या दोनों के ताइ ॥ सु०॥ २८॥ 2. दोनों तिर्यंच मिथ्यात्वछिटकाइ । मुनि बोधे सम्यक्त्व पायाइ ॥ सु० ॥ २६ ॥ और घणा जन धर्म ने धार्या । मुनि उपकार करीने पधार्या ॥ सु० ॥३०॥ ढाल तीसरी अमोलक गाइ । सत्संगति महालाभ दाताइ ॥ सु०॥३१॥ॐ॥दोहा॥ 1 भमर भानु दोनों मिली । कर तिर्यंच की सेव ॥ खान पान वत्थ भूम से । पोषे तस अहमेव ॥ १ ॥ तीर्यच दोनों ज्ञानवन्त । पाले सम्यक्त्व शुद्ध । यथा उचित करणी करे । धर्म में प्रेरी बुद्ध ॥ २॥ आयु अन्ते अणसण करी । प्रथम स्वर्ग Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ११२ ॥ मझार ॥ देव देवी पणे ऊपना । जाणी ज्ञान मझार ॥ ३॥ तत्क्षीणे आइ पुत्र पे। देखाइ निज रिद्ध ॥ सम्यक्त्व धर्म पसाये मे । डून्या तिरे यह विध ॥ ४ ॥ प्रत्यक्ष फल देखी धर्म का । धर्मी हुवा घणा लोक । सुरसुरी स्वर्गे गया । भोगवे पुण्य का थोक ॥ ५ ॥ 8 ॥ ढाल ४ चौथी ॥ मानव जन्म २ रत्न तेने पायोरे ॥ यह० ॥ समकित रत्न २ सदा सुखदाइजी । धारो भव्य हुलसाइ ॥ स० ॥ टेर ॥ । भमर भानु धर्म पाप फल देख्या । प्रत्यक्ष परिचय लेख्याजी ॥ अति चित्त हर्षाया। धन्य २ मुनिराया । सुख पन्थे लगाया ॥ सम ॥ १॥ अति दुर्लभ येह अवसर पायो । लेवां लावो चित्त चायोजी ॥ यों धरी उत्साहो । शुद्ध सम्यक्त्व गाहो । | ले व्रतादि लाहो ॥ स०॥ २॥ दान देवे पर्वे शील पाले । तप करे धर्म उजमालेजी। पण कर्म गति भारी । वक्ते फिरे अाडी पारी । देवे बुद्धि बिगाड़ी ॥ स०॥३॥ मन मांहें धर्म जाणे साची । प्रमाद बध्यो पड्या काचाजी । भोग || सुखे ललचाइ । रह्या मोह मुरझाइ । करणी करी ढीलाइ ॥ स०॥ ४ ॥ मुनि Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ অমি दरशण करवा न जवाइ । तो धर्म श्रवण कैसे थाइजी ॥ हे समकित सेठा रहो ११३ | घर माहे बेठा । करे अन्य से खेटा ॥ स०॥ ५ ॥ दोनों भाइ के दो दो लुगाइ। तासही धर्म समझाइरे ॥ सुसंगति मे लगाडी । धर्म ज्ञान सिखाडी । करी समकित में गाडी ॥ स०॥ ६ ॥ उन २ दोनों बाइ के दो दो सहेली । तास ते धर्म है में भेली जी ॥ ते पण होगइ शाणी । सत्य जिन मार्ग को जाणी। धर्म प्रात्म से भी जाणी ॥ स० ॥ ७॥ एकदा कोइ पाखण्डी आयो । भानु संग विवाद मचाM यो जी। तेथो कपटी पूरो ॥ जैसो सहेत को छुरो । करी चरचा कूरो ॥ स०॥ ८॥ जिन बचने शंका भानू ने भाइ । पण किसी को नहीं जणाइजी ॥ नहीं परशंसे निन्दे । नहीं वन्दे निकन्दे । मन में रख्यो सन्दे ॥ स० ॥ ६ ॥ केताक काले ते विसराई । फिर जोग बण्यो तैसो आइजी। फिर शंका भराइ ॥ यों तीन वार भराइ । गया कर्म बन्धाइ ॥ स०॥ १० ॥ एकदा जेष्ट भानुनी नारी। ऊभी । थी घर द्वारीजी ॥ तहां प्राइ मेतराणी । बोलावे सेठाणी । कोह कार्य प्रेराणी Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ११४ ॥ स० ॥ सुण शेठाणी गुमराह भराणी । बोले जेहसे ताणीजी ॥ तूं नीच जात नारी । हम संग नहीं करां थारी । बोलत यावे लज्जारी || स० ॥ १२ ॥ नित्य लेजावे तूं शुचि बुहारी | क्या करे बरोबरी म्हारीरी । इम बहू धिकारी । मन मत्सर भरारी । नीच गोत्र बन्ध्यारी ॥ स० ॥ १३ ॥ पाली समकित निर्मल सबही । श्रायु अन्त लयो जबहीजी ॥ प्रथम स्वर्ग मझारी । देव देवी ऊपनारी । ऋद्धि पुण्यानुसारी ॥ स० ॥ १४ ॥ श्रायुपल्योपम पूर्ण कराइ | यहां बाइ सहू मिल्याइजी ॥ भानु जय नृप थइया । भमर विजय लघु भैया । पूर्व प्रेमे लुब्धैया ॥ स० ॥ १५ ॥ तीनों तत्व तुम शुद्ध प्राराध्या । ता पुण्य त्रिखण्ड साध्याजी । तीनों रत्न पायाइ || मणी औषधी मंत्र तांइ । ए कुछ धर्म पल्याई ॥ स० ॥ १६ ॥ भानु जिन वचने शंक लाया । जयजी तीन वक्त दुःख पाया जी । भमर की शुद्ध श्रधा । तो नहीं पाइ बाधा । संच्या सम सुख लाधा ॥ स० ॥ १७ ॥ कुल मद कीनों स्वरूपां बाइ । तेहसे वेश्या घर जाइ जी । कामलता कहाई ॥ पूर्व प्रेम Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ११५ आकर्षाई । मिल्या जयजी आइ । हुई पक्की सगाई || सं० ॥ १८ ॥ और सज्जन मिल्या सब भाइ | न्यारा २ दीना बताइ जी । सुणीयों जिन वाणी । इहायों करे सब प्राणी | बात सेन्दी लगाणी | स० १६ ॥ मति ज्ञानावरण कम थैया । जाति स्मरण ज्ञान लैया जी ॥ सुणी जैसी जाणी । प्रति ही ये हर्षाणी । द्रढ सम्यक्त्व ग्रहणी ॥ ० ॥ २० ॥ श्रावक का व्रत सब आदरीया । शभा सौगन बहु करीया जी ॥ ढाल चतुर्थी थाइ । ऋषि अमोलक गाइ । धर्म सदा सुखदा ॥ सम ॥ २१ ॥ * ॥ दोहा ॥ श्री जिनजी रहे तहां लगे । सेवी विजय राजान ॥ तत्वार्थ धारण किया । निसंशय मतिमान ॥ १ ॥ जिनजी विचरे जिन पदे | तर विजय राजान || अमरी पडह बजावीयो । तीनों खण्ड के म्यान ॥ २ ॥ नवकार आवे जेहने तास माफ कीयो दाए || ज्ञान शाळा सहू स्यात कर । धर्मो न्नति मंडाण || ३ || धर्म अर्थ काम सेवता ऊपना नन्दन तीन ॥ नन्द आनन्द सुन्दर श्री । कीया धर्मार्थ प्रवीन ॥ ४ ॥ धर्मे जग मंडण करो | रहे सहू सुख Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ११६ पाय || अब परिक्षा सम्यक्त्व की । जिनेन्द्र सुरेन्द्र कथाय ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ५ मी ॥ अंजनाजी के रास की देशी में || तोजी महा विदेह क्षेत्र के विषे । चोथो आरो सदा रह्यो वरतायतो || विजय पुष्कलावति शोभती । तहां विचरे सिमन्धर जिनराय तो ॥ सर्वज्ञी सर्व दर्शनी । सुरेन्द्र नरेन्द मुनिन्द्रे पूजाय तो ॥ देशना सुन को आवया । सुधर्मा स्वर्ग पति एकदाय तो ।। समकित की महिमा सुणो ॥ १ ॥ शक्रेन्द्र दाहिण दिगपति । भरत क्षेत्र पर अति अनुराग तो ॥ प्रश्न पूछे नमन करी । मुझ को फरमावो अहो वीतराग यतो । इस काले को भरत में | है धर्मात्मा ऐसो महा भाग्य तो । पाले सम्यक्त्व निर्मली । प्राणान्त न लगावे जरा दाग तो ॥ सम ॥ २ ॥ वागरे जिन विजय पुरपति | विजयराय शुद्ध सम्यक्त्व जाणतो | देव दानव चला न सके । न लगावे दोष जावे कदा प्राणतो ॥ कुदेव गुरु इच्छे नहीं । शंका कंखा कोइ न शके आए तो । यों सुणी हर्ष्या देविन्द्रजी । वन्दी स्वर्ग गया बैठ विमाण तो ॥ सम ॥ ३ ॥ सुधर्मी सभा Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । सिंहासणे । बेठा करता सोही विचारतो । सुर सभा भरी ता समे। त्रय त्रीसक सामानिक अष्ट पटनार तो । आत्म रक्षक तीनों परिषदा । अणिकपति | प्रकीर्ण अपार तो ॥ उत्सहा प्राणी माधवजी। सब सुरों से यों करे उचार तो ॥सम ॥ ४॥ धन्य भाग्य भरत भूमी तणो । तहां रहे नर त्रिजग सिणगार तो। । विजयपुर पति विजय भूपसा । परम विशुद्ध समकित पालनार तो। देव दानव नहीं छल सके। शंका कांक्षा घाली सके न लगार तो। जास परसंस्था जिन मुख तास हो । जो महारा नमस्कार तो॥सम॥५॥ सब सुर नमन कियो तदा।। N पण एक मिथ्यात्वी सुर तस म्यान तो। धर्मी नर नी महीमा सुणी । तस मन || दुख पायो असमान तो ॥ चिन्ते भोला शुचिपति। निरर्थक नर का करे गुणगान || तो । सामर्थ है कोण देव सम । जो चला देवे भूगिरी स्थान तो ॥ सम ॥ ६ ॥ तो क्या कथा मानवी तणी। पण कहूं तो अबी नहीं माने बात तो । सब हंसी । करे माहेरी । करी बताउं येही साक्षात तो ॥ सम ॥ चलित करुं विजयराय ने । । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ११८ तोही सुर मुझ नाम कहात तो ॥ यों अभिमान निश्चय करी । तत् क्षीण चल कर भरत में यात तो ॥ सम ॥ ७ ॥ समण भूत प्रतिमा धारी । चुलक श्रावक का रूप बनाय हो। निर्ममत्व अल्प परिग्रही । सर्व शास्त्र को जाए कहाय तो ॥ जाणे दुक्कर क्रिया तप करी । हाड पिंजर कियो ऩन सुकायतो ॥ डम्बर अधिको करी । " जैन पण्डित” नाम प्रसिद्धी पाय तो ॥ सम ॥ ८ ॥ ग्रामादि में विचरता । बहू मण्डाणे विजयपुर प्राय तो ॥ सुणी श्रावक घणा हर्षीया । वन्दे नमें धर्म स्थानकलाय तो ॥ इर्या सोधत चालता । आया नृप पोषध शाल माय तो ॥ लेइ रजा तिहां उतरीया । दया क्षमा शील शुद्ध जाय तो ॥ सम ॥ ६ ॥ लोलपी नहीं रसना तणा । भिक्षावृति से लेवे लुख सुख आहार तो ॥ उदेशीक नित्य पिण्ड वर्जता । ऐषणा अधिक कठिण आचार तो || सद्बोध करे विविध परे । गहन शास्त्रार्थ करे विस्तार तो ॥ हेतु कथा से रुचावइ । गावे रास रागे ललकार तो ॥ सम ॥ १० ॥ परिषद घणी अकर्षावर । त्याग प्रभावना होवे उपकार तो Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ ज०वि०|| विजयराय सुण हर्षीया । मिलण अाया पौषध शाल मझार तो ॥ सुखशाता पूछ | विराजीया । ते भी सुख पूछे मधुर उचार तो ॥ लोक प्रसंस्या करे घणी । ते निजात्मने देवे धिक्कार तो॥ सम ॥ ११ ॥ ज्ञान क्रिया व्यवहार शुद्ध । उपकारी गुणी नृप तस जाण तो ॥ राख्या तहां अग्रह करी । वृद्धि करण सुकृत्य धर्म ज्ञान तो॥ आप भी आवे को अवसरे । धर्म चरचा करे करे पेछान तो ॥ बुगला | - भक्ति थी जनघणा । मोहाया करे सेवा सन्मान तो ॥ सम ॥ १२ ॥ माया वीछले । सर्वज्ञ को । तो अन्य की क्या कथा कहाय तो ॥ गुणानुरागी रीजै गुण लखी। छद्मस्ताते जेता जणाय तो ॥ पंचमी ढाल अमोलक कथी । श्रोता सुणो आगे चित्त लगाय तो । अद्भूत रचना रचे असुर ते । विजय निकन्दे मिथ्याकन्द तांय | तो ॥ सम ॥ १३ ॥ ॥ दोहा ॥ विजयराय निजवस्य करण । देवते रचे उपाय॥ गुप्त रूप श्रुत केवली ढिग । रही ज्ञान धार अाय ॥ १ ॥ गहन रेश शास्त्रज तणी । एकान्त नृपने बताय ॥ प्रश्नोत्तर करे रायजो। ते भी तैसी पूछ प्राय ॥२॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १२० पूर्व लाभ ज्ञान को लही । श्रानन्दे राजान || अहोनिश तस सेवा करे । सुर नहीं दे पहचान ॥ ३ ॥ काल बहुयों वीतीयो । प्रतीत्या भूपाल ॥ विनीत शिष्य परे देवना । बचन करे अंगीकार ॥ ४ ॥ निज वस्य भयो जाणी रायने । साधन इष्ट तेवार ॥ विरूधा चरण करे देवता । ते सुणो सुज्ञ नरनार ॥ ५ ॥ * ॥ ढाल ६ ठी । आठ कूवा नव बावडी ॥ यह० ॥ श्रावक कहे सुणो चित्त दे || राजेश्वरजी ॥ जैनधर्म श्रेयकार || अहो धरणीधरजी ॥ पण नमिलती कथनी घणी ॥ राजेश्वरजी ॥ अव ते में करूं उचार ॥ ग्रहो धरणी धरंजी ॥ १ ॥ सिद्ध अनन्ता होगया || राजे• ॥ हुवे है होस अनन्त ॥ अहो घ० ॥ जीवरासी संसारी जी ॥ राजे• ॥ कदापि नहीं घटन्त ॥ अहो ध० ॥ २ ॥ राय कहे तुम सालो ॥ ये श्रावकजी || श्रीमत तहामेव सत्य ॥ अहो सुणो श्रावक जी ॥ व्यवहार व्यवहार रासजी ॥ सुणो श्रा० ॥ दोषरुपी जिन गत ॥ अहो सुणो ॥ ३ ॥ अव्यवहार रासी से नीकली ॥ सुणो ॥ व्यवहार रासी Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० | जो प्राय ॥ अहो ॥ तास संख्या ए जिन कही ॥ सुणो ॥ ते कमी नहीं थाय ॥ अहो ॥ ४॥ जितने जीव शिव पद लहे ॥ सुणो ॥ तितने व्यवहारी होय ॥ | अहो ॥ अव्यवहार अनन्त सदा रहे ॥ सुणो ॥ सर्वज्ञ रहे सब जोय ॥ अहो ॥ | ५ ॥ भेषधारी देवता कहे ॥ राजे ॥ साधु महाव्रत के धार ॥ अहो । तीन करण | तीन जोग से ॥ राजे ॥ जीव हिंसा परिहार ॥ अहो ॥ ६॥ करे गमनागमन नदी उतरे ॥राजे ॥ तहां निश्चय जीव हणाय ॥ अहो ॥ अाशा दी जिन एह| वी ॥ राजे ॥ विरुद्ध प्रत्यक्ष यह देखाये ॥ अहो ॥ ७ ॥ भूप कहे नहीं संकीये ॥ सुणो ॥ प्रभु मत दोय प्रकार ॥ अहो ॥ उत्सगेरु अपवाद छ ॥ सणो ॥ उत्सर्ग में यह निवार ॥ अहो ॥८॥ अपवाद को प्रायश्चित लहै ॥ सणो॥ कारण रु करण उपकार ॥ अहो ॥ अटका काम चालण कया॥ सुणो ॥ पण हिंसक आज्ञा | मधार ॥ अहो ॥६॥ जैसे पिता कहे पुत्र ने ॥ सुणो ॥ मत कर ख्याल कि तोल ॥ अहो ॥ जो न रह्यो जावै तुझथी ॥ सुणो ॥ तो एक घडी पर मत बोल Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সৰি १२२ । ॥ अहो ॥ १०॥ यह हेतु जिन पिता परे ॥ सुणो ॥ समण पूत्र सम जाण ॥ अहो ॥ नहीं निभे तो सो निभाववा ॥ सुणो ॥ अपवाद भाख्यो भगवान ॥अहो | ॥ ११ ॥ भेषधारी सुर किर कहे ॥ राजे ॥ लोटा घडा कूवा मांय ॥अहो॥ पाणी | के जीव असंख्य है ॥ राज ॥ सब बरोबर कैसे थाय ॥ १२ ॥ तर्क करी भूधव कहे ॥ सुणो ॥ ज्यों लाख औषधी का तेल ॥ अहो ॥ मासा तोला शेर मण । विषे ॥ सु० ॥ लाखही औषधी मेल ॥ अहो ॥ १३ ॥ अन्य हेतु वली यह है ॥ N| सु० ॥ एक दश सत सहश्र लाख ॥ अहो ॥ सब ही संख्याता सब कहे ॥ सु०॥ तैसे असंख्याता भाख ॥ अहो ॥ १४ ॥ सुर यइ श्रद्धि सबे ॥ रा०॥ पण पंचास्ति काय ॥ अहो ॥ तास आधार सब जीव ने ॥ रा०॥ चल स्थिर विकाश क्षय जाय ॥ अहो ॥ १५ ॥ तेतों दृष्टी अावे नहीं ॥ सु०॥ ते कैसी तरह से मनाय ॥ अहो ॥ नरेन्द्र कहे जिन बचन में ॥ सु० ॥ फरक पाव रति नाय ॥ अहो ॥ १६ ॥ अरुपी सो कहे सूत्रमें ॥ सुणो ॥ सो निजरे कैसे प्राय ॥ अहो ॥ पण म Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १२३ रूपी काय वर्णादियुत ॥ सुणो ॥ दृष्टि न आवे वाय ॥ अहो ॥ १७ ॥ श्री जिनेश्वर के वचन में ॥ सुणो ॥ शंका का नहीं काम ॥ अहो || झूठो लवे किस कार - ॥ सुणो ॥ जिन तजी सब हाम ॥ अहो ॥ १८ ॥ शंका तहां सम्यक्त्व रहे नहीं ॥ सुणो ॥ कहाचरांग मझार ॥ अहो || जो बात कोइ नहीं जचे ॥ सुणो ॥ तो निज मति खामी धार ॥ अहो ॥ १६ ॥ अजाण मोल जवेरात को ॥ सु० ॥ माने जोहरी करे तेम ॥ अहो | अल्पज्ञ जिनोक्त सब बात ने ॥ सुणो ॥ साची श्रद्धेही तेम ॥ अहो ॥ २० ॥ यों सुए सुर शरभावीयो ॥ श्रोता जन हो ॥ ट्टी ढाल के मांय ॥ अहो श्रोता जन हो । अमोल कहे धन्य जे नरा ॥ श्रोता ॥ संवादे मिथ्या हराय ॥ अहो श्रोता जन हो ॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥ ज्यों महा मयंगल मद बक्यो । सूंडा दंड प्रसङ्ग ॥ पंखंज खूता पंख ने विषे । खेची कहाडे उतंग ॥ १ ॥ कुंजर नृप मद ज्ञाना नन्द । वीतर्क प्रचंड सूंड ॥ संशय पखंथी ऊधर्यो । सम्यकत्व कुसुम सूतुंड ॥ २ ॥ त्रिदश चमक्यो चित्त में । जाण्यो नृप Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ परवीन ॥ शंकित कांक्षित न हुवे । लियो शुद्ध मत चीन ॥ ३॥ परन्तु प्रत्यक्ष | दाखवी । जैन की विपरीत रीत ॥ चलावू जो इण भणी। तोही महारी होवे / जीत ॥ ४ ॥ मिथ्या वचन सुरेन्द्र को । किया विना न जवाय ॥ यों द्रढता फिर INI चित्त धरी ॥ बोले सो सुणी वाय ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ७ वी ॥ सखी पणीया भ रन के साजाण ॥ विणजारा के राग में ॥ तुम सुणीयो जी राय हमारी । कोन - जैन धर्म शुद्ध धारी॥टेर ॥ भेप धारी सुर कहे मधु वाणी । धन्य तुमने जैनागम N रहस्य जाणीजी। जावू तुम बुद्धि की बलीहारी ॥ कौन ॥ १॥ जिन वचन सच्च | में श्रध्या । मुझ संशय आप सब मरद्याजी ॥ अपूर्व युक्ति जमारी ॥ कौ० ॥२॥ जैन मत सत्य जग मांही । अन्य नहीं इण सहीजी ॥ पण कौन सामर्थ्य पालवारी ॥ कौ०॥३॥ राय कहे चौसंघ अराधे । यथा शक्ति क्रिया सब साधे जी॥ | देखो साधुजी शुद्ध प्राचारी ॥ कौ० ॥ ४ ॥ महा व्रतादि क्रिया महा पाले । जिनाज्ञा प्रमाणे चालेजी । अन्यमत में न कोइ इसारी ॥ कौन ॥ ५ ॥ तब सुर Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि०। १२५ पर आश्चर्य धर बोले । तुम भूलो हो भाव भोलेजी ॥ सब साधु कपट भन्डारी ॥ कौ०॥६॥ वाह्य आडम्बर से राजी । माल खाइ करे देही ताजीजी । सब किरिया जाणो ठगारी ॥ कौ०॥७॥ रायजी कहे अरे मूंडा । ऐसा वचन म बोलो कूडाजी । इन से होवे अनन्त संसारी ॥ कौ०॥८॥ क्यों मुनि करे कपट | किरिया । जो ज्ञान गुणा के दरीयाजी ॥ लगी सुरत मुक्ति से एकतारी ॥ कौ० | ॥६॥श्राहार वस्त्र पात्र शुद्ध लेवे । निर्दोष स्थानक में रहवेजी। निकले छती ऋद्धि छिटकारी ॥ को० ॥ १० ॥ सुर कहे लोक देखावू छोडा । पण अन्तर मन नहीं मोडाजी ॥ गुप्त करे अनर्थ अपारी ॥ कौ०॥ ११ ॥ जो सरस ताजा माल खावै । देही लाल कुन्दासी बनावैजी । वै कैसे होवै ब्रह्मचारी ॥ को० ॥ १२ ॥ सधवीयां को भणावे । नारीयों को धर्म सुणावैजी । यह बात लो हीये विचारी॥ को० ॥ १३ ॥ भधव सुण ऐसी सुरवाणी । लियो ५ तारो तास पैठाणीजी । पण तोडे न जेष्ट मार्यादारी ॥ कौ० ॥ १४ ॥ कहे पापिष्ट ऐसा मत बोले । कौन जग Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १२६ . . में मुनिवर तोलेजी छत्ती त्यागी क्या करे इच्छारी ॥ को० ॥ १५ ॥ संयम निर्वाह वा तन पोषे । केइ तपस्या कर तन शोषेजी । ज्ञानी ध्यानी वैयावची उपकारी ॥ कौ० ॥ १६ ॥ खोटी दृष्टि कर नहीं देखे । नारी मात्र मा बेनकर लेखेजी । है साधुसति सच्चा ब्रह्मचारी ॥ कौ० ॥ १७॥ महासतीयों केई गुणवन्ती । सूत्रार्थ । गुरु मुख सीखंतीजी । तासो आप तिरे पर तारी ॥ कौ० ॥ १६ ॥ जे श्राविका । ज्ञान गुणवन्ती । ते केइक संयम आचरन्ती जी । केइ देवे सती सन्त ने सातारी । ॥ को० ॥ २० ॥ ज्ञान से गुण वृद्धि पावे । यों जाण मुनि पढावे सुणावे जी॥ पापी पाप धरे चित्त मझारी ॥ कौ०॥ २१ ॥ देव कहे में भी संयम पाल्यो। " वह्याभ्यान्तर भिन्न निहल्यो जी ॥ तहसे श्रावक भेष लीयो धारी ॥ कौ०॥ २२॥ | में कदापि न बोलू अठो। नहीं साधु पर में रुठो जी। जैसी देखी तैसी ऊचारी ॥ कौ० ॥ २३ ॥ जो भेला रहे सो जाणे । भोला भेदन सके पैठाणे जी । जो । । राखे शुद्ध व्यवहारी ॥ कौ०॥ २४ ॥ प्रथम परिक्षा कीजे । फिर ओलंभो मुजने Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १२७ दीजेजी ॥ में कर बतावुं परिक्षारी ॥ कौ० | २५ || कोइ आने दो साधुतांइ । में देस्यूं भेद बताइजी । भूपत ते बात न धारी ॥ कौ० ॥ २६ ॥ चुपचाप ऊठ मेहले आया || नहीं वैम जरा मन लायाजी । ढाल सातमी अमोल उचारी ॥ कौ० ॥ २७ ॥ * ॥ दुहा ॥ अमर अवलोयो ज्ञान से । नृपति मन विमल ॥ चटपटी लागी चित्त में । घालूं किस विध शल्य ॥ १ ॥ तासमें ताही विचारता । श्राचार्य कीर्ती विख्यात || देवशक्ति ता अवसरे । ताही को रूप बणात ॥ २ ॥ विहार करता आय के । उतरे बाग के मांय ॥ तपसं यम ज्ञान ध्यान में । निजात्म रहे भाय ॥३॥ सुणी हर्ष्या विजय राजवी । कहे श्रावक से प्राय । चालो वंदन ऋषिवरा । श्रावक कहे ति तां ॥ ४ ॥ विन परिक्षा नहीं वंदीये । राय कहे तज वैम ॥ प्रसिद्ध यह ऋषिवरा | चाले जिनेश्वर जैम ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ८ वी ॥ गफल मत रहेरे ॥ यह० ॥ जरा मत चलरे । मेरी जान जरामत चलरे || जैन जति सच्चे श्रद्ध लेना ॥ श्री जिन मत में दृढं रहणा ॥ जरा ॥ टेर ॥ चउरंगणी सेना सजवाइ । सब Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १२८ परिवार संग लीधाइ || श्रावकजी भी संग थाइ । ये सब बाग मझारे | पंच अभिगम योग्य धारे ॥ जरा ॥ १ ॥ सब मुनिवरों के तांइ । नृपादि सर्व वंद्याइ । ते श्रावक करडा रहाइ । वैठा सब गए योग्य स्थाने । उमंग मुनि वाणी सुणवाने ॥ जरा ॥ २ ॥ श्राचार्य सोध फरमावे | तत्वार्थ गहन दर्शावे । ते सुगम करी पर गमावे । श्रोता तल्लीन होवे सुणे के । श्रात्महित लै तासे लु के ॥ जरा ॥ ३ ॥ साधु किरिया खूब ब्रढडाइ | उत्सर्ग एकान्त स्थपाइ । न अपवाद जरा लगाइ । श्रोता सुण श्रर्य पाया । कहे धन्य जग निराया ॥ जरा ॥ ४॥ जो खड्ग धार पर चाले । सूक्ष्म ऐसा दोप टाले। सो टोटो क्यों करणी में घाले । भक्ति फल तं ही फरमाया । दान महात्म खूब द्रढ़ाया || जरा ॥ ५ ॥ श्रावक की किरिया बताइ । जो भेप धारी पालताइ । ये उत्कृष्ट श्रावक कहाइ ॥ सुणी सब धन्य २ तस कहता । भेषधारी भूमी देखी रहता ॥ जरा ॥ ६ ॥ फिर सम्यक्त्व को सरसाइ । जो नृपत चित्त में पाइ । केइ रागणीयों भी सुगाइ ॥ इत्यादि Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १२६ भिन्न २ भेद सुण कर | नृपादि हर्ष हीय गये भर || जरा ॥ ७ ॥ केइ सम्यक्त्व व्रत आदरीया । केइ खन्ध नियम त्याग करीया । यों हुवा उपकार बहु परीया । सब विधी बंदी मुनि तां । परिषद निज स्थान सिधाइ ॥ जरा ॥ ८ ॥ विजय राय मुनी पग वन्दे । कर जोरी वंद आनन्दे । आज संचित पाप निकन्दे । आप सम सन्त दर्श पाया । अपूर्व बोधज सुणाया ॥ जरा ॥ ६ ॥ पण श्रवक वन्दे नाहीं । राजा तस धीठा जाण्याइ । मुनि पास कछु न बोल्याइ || दोनों मिल चले पुर माहीं । नृप मुनिवर को सरसाइ ॥ जरा ॥ १० ॥ तब दांभिक सुर कहे राया । तुम दृष्टि रागे मोहाया ॥ यह साधु बोलण में डाया । कुपक्ष हृदय से facers | विचारो देशना फरमाइ ॥ जरा ॥ ११ ॥ महारी थांरी खुशामदी की नी । क्रिया उत्कृष्ट कह दीनी । सुणी परिषद सभही भीनी । पण पाले तो बली हारी । वचन वीर्य मात्र नहीं तारी ॥ जरा ॥ १२ ॥ यह साधु है बहू बोला | माहे नगारा सरीखा पोला । माने तुम सरीखा भोला । पण में मानुन जरा राइ | Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० । १०। मुझे तो भरम भूत दरशाइ ॥ जरा ॥ १३॥ तुम साखे परिक्षा करस्यूं । जो शुद्ध देखूगा अन्दरस्युं । तो चरण में माथो धरस्युं । दिखते हैं सरीखे मणी और कांच । | मालुम होवे लगे जब अांच ॥ जरा ॥ १४ ॥ राय कहे इतनो मत तानों । जो भरे है रतन गुण ज्ञानो। दीया है तैसा ही व्याख्यानो। बोली से भेद सर्व लीजें । विशेष परिक्षा क्या कीजे ॥ जरा ॥ १५ ॥ श्रावक कहे अभी सुस्तायो। गुप्त राते इहां चल पायो। फिर प्राचार गोचार बताओ। तो | मालुम सही पड़ जासी । मानो इति बात मेरी खासी ॥ जरा ॥ १६ ॥ ऐसी | बातों सुर बनाइ । आयो सो उपाश्रय मांही। नृप निज मन्दिर यहां ताई । आगे परिक्षा दिखावे गाइ । ढाल वसु अमोल ऋषि गाइ ॥ जरा ॥ १७ ॥ दोहा ॥ जामिनी जाम जदा गाइ । सुर भूपत ढिग प्राय । कहे चालो अब बाग N में । देखण किरिया मुनिराय ॥१॥ राय कहे क्या देखिये । देखे व्याख्यान । मांय । छिद्र पे खते साहू के । पातक आत्म भराय ॥ २॥ देव कहे ये ही जाल Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० व १३१ में साधु गृही फसाय । मतलब साधे आपनो । को जाण नहिं पायं ॥ ३॥ परिक्षा करतां गुरू भणी । जो कभी लागे पाप । तो ते मुझ ने लागसी । यो जतो चालो आप ॥ ४॥ यों अग्रह अति सुर करी । बाग में लायो राय । गुप्त रही देखाडतो । माया विमुनि अन्याय ॥ ५॥ ढाल ६ मी ॥ सुणो चन्दाजी ॥यह॥ यह० ॥ सुणो मुनिवर जी । अरजी करूं शुद्ध पालो तुम आचार ने । तुम गुणवन्त जी। छाजे नहीं है छोड़ो शीघ्र व्यभिचार ने ॥ ठेर ॥ एक मुनिवर बैठा अति नेठा । सोकर रहे वैश्या संग क्रिडा । अभक्ष खावे मेवा पेडा । सागे वणी। गया अज्ञानी जेडा ॥ सुणो ॥ १॥ यों देख राय आश्चर्य पायो । मन में रोश अधीको लायो । यो जलम किस्यो इण लगायो । हूं देवं इण ने अभी समझायो ॥ सु० ॥२॥ भूपत साधु पासे प्रायो। पण साधु जरा नहीं शरमायो।। तो भी राय तस बोलायो । यो अकृत्य किस्यो तुम लगायो ॥ सु० ॥ ३॥ यह काज अापने अघट तो। धर्म मान ऐसे हट तो । देखी मुझ कालजो फट तो। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १३२ त्यागो यह कुकर्म झट तो ॥ सुणो ॥ ४ ॥ कहो सुरेन्द्र को आवास | कहां विटा खाना को वास । यों संगम ने ए कर्म विमास । क्यों करो उत्तम करणी को नास । ॥ सुणो ॥ ५ ॥ तुम दिखते हो ज्ञानी गुणी भणीयां ॥ कैसे ज्ञानी हो गुण ने rai | कैसे प्रश्न वे कांचे कणीयां । थांके हाथ लगी संयम मणीयां ॥ सु० ॥ ६ ॥ गज तज कोण खरपर बैठे । गादी तज ऊकरडे लेटे । सिंहास तज वैठे हे । त्यो तुम सत्य कर्म से रहो बेटे || सुणो ॥ ७ ॥ अमृत ढोली विष क्यों पीवो | क्यों मुखमल तज कम्बल सींवो । इन कर्मे भोगवसो घणी रीवो । जो असंयम जी तव जीवो ॥ सुणो ॥ ८ ॥ अनन्त संसार भ्रमण करो । नरक निगोद में पचमरसो । फिर सम्यक्त्व दीपक नहीं करसो । जो ऐसा कर्म से नहीं डरसो ॥ सुणो ॥ ६ ॥ अनि मुशकिल नरकुल पावो । यति दुक्कर जैन कुले आवो । तो श्रावक पो के चावो । अति २ दुर्लभ साधु थावो ॥ सुणो ॥ १० ॥ ज्यों कंगाल ने चिन्तामणी पाइ । तिए कंकर जणी गमाइ । तैसे तुम तणी यह Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म०वि० चतुराइ । होवो सुगणा संभालो आयो भाइ ॥ सुणो ॥ ११ ॥ धिक्कार तुमारी बुद्धि १३३ ।। ताइ । धिक्कार दांभिक भेष सजाइ । कुकृत्य करता लाजो नाहीं ॥ धिक २ तुझ । | जनक जनीता जाइ ॥ सुणो ॥ १२ ॥ जात पांत तुम सरमाया। वली मात तात , ने लजाया। पर भव दुःख से नहीं डरपाया ॥ सुणो ॥ १३ ॥ निकलङ्क धर्म जि| नेश्वर को। सो दीपावो मार्ग मुनिवर को। लजावे तस जन्म जैसो खर को। डूबो दोनों भव दुष्टाचर को ॥ सुणो ॥ १४ ॥ अवतो जर चित्त शंकायो । यह | यह व्यभिचार को छिटकानो। देव गुरु की शरम लावो। तो पण दोनों भव । सुख पात्रो ॥ सुणो ॥ १५ ॥ महारे थारे गुरु शिष्य की सगाइ । ता लिये हित । शिक्षा सुणाइ । कटु औषधी ज्यों सुखदाइ । जो मानो तो सार निकले कांइ । सु०॥ १६ ॥ प्राते गुरुजी कने हूं अास्यूं । सह कर्म तुम्हारा दरसास्यूं। IY आखीर भूप यू प्रकास्युं । कहे अमोल प्रादरीया सुख पास्युं ॥ सुणो । | ॥ १७ ॥ॐ ॥ दोहा ॥ वैश्या रंगी मुनि कहे। राय म बोल कुबोल ॥ किन २ || Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० को तुम पालसो । गुप्त देख यों पोल ॥१॥ १॥ शरल स्वभाव है म्हारो। करण न १३४. जाणूं कपट ॥ वाह्याभन्तर एक सो। न र पाय दपट ॥ २ ॥ परभव को डर ll मुझ अति सेवू न माया लगार ॥ पेखो जरा आगे बढी। बृद्ध मुनि प्राचार N॥३॥ सुण चित चमक्या महीपति । श्रावक कर धार्यो ताम। चलो देखें अगे वली। कैसे मुनि गुण धाम ॥ ४ ॥ बृक्ष छांय में छिपत सो। देखे | आगे जाय ॥ अघटित पेखी कृत्य को। णाश्चर्य प्रति चित पाय ॥ ५ ॥8॥ | ढाल ॥ १० वी ॥ चेतनजी, वारणे मत जावोजी ॥ यह०॥ राजेश्वर द्रढ | सम्यक्त्व के धारीजी। देखी देवमाया नडिग्यारी ॥ टेर ॥ एक साधुजी जूवा खेलेरे । चौक नकी दुकी डाव में लेरे । हार जीत में धन घणो देले ॥राजे० ॥ | १ ॥ एक मुनि आमिस रांधेरे । घणा मशाला युक्त सवादेरे । करे परसंस्या कर्म बान्धे ॥राजे०॥२॥ एक मदिरा सीसी ले आयारे । सा आरोगी तवही मुरIN छायारे । नाचे गावे चंग बजाया ॥ राजे० ॥२॥ एक जति रह्या वैश्या रमाइरे।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १३५ क्रिडा बहु विध कराइरे । आप हंसे तास हंसाइ ॥ राजे० ॥ ४ ॥ एक पशु जलचर जीव मारेरे । तीक्षण शस्त्रे खेले शीका रेरे ॥ जीव तडफडे दया नहीं धारे ॥राजे०॥ ५ ॥ किताक चोरी कर धन लायारे । करे पांती वैठा एक ठा- यारे । लेने देने का झगड़ा लगाया ॥ रा०॥ ६॥ कोइ नारी रूपवन्त पाइरे। | वस्त्र भूषण तन सजाइरे । तास ऋषिवर खोले बैठाइ ॥ राजे०॥७॥ यो एकेक | कुव्यश्ने रातारे । केइ सेवे छे भेलाइ सातारे । देखी विजय आश्चर्य अति पाता ॥ रा०॥८॥ अहो सब मिल्या भृष्टाचारीरे । कुमति सुविणठी बुद्धियांरीरे ॥ कैसी । टोली मिती यह भारी ॥ रा०॥॥ रेख्या प्राचर्य दृष्टि न अायारे । ते तो M गया दीसे कोइ ठायारे । तेहथी निडर हो फन्द मचाया ॥ राजे० ॥ १० ॥ प्राते आचर्य भणी चेतास्युरे । दंड देवा के सीधा करास्यूंरे । नहीं ताणी अभी कोइने प्रकास्यु ॥ राजे० ॥ ११ ॥ जिन से जिनमार्ग नहीं लाजेरे । इनकी सुधरे आत्मज काजेरे ॥ यो विचार बहला कर्याज ॥ रा० ॥ १२ ॥ गणीवर किहां नहीं पायारे। ] Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि तब नगर में चाल्या रायारे । मन माहे अति मुरझायारे ॥राजे० ॥ १३ ॥ तब १३६ । श्रावक कहे फरमावोरे । मे कह्यो सो देख्यो उपावोरे । मुझ बचने परतीत जरा लावो ॥रा०॥ १४ ॥ राय कहे प्राचार्य जो मोटारे । सो तो कधी न करे कर्म । । खोटारे । ये तो मिल्या कुमति घाल्या गोटा ॥ रा०॥ १५ ॥ यों बोलता मेहल । पास अायारे । तिहां प्राचार्य निकलता देखायारे । पैठाण्या प्रकाश के मांया ॥ राजे० ॥ १६ ॥ सो तो अन्तेवर में से पावरे । एक राणी ने साथ लेजावेरे । देखी राय अति शरमावे ॥ रा०॥ १७ ॥ पण मौन नृपति तब राखेरे । कौन | विष्टा में फत्थर न्हाखेरे ॥ विप्त पामी कृत कर्म पाखे ॥ राजे० ॥१८॥ अब किन I को जाय पूकारूंरे । बलावू हुवा लूटारूरे । सब खोटा मिल्या कैसे वारू ॥राजे | ॥ १६ ॥ यह तो ठग की टोती देखाइरे । नहीं जैन मुनि निश्चय थाइरे ॥ करूं । Nउपावजों कुमत बिरलाइ ॥ रा० ॥ २० ॥ ढाल दशमी अमोलक गावेरे । देवराजा को चित्त चलावेरे । धन्य विजय वक्ते द्रढ रहावे ॥ राजे०॥ २१ ॥ * ॥ दोहा॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३७ अवि भेषी सुर कहे रायजी। देख्या मुनि चरित्र जैन जती ढोंगी सबी । तिण से हम पवित्र ॥ १॥ तुम सदा रहो घर विषे । किम जाणो यह बात ॥ में बहू रह्यो । साधु विषे । जाणु सकल अवदात ॥ २॥ में तो मिथ्या न वदूं । पण नहीं तुम N/ मन परतीत ॥ अाज तो देखी आँख से । जैन जति की रीत ॥३॥ महारे बचने आसता । धारो अब. महाराय ॥ छोडो पाखण्ड जैनमत । जो अात्म सुख पाय ॥४॥ नहीं कोई इस काल में । साधु जगत् मझार ॥ धर्म नाम से जग ठगे।। । येही नप सत्य धार ॥ ५॥ॐ ॥ ढाल ११ मी ॥ जिंदवारे मेरी जान ॥ यह ॥ IN सत्य सत्य सत्य जैनधर्म है। शंका मुझे ना लगार ॥ यो पाखण्ड देखी जगत M का । मुरझा न कोइ वार ॥ सत्य ॥ १॥ अन्धकार न व्यापै रवि थकी । चन्द्र | सेन पडे ताप ॥ अमृत जेहर होवे नहीं । तैसा जिनजी अलाप ॥ सत्य ॥ २ ॥ चारों तीर्थ इण वक्त में । पाले शुद्ध जैनधर्म ॥ कर्म खपावे शिवसुख वरे । एक । येही परम धर्म ॥ सत्य ॥ ३॥ तहा मेव वाणी सर्वज्ञ की । सत्य तीनोंही तत्व ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म०वि० १३८ श्रद्धे परतीत चित रूचे । अाराध में निज सत्व ॥ सत्य ॥ ४ ॥ कदा एक हीरो खोटो दिखे । सब खोटा जाणो नाय ॥ खोटा सो तो खोटा ही है । खरा खोटा । नहीं थाय ॥ सत्य ॥ ५ ॥ एक वक्त लूटावे मार्गे । दूजी वक नहीं जाय। तो रस्ता । सब बन्ध हो । जगरूढी नाश पाय ॥ सत्य ॥ ६॥ परम मार्ग वीतराग को। घणा पालणहार ॥ यह टोली मिली पाखंडी की । दूजा नहीं इणसार ॥ सत्य ॥ ७॥ महामुनि घणा भरत में । शुद्ध पाले प्राचार ॥ तैसेही सतीयां घणा। उनको महारो नमस्कार ॥ सत्य ॥ ८ ॥ अवधि ज्ञान देखे देवता । नृपति स्थिर परिणाम ॥ पाखण्ड पेखी दृढ घणा हुवा । देव विस्मय रयो पामे ॥ सत्य ॥ ६ ॥ प्रकट कहे सुणो रायजी। राणी अवगुण न जोय । थे तो फस्या हो दृष्टि राग में । शुद्ध मति कैसी होय ॥ सत्य ॥ १० ॥ जैसे कामी कामान्ध हो । न देखे नारी अवगुण । तिम जिन मत राचिया । विष्णसी मति जो निपुण ॥ सत्य ॥ ११ ॥ कुपक्षी धर्म न गृही सके । सुपक्षी सो ग्रह झट । अन्तर नेण खोली जोवो। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १३६ छोड़ो यह खटपट | सत्य ॥ १२ ॥ तत्वज्ञ होकर निर्णय करो । छोड़ो असत्य ये मत । इत्यादि बचन का घणा । जाणे राव माने सत | सत्य ॥ १३ ॥ स्वधर्म हीला सुख करी । राय कोपित होय । जाण्यो निन्हव तेह ने । भेषी मिथ्यामति सोय ॥ सत्य' ॥ १४ वे परवा होइ वदे तदा । बोल विचारी ने बोल । निन्दे महारा देव गुरु भी । जाण्यो वचन से तोल || सत्य ॥ १५ ॥ निर्णय कर निश्रयात्म हो । ग्रह्मो जैन धर्म मेय | नहीं निश्चय इण सारखो । अन्य धर्म बिश्वे ar || सत्य ॥ १६ ॥ कौन सामर्थ त्रिलोक में । करे मिथ्या जिन वैण नहीं तुं श्रावक । नहीं मानु थारी केण ॥ सत्य ॥ १७ ॥ रे मिथ्यात्वी कदा ग्रही । दांभिक भेष बणाय । यो ठगवा भोला भणी । पण मठ गावंगा नाय ॥ सत्य ॥ १८ ॥ पाखण्डी संग बोलणो । मुझ जरा जुगतो नाय । शीघ्र जा यह स्थानक तजी । जो कुशल तूं चहाय ॥ सत्य ॥ १६ ॥ कोप वचन सुणी राय का । सुर चमक्यो चित मकार । तत्क्षीण उठ चलतो हुवो । नहीं कियो चूंकार ॥ सत्य ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १४० २० ॥ रायजी आया निज महल में । धरता चित्त चमत्कार ( धूर्त साधु ने श्रावक सौ | खटके चित्त मझार ॥ सत्य || २१ || खेदाश्वर्य यह अति । ऊंच आत्म यो प्राय । श्रद्धा विना रूले चउगते । सत्य श्री जिनवाय || सत्य २२ ॥ यों भाचे निर्मल भावना । धन्य विजय नृपाल | प्रत्यक्ष बिपरीती जो दृढ रह्या । अमोल एक दश ढाल || सत्य || २३ || दोहा ॥ चित में चिन्ते असुर ते । निष्फल हुवा सौ उपाव । परपर कर सहू दाखव्या । तेह से स्थिर रह्या भाव ॥ १ ॥ अब बीतावुं घर परे । न्हाखी शंकट पूर ॥ जो फिर बढ़ किम रहा कुमति ये चिन्ती यों सुर ॥ २ ॥ सब मुगे सूता निशी विषे ॥ तब देव स्वप्न मकार । राय सचीव सामन्त को । है दिव रूप निजधार ॥ ३ ॥ शीघ्र सावध होवो सहू तुमे । जो इच्छो हो सुख ॥ तो वयण सत्य मानजो। तुम पुर पर आवे महा दुःख ॥ ४ ॥ नाग कुमार कोपित हुवा । करेगा विधन अपार || प्राते पूजो नाग मूरती । तो वरसी चेनचार ॥ ५ ॥ ॥ ढाल १२ वी ॥ श्रावक श्री वीरना चम्पाना Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १४१ वासी जी ॥ यह ॥ धन्य विजय रायजी ढ समकित धारी जी ॥ ढेर || - वर्य पाया सब अतिजी । एकसो देख स्वपन || आपस में चेतावती जी । करीये सुख के जतन ॥ धन्य ॥ १ ॥ प्राते राय शभा विषे जी । निर्मितिक एक आय || स्वपना ने मिलती थी सो । सहू कों बात सुणाय ॥ धन्य ॥ २ ॥ नृपादि सुणी यों महू जी । श्राया हूं तुम हित काम || भयंकर नाग देव को अभी उपसर्ग होसी यह ठाम ॥ धन्य ॥ ३ ॥ तेह निवारण कारणे जी । एकही सीधो उपाव ॥ राजा प्रजा सहू मिल करी । पूजो देवल ये नागराव ॥ धन्य ॥ ॥ ४ ॥ स्वपन ने निमन्तिनी जी । मिली एकही सहू बात । भय पाया सब चित्त में जी । निश्चय सब मन त ॥ धन्य ॥ ५ ॥ सचीव सामान्त प्रजा मिली. जी । उत्तम पूजापो सजाय || पूजा करी नागराय की जी । अति डम्बरे आय ॥ धन्य ।। ६ ।। प्रणमी अर्जी करे सभीजी ॥ कोप निवार जो देव ॥ संतुष्टी सुख सर्व जो । यह स्वीकारी हार सेव ॥ धन्य ॥ ७ ॥ विजय भूप श्रधी Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १४२ नहीं जी | स्वप्न निमन्तिक बात || होणहार सो होवसी । जो जिनजी देख्यो साक्षात ॥ धन्य ॥ ८ ॥ शुभा शुभ कर्म उपार्जिया । ते भोग्या ही छूटको होय | क्षणिक सुख ने कार | कोन मूर्ख सम्यक्त्व विमोय ॥ धन्य ॥ ६ ॥ देव फस्या कर्म फास में ते । मानव ने कैसे छोडाय || इम निश्चय अवलम्बिने । निश्चिन्त रह्या विजयराय ॥ धन्य ॥ १० ॥ सचीव सामान्त शाहजन मिली। करे नृप से नमी दास ॥ पधारो नाग पूजवा । ज्यों उपद्रव होवे नाश ॥ ध० ॥ ११ ॥ राय है कर्मोदय । नहीं देव टाला सामर्थ ॥ सम्यक्त्व रत्न गमाबवो । न करूं मे यह अनर्थ ॥ धं० ॥ १२ ॥ दुःख सुख देव न दे सकेजी । कर्म संचित फल पाय | यह अनुज्ञ शास्त्र की ते । येहीज वक्त काम श्राय ॥ धन्य ॥ १३ ॥ तत्त्वज्ञ धर्मी हु तुम | कैसी देवो मुझ यह सीख ॥ माल संभालो आपणो । ज्यों आगे न पावे तीख ॥ धन्यं ॥ १५ ॥ इत्यादि सुन सहू चुप हुवाजी । निज २ स्थाने जाय ॥ तत्क्षीण राय भवन में बहूत फणी घर प्रकट थाय ॥ धन्य ॥ १५ ॥ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि अरुण नेत्र अग्नि समाजी। मस्सी सम शरीर ॥ लम्ब भयंकर विष भर्याजी। १४३ ।। उभय जीभे झरे नीर ॥ धन्य ॥ १६ ॥ फण विस्तारी फंकारता जी। वन्हि ज्वाला । प्रगटाय ॥ धरणी पछाडी फण पूंछ ने । ते सदन सर्व थरराय ॥ धन्य ॥ १७ ॥ M] भय भ्रान्त हुइ अन्ते उरीजी । दासादि पाया त्रास ॥ कोलाहल मच्यों महलमें । । ते रायजी सुणीयो खास ॥ धन्य ॥ १८ ॥ आकर देख महलमें जी। लग रही दोडा दोड ॥ भुयंगम भयंकर अतिजी। देखे ही भागे खोड ॥ धन्य ॥ १६ ॥ N त्याग करी ते भवन को सब । अन्यस्थाने जाय ॥ जीव की साथे कर्म ज्यों । ते । सर्प लारे धाय ॥ धन्य ॥ २० ॥ जावे तहां साथ आवेजी। जाण्यो तब देव चरित्र ॥ Lal निश्चिन्त बैठा एक स्थानक । में तो नहीं गमावू समकित ॥धन्य ॥ २१ ॥ सज्जन आदि घबरावे । पण राय न देवे ध्यान ॥ होणहार सो होवसी । यों चिन्ते निर्मल ज्ञान ॥ धन्य ॥ २२ ॥ उत्तरार्ध यह खण्ड की । ढाल द्वादश अमोल कहंत ॥ ऐसा द्रढ श्रधा धारी जी । क्यों नहीं मोक्ष लहंत ॥ २३ ॥ ॥ दोहा ॥ दाना शाणा Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० सामन्त मिल । समजावे बहू भांत ॥ सुज्ञ नृप अवसर लखी। स्वीकारो अवदात । १४४ ॥१॥ पूजा करो फणिन्द्र की। ज्यों होवे उपसर्ग दूर ॥ कारणे को दोषण नहीं। मानो केण हजूर ॥२॥ कान न धरे नृप विनंती। तब सहू अति अकुलाय ॥ IN रीसा कहे धिक्क हट यह । अवसर औलखो नाय ॥३॥ समज्या समजावा किसो । कीजो ऊंडो विमास । निजात्म सज्जन तणो । हाथे मत करो नाशा॥ ४॥ महा। 12 अनर्थ होवे जेह से । ते तजो समझी मन ॥ संसारार्थ साधने । करो नाग पूजन | ॥ ५॥ ॥ ढाल १३ वी ॥ जिनेश्वर मोहणी जीत्याजी ॥ यह ॥राजेश्वर समकित धारी हो । के धन्य जीत्या उपसर्ग भारी हो ॥ टेर ॥ सचीव सज्जन आदि । सह मिली हो । समझाया बहू भांत ॥ नहीं मानी राजिन्द्रजी हो । होणहार सो थात ॥ राजे ॥ १॥ राज का रायन स्वप्न में जी। कहे सुर कोपित होय ॥ हं भी हटीला भूपति । क्यों अभिमान ने घर खोय ॥राजे ॥ भूल्यो सम्यक्त्व भ्रम मे । मुझसे मिथ्यात्वी देव बणाय ॥ सब माने तूं माने नहीं । छक्यो ऋद्धि गर्व के Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १४५ ร मांय ॥ राजे ॥ ३ ॥ जाणे न पराकम माहेरी । हूं तूठो सुरतरूने समान ॥ रूठो कली काल सारखो । हरूं चीक में अभिमान ॥ राजे ॥ ४ ॥ प्रत्यक्षं परचो महेरो । तूं देख रह्यो है नेण ॥ तोही पण माने नहीं । नहीं सुणे सज्जन हित वेण ॥ राजे ॥ ५ ॥ जो हित वांछे तहारो तो । छोड जैन क्रिया रुढ || नहीं तो दुःखीयो पूरो होसी । मान वचन मति बन सुट्ठ ॥ राजे ॥ ६ ॥ चेतावूं तुझ करुणा करी । शीघ्र प्राते करी स्नान ॥ यथा विधी सहू साथ ले । जाइ पूजजे महारो स्थान ॥ राजे ॥ ७ ॥ तो सर्व सुख तुझ अपूंगा । नहीं तो करूंगा सर्व संहार ॥ निश्चय बचन यर महेरा । लीजे पक्का हृदय में धार ॥ राजे ॥ ८ ॥ यों कहकर श्रीपति गयो । महीपति तव जागृत थाय ॥ स्वप्न चिन्तवता निश्चय कियो । मिथ्यात्वी सुर मुझने डिगाय ॥ राजे ॥ ६ ॥ जे इच्छे पूजा आपणी । अन्य पास करी बलत्कार ॥ ते रुठो किस्यो करी सके । तूठो करे किस्यो उपकार ॥ राजे ॥ १० ॥ नाश करे ऋद्धि तणो । ते तो प्रभुजी कही नाशवन्त ॥ नाशन करी सके Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १४६ 1 महेरो । त्रिरत्न दुर्लभ अत्यन्त ॥ राजे ॥ ११ ॥ अनन्त पुण्ये समकित मिली । नहीं खोवूं क्षणिक सुख काज ॥ इम निश्चय कर स्थिर रह्या । नहीं पूजा फणीन्द्र देवताज ॥ रा• ॥ १२ ॥ दिवसोदय राय भवन में । एक दीर्घ सर्प प्रगटाय || श्याम शरीर रक्त ने थी । सर्व जनने भय उपजाय ॥ रा० ॥ १३ ॥ जेष्ट पुत्र को डंकीयो पड्यो मुरहाइ तत्काल ॥ सज्जन परिजन मिल करी । करे रुदन चाकन्द अस• ॥ राजे ॥ १४ ॥ कर धरी कहे राय को । अब शीघ्र चलो महाराय ॥ पूजा करो नाग मूर्ती । यह तो अनर्थ मोटो थाय ॥ रा० ॥ १५ ॥ राय न माने को ह नो तब पटराणी ने दियो डंक || ते भी पडी मुरछाय के । रायजी तो बैठा निशंक ॥ रा० ॥ १६ ॥ अति समजावे सहू मिली । भूप कान घरे नहीं बात ॥ तब डंक्यो बिचला कुमार नेजी | तेही पडयो मुरवात || रा० ॥ १७ ॥ तीनों राणी तीनों पुत्र ने इम । करडयो नाग करूर || छेउं पडया मुराय ने । कुटुम्ब कोपित हुयो रोश पूर ॥ ० ॥ १८ ॥ धिक्कारण लग्या रायने । राय कहे समता रखो मन ॥ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० कर्मोदय प्राप्तज हुयां। नहीं चाले एक जतन ॥रा०॥१६॥ शोकातूर सर्व जनहुइ। १४७ करे छउंको विविध उपचार ॥ औषध मंत्र मणी श्रादि सहू। पण असर न करे ।। लगार ॥ रा०॥ २० ॥ शोकातुर सर्व हो कहे । अब करनो किस्यो इलाज ॥ देव कोप्यो राय ऊपरे । करबा लागो महा अकाज ॥राजे ॥ २१ ॥ पुनः सचीव । | सामन्त मिली। कहे त्रासी ने मानो राय ॥ तुम रागी जिनवणना। तो दयान || घट किम प्राय ॥ रा०॥ २२ ॥ मनुष्य मरे छे धाने । डूबे श्रापको वंश ॥ यह N] पातक किण सिर चडे ! घर हाणीने जन हंस ॥ रा०॥ २३ ॥ शास्त्र में जिनजी कह्याजी। छे छन्डी आगार ॥ कारण उपने कुदेव ने । करे महा श्रावक नमस्कार | ॥रा०॥ २४ ॥ इत्यादि समजावे घणा । पण राय न माने रंच ॥ ढाल तेरे अ| मोलक कहे । राय जाण्यो देव परपंच ॥ राजे ॥ २५ ॥ ॐ ॥ दोहा ॥ ते अवसर तहां भावीयो । सकल गारुडी सिरदार ॥ साज सज्यो तिण सहू विधी । देखत चित्त दे ठार ॥ १॥ गेरुवा वस्त्र तन सज्यो। जटा में कंगा खसोल ॥ तिलक Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ अविभाल माल कंठ में । बोले विश्वासु बोल ॥२॥ काबड खन्ध है नाग की । पुंगी मधुरी बजाय ॥ भूजंग रमे तस तन परे । प्रत्यक्ष परिचय देखाय ॥३॥ दर्श देख गारुडी को । संतोषाणा सब मन ॥ यह तो निश्चय टाल से । आपणा सर्व विधन ॥४॥ ॥ ढाल १४ वी ॥ बिणजारारे ॥ यह ॥ सुणो श्रोता हो ॥ सर्वजन खुशी अति होय । सत्कार कियो गारुडी तणो॥सुणो श्रोता हो ॥ सुणो श्रोता हो॥ प्रावो | ऊरा महाभाग्य । तुम दीठा हमने अानन्द घणो॥सुणो॥१॥सुणो॥कृपा करी इणवार। A करामात देखावीये ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ उतारो छेऊ को जेहर । हमारी चिन्ता गमावीये॥सुणो॥२॥ मुणो ॥ करस्यां खुशी तुम ताय । मांग सो सो देस्यां सही ॥ सु. हो ॥ सुणो ॥ उपकार होसी अपार । जीवित लगे भूलस्यां नहीं ॥ सुणो॥३॥ । सुणो भाइ हो । गारूडी छेऊं ने देख । कहे यह बिष विषम अति ॥ सुणो भाइ । हो । सुणों भाइ हो । असाद्य सो दिखे यह । तो भी यतावू मुझ शक्ति ॥ सुणो ४॥ सुणो ॥ मैं जाणूं अनेक उपचार । निर्विष निश्चय करस्यूं सही ॥ सुणो॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० सुणो । करणहार करतार । करामात सब देखो यही ॥ सुणो ॥ ५ ॥ यों बहू १४६ / बातों बनाय । कुंवारी कन्या बोलावइ ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ न्हवाइ पुष्पे सजाय। पद्मासन वेसावइ ॥ सुणो ॥ ६॥ सुणो ॥ अक्षन छाट्या तस तन । थर २ ते धूN जण लगी ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ नागदेव अायो अंग । गारुडी कहे देखो जगी॥ सुणो ॥७॥ सुणो ॥ तस गारुडी कियो सत्कार । भले पधार्या कृपा करी ॥ नाग रायारे ॥ नाग रायारे ॥ होवो हम पर संतुष्ट । छेऊ को विष लेवो हरी ॥ नाग रायारे ॥ ८ ॥ सुणो भाइ हो ॥ कंन्या मुखथी सुर केय । कोपातुर होइ | घणो ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ यह राय अभीमानी अत्यन्त । अपमान अति कीयो I हम तणो ॥ गारुडी हो ॥ ८॥ गारुडी हो ॥ मिथ्यात्वी कुदेव केय । परभा जरा 10 नहीं केहनी ॥ गारु०॥ तेहथी बताइ चमत्कार । मगरुरी हरु राहनी ॥ गा.॥ ॥ गारुडी हो ॥ तूं जा थारे घेर । इण दुष्टरो पक्ष परिहरी ॥ गारु०॥ गारु०॥ नहीं मानु थारी केण । रीस बुरी छे माहेरी ॥ गा०॥ १०॥ सुणो भाइ हो । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १५० गारुडी करी नमस्कार | अत्यन्त नरमी अरजी करे | सुखो || नाग राया हो ॥ तुम सब सामर्थ देव । मोटा सोही क्षमा धरे ॥ नाग० ॥ ११ ॥ नाग ॥ जो नमे गुन्हेगार | तो अपराध भूले सबी || नाग० ॥ जेष्ट तणी यह है रीत । तेही आप धारो बी ॥ ना० ॥ १२ ॥ नाग० ॥ फरमावो आप हुकम । सोही करावुं इण कने ॥ नाग० ॥ हिवे तजो सब रोस । वारम्वार सो इम भने ॥ सुणो ॥ १३ ॥ गारु० ॥ मुझने नम्यो सब जगत् | यह शुष्क काष्ट ज्यों नमे नहीं ॥ गारु० ॥ गारु० ॥ विइ जो करे नमस्कार । तो सब दुःख हरुं सही ॥ गारु० ॥ १४ ॥ सुणो रायारे ॥ गारुडी कहे खुश होय । नमन करो नाग रायने ॥ सुणो रायारे ॥ सुणो० ॥ थोडे हुइ सब खेर । अबी दुःख जावै विरलायने ॥ सुणो रा० ॥ १५ ॥ गारुडी हो ॥ नृप कहे सुण मुझ बात । उठ जा तूं थारे घरे ॥ गारु० ॥ . गारु० ॥ जो ऐसा अभीमानी देव । विना काम नर्थ करे ॥ गारु० ॥ १६ ॥ गारु० ॥ येही कुदेव लक्षण | तास वंदन में नहीं करूं ॥ नहीं इण लोक की आस । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १५१ निरागी पद सिर धरूं || गारु० ॥ १७ ॥ गारु० ॥ जे जाणे रत्न त्रयतत्व । तेतो काँच न कदा ग्रहे ॥ गा० ॥ गा० ॥ दाख्यो मुज मन भेद | जदा कचपच पर रहे ॥ गा० ॥ १८ ॥ सुणो रायाहो || गारुडी कहे विस्मय होय । हो यह हट नहीं काम को ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ अवसर ओलखो आप | नाश न करो सुखधाम को ॥ सुणो रा० ॥ १८ ॥ सुणो रा० ॥ मत करो काय से नमन । मन से करोतो ते जाणसे ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ हूं समजावंगा तास । दुःख खोसी दया यासे ॥ सुणो रा० ॥ १६ ॥ सुणो रा० ॥ मैं भी जाणू जैन धर्म | संगति करी साधु ती ॥ सुणो ॥ सुणो ॥ छे छंडी यागार । सदित सम्यक्त्व गुरु भी || सु० ॥ २० ॥ सु० ॥ अल्प दोष महा लाभ । प्रत्यक्ष तो विचारीये ॥ सुणो ॥ रहे वंश जगे सु नाम | छे मनुष्य ऊगारीये ॥ सुणो ॥ २१ ॥ सुणो ॥ संसारी दोष पूरीत । तो इरो लेखो कीस्यो || सुणो ॥ अति ताण्या टूट जाय । क्या कहूं ज्यादा शाणा दीस्यो || २२ ॥ स्याद्वाद जिनमत | एकान्ति मिथ्यामति ॥ सुखो || सुणो भाइ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज० वि० १५२ हो | अमोल यह चउदमी ढाल । देव यों भरमावै प्रति ॥ सुणो ॥ २३ ॥ * ॥ दोहा ॥ इत्यादि जिनमत न्याय दे । राजा ने समझाय ॥ पण द्रढ राय ते बात ने । जरा ही श्रद्धे नाय ॥ १ ॥ गारुडी संतप्त हो । कहे खेदाश्चर्य घर || हटीलो नृप तुम सारीखो । नर नहीं देखा पर ॥ ५ ॥ ग्रही पक्ष सम्यक्त्व का । किया दया का नाश || स्वकुटुम्ब पर ममता नहीं। तो क्या आवे पर त्रास ॥ ३ ॥ हीया की उपजे नहीं । परकी न माने केण ॥ ऐसा नर से चुप भली । क्यों गमावूं वेण ॥ ४ ॥ धीर नृप यों बचन सुण । क्रोध न लायो लगार ॥ जनमत रहस्य समजाववा । करे गारूडी से उचार ॥ ५ ॥ * ॥ ढाल १५ मी ॥ हो पियु पंखीडा ॥ यह० ॥ अहो सुपो गारूडी । बोले जिन मार्गनी रहस्य तणा नृप जाणजो । जिन धर्म मानी न मानी मित न्याइ खरोरे लो || अहो सुए गारूडी । थें कही साची बात जो । चहात ऐसो कायर नर जिन मत परोरे लो ॥ १ ॥ हो | मुझ से न बोल यह बोल जो । तोल जो नर को देख के बय Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० से कहाडीये रेलो ॥ अहो ॥ धर्म को जो जाणे सत्य जो । तो किम असत्य में १५३ । निजात्म नमाडीयेरे ॥ २॥ अहो ॥ जो कधी जावै प्राण जो। प्राण न खण्डू हूं । कधी श्री वीतरागनीरे लो॥अहो ॥ देविन्द्र देव लिया मान जो। वो किम वन्दे प्रतिमा हिवे हीन नागनी रेलो ॥३॥ अहो ॥ अतिचार अरूप ते बहुत जो। समाल करीने आत्म डूबावे आपनी रेलो ॥ अहो ॥ दया निजात्मनी होय जो। तोयज परनी दया श्रेय मत थापनीरे लो ॥ ४ ॥ अहो ॥ ज्यों कंटक खुचे अंग | माय जो । तिम अन्य मत पेठो अति दुःखदाइ हेरेलो ॥ अहं ॥ जाणी लगावे | अतिचार जो । तास प्रायश्चित शास्त्र किसा बताइये रेलो ॥५॥ अहो ॥ जो करे 17 व्रत खण्डन जो । तेहथी अण खण्डीत व्रति सदा भलारेलो॥ हो ॥ जो होवे | स्थिर रहेण समर्थ जो। तो भले राखो आपणा व्रत ने निर्मला रेलो ॥६॥ अहो ॥ जो पालन सके उत्सर्ग जो। तो ते कायर सेवे छ अपवादने रेलो ॥ अहो ॥ । पाले अडग उत्सर्ग जो। तहां ने अपेक्षा करीये कहा स्याद्वादने रेलो ॥७॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ जवि अहो ॥ वीतराग नो मत स्याद्वादजो। तूं कहे ते हूं मानू छू साचो सही रेलो ॥ अहो ॥ पण सो ज्ञानान्तर होय जो। पाप में तो स्यादाद त्रिकाले छे नहीं रेलो ॥ ८॥ अहो ॥ यहां नहीं दया को पक्ष जो। यह तो पक्ष प्रत्यक्ष है संसारनो रेलो ॥ अहो ॥ नहीं जीव ऊगार्या कहेवाय जो । एतो गिनावै कीनी रक्षा परिवारनी रेलो ॥६॥ अहो ।नारी पुत्र राज काज जो। कधी न छोडूं धर्म श्रीजिन | राजनोरेलो॥अहो। यह पाया ऋद्धि अनन्त जो।वार अनन्ती हुवा अछे सहू साजनो रेलो ॥ १०॥ अहो ॥ कोण किसी को धन परिवार जो। सार न सरसी स्वार्थ । सरीयां कोइनी रेलो ॥ अहो ॥ स्वार्थिया सब जाणे जो । कर्म संचित संग श्रावै करणी होइनी रेलो ॥११॥ अहो॥ धर्म प्राप्ति दुर्लभ जो। सो पायो हूं महान् पुण्य ना जोगथी रेलो ॥ अहो ॥ दालिद्री चिन्तामणी जेमजो। न्हाखी ने कौण भोगे । विप्ति भोगथीरेलो ॥ १२ ॥ अहो ॥ मत कर यह उपदेश जो । मत आसाधर में । IN पूM अन्य देव नेरेलो ॥ अहो ॥ होणहार सोही होय जो । वाळू नहीं पुत्र नारी । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० सेवक सेवनीरेलो ॥ १३ ॥ अहो ॥ नहीं इण लोक सुख चहाय जो। लाय जाणूं। १५५ हूं सम्पति सब संसार की रेलो ॥ अहो ॥ सब मिल्या वार अनन्त जो। तृप्त न al | हुइ अात्म इश्वरी अपार नीरेलो ॥ १४ ॥ अहो ॥ अनित्य क्षणीक सुख काज जो। कौन मूर्ख हारेगा नित्य सुख सायबीरेलो ॥ अहो ॥ दुर्लभ लाभ हुवो ! मुझ जो। गमाया पीछी दुर्लभ हाथे प्रायवीरेलो ॥ १५ ॥ अहो सुण गारुडी॥ न तजु प्राणान्ते टेक जो । न नमुं कदापि जिनजी विना अन्य देवनेरे ॥ अहो ॥ ॥ तूं जाणे जिनमत रहस्य जो । तुझ ने चेतावा कही येह बातों में वनीलो ॥ १६॥ ) अहो ॥ तुझ थी जो होर उपाव जो। तो कर भलाइ सचेतन के प्राणीयारेलो ॥ अहो ॥ धर्म हट मत ताण जो । सार २ श्रदिले थोडा में जाणीयारेलो ॥१७॥ | अहो ॥ टूटी आयुष्य की स्थित जो । सान्ध सके नहीं शक्ति किसी ही देवनीरेलो ॥ अहो ॥ जो पूरो हुवा इन को कालजो। तो जा घर तुझ गरज नहीं । मुझ हेवनीरेलो ॥ १८ ॥ अहो सुणो श्रोताजी । इत्यादि विविध बात जो।। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १५६ गारुडी रूष सुरने कही वे प्रभाइ से रेलो ॥ अहो सुणो श्रोताजी। सुर पाम्यो । | चमत्कारनो । चल्या शक्यो नहीं अजुमें द्रढ ताइ से रेलो ॥ १६ ॥ अहो ॥ द्रढ । । धर्मी राजान जों । होवो सर्वही सम्यक्त्व धर्म अाराधबारेलो ॥ अहो ॥ यह हुइN पंचदश ढाल जो । कहे अमोलक सूर बनो मोक्ष साधबारे लो ॥ २० ॥ | दोहा ॥ गारुडी रूपे देवते । सुणी विजय ना वचन ॥ चीडायो अति चित्त में। देखी नृप कठन ॥१॥ कहेरे नृपति भोलीया । कदाग्रही दयाहीन ॥ निज हिता। | हित न ओलखे। बातों करे प्रवीन ॥ २॥ खोटो भव्य तव्य ताहारे। होतो दीसे । हाल सामार्थ सुरथी न डरे । बोले आल पंपाल ॥ ३॥ रोगी वैद्य बचनने । जो अवगणी तजंत ॥ तो त रोग वृद्धि हुवा । महा पीडा पावंत ॥ ४ ॥ तैसेही तुझे यह कदाग्रह को । फल देशी नागराय ॥ इम बड बडतो गारु । छोड चल्यो ने ठाय ॥ ५॥ ॐ ढाल १६ वी ॥ मुझ विनतडी अवधारो साहिब ॥ यह ॥ देखो भव्य विजय नृप द्रढताइ । राखी अखण्ड प्राणान्त ॥ टेर ॥ गारुडी जाता Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ही तत्क्षीण । प्रगट्यो नभ में भाण । जाणे विजय की द्रढता प्रेक्षन ॥ प्रावै दिन १५७ ।। सुलतान ॥ देखो ॥ १॥ मन्त्र बले जो अही बन्धे थे। वो छूटै तत्काल ॥ नदी पूर जी उलटे एकदम । जैसे सेनारो आयो काल ॥ देखो ॥ २॥ काला लीला पीला धोला । काबरा विचित्र रंग ॥ दी जिह्वा से झरे विष महा । अरुण नेत्र. भय ढंग ॥ देखो ॥ ३॥ ते सर्प टोली में एक महानाग । उतंग फण पसार ॥ नृप सन्मुख हो बोले नरपर । अहो मूर्ख बे विचार ॥ देखो ॥ ४ ॥ धीठा चीठा भाव अरीठा । अधर्म नीडर बेश्रम ॥ धर्म गर्व छक उनमत होकर । करे वे विचार के कर्म ॥ देखो ॥ ५॥ नहीं जाणी हजु महारी शक्ति । जो सहतां मुश कल ॥ जहां लग तेरे अङ्ग न व्यापी । तहांलग तूं अटल ॥ देखो ॥ ६॥ जड नर कहने सुनने से । डर नहीं धरे लगार ॥ निज पर वीते समझे तुतही । येही है थारो विचार ॥ देखो ॥७॥ कृत्य कर्म का अति कटुक फल ॥ भोगव तूं । इणवार ॥ यों कहतो नृप अंगे बिठाणों । असूरत्त क्रोध मझार ॥ देखो ॥ ८॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जवि मर्म स्थानों नशों बन्धी जकडी । कीनो सर्व अंग डंस ॥ और अनेक लघु सर्प १५८ | आइ । बीटयों नृप अवसंश ॥ देख ॥ ६ ॥ चुट २ नृप तन ने तोडी । करे रक्त | मांस अहार ॥ मेरु ज्यों द्रढ ध्यानस्थ नृप हो । स्मरण करे नवकार ॥ १०॥ महा || N| विष पसरा सब ही तन में । दवाग्नि सा करूर ॥ जाने बज्र प्रहार करे है । को- | प्यो मघाव के असुर ॥ देखो ॥ ११ ॥ तीक्षण शस्त्रे अरी तन काटे । त्यों फटने लगा तन ॥ महा भयानक भोगे जो जाने । के जाने भगवन ॥ देखो ॥ १२ ॥ Nथर २ थर तन सब कम्पे । तरर २ छूटे रक्त ॥ तड २ सब नाडी टूटे । जेहर चढा | अति शक्त ॥ देखो ॥१३॥ प्रेक्षक को बोले जेष्ट नागसो । देखो दुष्ट के हवाल ॥ स्वजन पुरजन आदि जो रचना । दिग मुढ हुवे असराल ॥ देखो ॥ १४ ॥ अति वेदन से मुरछाइ पडे । पाडे भयानक चीस ॥ देखे सो अति त्रासित होवे । देव V कोपे क्या जगीस ॥ देखो ॥ १५ ॥ हरीत वदन दशन कृष्ण भये । तडफे जल बिन मीन ॥ साक्षात नरकसी वेदन । अनुभवे जाणी ते दिन ॥ देखो ॥ १६ ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म०वि० यम प्रहार भूल्या सो संभर्या । अहो सत्य कथन भगवन्त । इससे अनन्त गुणी १५६ । महा बेदन। भोगवी बार अनन्त ॥ देखो ॥ १७ ॥ इन बिचार में मन रमावे । W| तबही सुने समाचार ॥ राणी पूत्रों के ही मृत्यू पाये । करो ले जा संस्कार ॥ देखो ॥ १८॥ जले अंग पर क्षार के जैसे ।वीता नृप मन परताप ॥ तो भी तेह अखण्ड ध्वनी से । करे नवकार को जाप ॥ देखी ॥ १६॥ ज्यों २ Nवेदन वृद्धि पावै । त्यों त्यों भाव निर्मल ॥ अधिक २ अस्तिक जिनजी के। बचन में हुबे सबल ॥देखो॥२०॥ महा संकट में महा स्थिर रहे । धन्य विजय नृपाल॥ कहे अमोल बनरी यों अात्म। यह षोडशमी ढाल ॥ देखो ॥ २१ ॥ॐ॥ दोहा ॥ ता समय तेही गारूडी । धुणावतो निज सीश ॥ विजयराय ढिग आवीयो । देखतो दया जगीस १॥त्रासित मुद्रा से कहें। अरे अब तो जरा मान । नमन कर नाग देव नै । क्यों गमावै प्रान ॥ २ ॥ अति दुर्लभ | महा पुण्य सै । अपूर्व वक्त यह पाय ॥ लै लावौ दीर्घ आयु वर ।। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० हो मूर्ख मा गमाय ॥ ३ ॥ सब जन त्रास नरमी कहे । अरे अब तो भी समझो १६० । राय ॥ समकित भंग आदि पाप सब । दो मेरे शिर ढाय ॥ ४॥ किमही नमो नगेन्द्र को । ज्यों सब पावें सुख ॥ कोलाहल यों मचारहे । राय मौन गृही मुख ॥ ५ ॥ ॥ ढाल १७ वी ॥ नहीं सन्देह लगार निरोपम ॥ यह ॥ निर्मल समकिति विजय भूपति । श्री जिनधर्मी महाशूर ॥ यद्यपि महा उपसर्ग सहू विधि ।। तद्यपि न चल्यो मन भर ॥ विज०॥१॥ नरक सम दुःख से तन पीडावे ।। सजन बोले कुजबान ॥ कुटंब संहार हुवो पण जाण्यो । तो भी न कम्प्या प्राण ॥ विज०॥२॥ मेरु पर द्रढकर तन बैठा । पद्मासन लगाय ॥ कहे सब से बकबाद करो मत । मुझ मन द्रढ पहली सहाय ॥ विज०॥३॥ मुझ व्रत न पलटे कदापि । जो ऊगे पश्चिम भाण । रे गारुडी पड्यो किनके चाले । नहीं नहीं खण्डु जिन प्राण ॥ विज० ॥ ४ ॥ धर्म खण्डन की बात न करजे । करसी तो | शिक्षा पासी ॥रे गारुडी जो तूं जाने तो । में पूर्वी सो दे प्रकाशी ॥ देखो॥५॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १६१ यह प्रतिवेदन असाह्य मुझ थी । रहसी कितने कालतां || आयुष्य म्हारो रह्यो कित्ती घडी । जाने तो कहदे भाइ || दे० ॥ ६ ॥ ज्यों मुझने यह सर्प डस्यो है । ऐसो ही उसे अन्य तां । तो ते काल कितनों जीवे । जाणे तो देवताइ ॥ देखो ॥ ७ ॥ ते जाणूं तो में पाप झालोइ । सलेपणा करूं भले भावे || निशल्य होकर गति सुधारुं । और कुछ मुझ नहीं चावै ॥ देखो ॥ ८ ॥ यों सुण मत्सर धर हे गारुडी । स्थिति दीर्घ विष की जाणो ॥ जधन्य पीडे षट मासा लग । देव को कहा व्याख्यानो || देखो ॥ ६ ॥ पण क्यों भोगो दुःख दारुण यह । कारण किसो फरमावो || अति विस्मय महारो मन पावै । किर्थ सर्वस्व गमावो ॥ देखो ॥ १० ॥ महासत्व को धारी वीरपुत्र । सुणी ने नहीं डर्या लगारो ॥ निर्विकल्प चित्त ने द्रढ स्थिर कर । इस विध कर तो ऊचारो || देखो ॥ ११ ॥ सुणो सहू जन पुष्प की तरेह मुझ । तन प्रति है सुकुमाल ॥ तो पण धर्मार्थ मुनि पर अबी । मन तन हुवो मुझ उजमालो || देखो ॥ १२ ॥ जो यह वेदन सहतां Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म०वि० श्राकरी । तो पण मे थोडा ही जाणूं ॥ इससे भी कभी होय अनन्त गुणी । तो १६२ भी कुमति ने नहीं मानू ॥ देखो ॥ १३ ॥छे मास तो काल बीतसी । म्हारे मने N न घणी बातो। छसो पूर्व लग दुःख भोगवू । तो ही ने टूटे धर्म को नातो॥ देखो ॥ १४ ॥ ज्यो ज्यों यह दुःख बृद्धि पावे । त्यों ज्यादा सुखकारक जाणू॥ | धर्मार्थ कारण महा निर्जरा । किंचित खेदन आणूं ॥ देखो ॥ १५ ॥ ज्यों । अधिक समभाव से सहूंगा । त्यो ही सुख अधिको पास्यूं । योही जो सर्व कर्म ।। क्षयथावे । तो निरामय मुक्ति में जास्यूं ॥ देखो ॥ १६ ॥ इनसे अनन्त गुण ॥ | अनन्त बार । दुःख भुक्ते में नरक मांही ॥ नर्क सें दुःख अनन्त गुण अधिका। निगोद में पचीयो रहाही ॥ देखो ॥ १७ ॥ सम्यक्व भङ्गे । नरक निगोद के भव अनन्त करना पडसी ॥ सम्यक्त्व निर्मले किंचित दुःख सही । महा दुःख मेटी शिवपद वरसी ॥ देखो ॥ १८ ॥ परवश्य अनन्त दुःख सहे जहां निर्जरा हुइ । कभी लवलेशो।अपूर्व लाभ को अवसर यह मुझारोष कोई ने जरा मत देशो। देखो Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० ॥ १६ ॥ उपकारी हुवा नाग देव मुझ । अशुभ कर्मो को खपाबा ॥ महारा ब. १६३ । ध्यां में ही भोगवू । सुखसे यह सुखीयों थावा ॥ देखो २० ॥ यो संवेगा वीर रस पुरीत । वचन सुणी सहू विस्माया ॥ बहवा बोलो विजय सम्यक्त्वी की। अमोल । ढाल सतरे मांया ॥ देखो ॥ २१॥ॐ॥दोहा॥ यों द्रढ निश्चयात्म बनी। पद्मासन लगाय ॥ मेरु ज्यो स्थिर रहे ध्यान धर । सद्बोध करत उचार ॥१॥ लोक दीग मुढ होरह्या । बोली न सके लगार । देखी प्रत्यक्ष यह चरी । असुर अचंभ्यो अपार ॥ २ ॥ देखे अवधि ज्ञान से । तीव्र वेदन नृप तन । पण मनसा निर्मल अति । समय २ वृधन ॥ ३॥ कीना उपाव डीगावने । उलट हुवे द्रढ भाव ॥ सखेदाश्चर्य मुरझा गयाँ । हार्यो जुगारी दांव॥ ४॥ पस्तावे अति मनमे । इन्द्र वयण अपमान ॥ निरर्थक सताया महा सत्वी ने । अहो २ विजय गुणखान N॥ ५॥ ॥ ढाल १८ वी ॥ गोपीचन्द लड़का ॥ यह ॥ धन्य २ सब बोलो ।। द्रढ धर्मी विजयराय को ॥ टेर ॥ ताही समय सब विप्ति विरलाइ । देव गगन में Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १६४ ऊभाई ॥ जय २ नाद करे विजयराय को । दुंदवी रह्यो बजाइजी ॥ धन्य ॥ १ ॥ पंच दिव्य तहां प्रकट करीया । सुगंधी जल वर्षाई || रत्नाभूषण वस्त्र अत्युत्तम सोनैया ढग लगाइजी || धन्य || २ || अनेक रूपकर विचित्र देव का । गगन TET || विविध प्रकारे विजय गुण गावै । वाजित्र विविध बजाइजी ॥ धन्य ॥ ३ ॥ अहो २ सत्व हो २ द्रढता । जे विजयराय में पाइ ॥ ते नहीं पावे अन्य स्थाने | धन्य २ विजय तात भाइजी ॥ धन्य ॥ ४ ॥ क्रोडोंरूप कर क्रोडों जिह्वा से । विजय गुण न कहाही | आज पवित्र होवुं चरण भेटी । यों कही सभा में हो | धन्य ॥ ५ ॥ महा दिव्य रूप वस्त्र भूषणधर । मुक्र मुगट पद ठाइ ॥ कह रुदन्तो क्षमो देव मुझ । महा अपराध कीधाईजी ॥ धन्य ॥ ६॥ करजोडी नमी सन्मुख ऊभो । सत्य विरतन्त दर्शाई ॥ में परसंस्था किसी कर नृप । सीमन्धर जिन सराइहो || धन्य ॥ ७ ॥ प्रथम स्वर्गपति जिन वन्दन गये विजय पुष्कलावति मां || सीमन्धर से इन्द्र प्रश्न किया । को सम्यक्त्वी भरत Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १६५ मांइ हो ॥ धन्य ॥ ८ ॥ जिनजी नाम तुमारो दाख्यो । न सके देव दानव चलाइ ॥ तैसी पर संस्था सुधर्मी सभा में । कीनी सुरपति आइजी ॥ धन्य ॥ ६ ॥ में मिथ्यात्वी श्रध्यो नाहीं । जारयो अभी आबूं डीगाड़ || यो अभीमान धरी में आयो । श्रावक रूप बनाइ हो ॥ धन्य ॥ १० ॥ धर्म चरचा में नहीं पराभव्या तब । साधु समुदाय बनाइ ॥ भृष्टाचार बतायो मुनि को । तो भी तुम न चल्याइजी ॥ धन्य ॥ ११ ॥ नागदेव स्वप्नो में दीनो । निमिनिक मेही बन्याइ || नाग रूप धर उपसर्ग कीना । गारुडी हो याइ चलाइजी ॥ धन्य ॥ १२ ॥ इत्यादि सहू कर्तव्य महारा । तुमने महा पीडचाइ ॥ सब जग डीगीयो न तुझ मन तू Sairat | मेरु मरुत के सहाइजी ॥ धन्य ॥ धन्यं ॥ १३ ॥ अहो सत्वाधिश धर्मी माली मणी । शूरवीर धीर राइ || जिनेन्द्र देवेन्द्र परसंस्था से । अधिक पायाइंजी ॥ धन्य ॥१४॥ जेती महारी शक्ति थी सबही । तुम परली अजमाइ ॥ तुम मनकी महाशक्ति मागे । महारी नचाली कांइजी ॥ धन्य ॥ १५ ॥ सुर से भी नर अधिक प Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ०वि० सत्व धर । अाज तुम प्रत्यक्ष देखाइ॥ प्रभाण जन्म जैन कुल धर्मने । जे जगे तुम १६६ पायाजी पायाइजी ॥ धन्य ॥ १६ ॥ में महादुष्ट कुदेव दयाहीन । जुलम अति कीधाइ ॥ IN विना गुणे महा धर्मात्म ने । संताप्या कुटुम्ब सहाइजी ॥ धन्य ॥ १७ ॥ पण तुम | मने से काल इतना में । देष जरा न लायाइ ॥ ऐसी द्रढता किंचित मुनि में । तो N संसारी क्या कहाही हो ॥ धन्य ॥ १८ ॥ अहो नरेन्द्र धर्मेन्द्र कृपालु । मुझ रंक । पर दया लाइ ॥ खमो २ यह सर्व गुन्हाने । अब फिर करूंगा नाहीं हो ॥धन्य॥ १६ ॥ करी बक्षीस क्षमा किंकर पर । दो माफी दान सहाही ॥ एह उपकार न भूलू कदापि । मेहर करो महाराइहो ॥ धन्य ॥ २० ॥ मुझ लायक चाकरी फर माइ । पवित्र करो मुझ तांइ ॥ ढाल अष्टदश माहीं अमोलक । सानन्दाश्चर्य वर । त्याइजी ॥ धन्य ॥ २१ ॥ॐ ॥ दोहा ॥ संतुष्टी नृप कहे देव को। तुम अपराध IN न लगार ॥ महारा बन्ध्या भोगव्या । न करो कोइ विचार ॥ १ ॥ सुर तरु चि न्तामणी थकी। अधिक जिनेश्वर धर्म ॥ सो फल्यों मुझ हृदय विषे। इससे न । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७ नवि० कोइ परम ॥ २॥ सो जाचं में तुम कने । और न को मुझ चहाय ॥ इतना पर जो देवो मुझ । तो मांगू एकवाय ॥ ३॥ देव कहे फरमाइये । आप कहो सो प्रमाण ॥ राय कहे तो छोडदो। मिथ्यामत दुःख खाण ॥ ४ ॥ स्वीकारो जैन । । धर्म को । करो चउतीर्थ सेव ॥ उन्नती करो धर्म सत्य की । पावो सुख सदेव ॥ ५॥ प्रमाण वचन यह अापका । करजोडी कहे देव ॥ में धार्यों जैनधर्म को। पालुंगा अहमेव ॥ ६॥ विजय गुरु वंदन करी । खेद हर्ष दिलधार ॥ देवगया देवलोक में ॥ पाले धर्म स्वीकार ॥७॥ ॥ ढाल १६ वी॥ तूं महारी जरणी॥ यह | ॥तुम सुनो गुनी लोको। सर्वार्थ सिद्ध शुद्ध ध्यान से ॥टेर॥पक्खीपर्व अाराधन विजय जी। पोषध शाल में प्राय। अष्टादश दोपण रहित शुद्ध । पोषधव्रत गृही रहाय ।धर्यो ध्यान तव पिछली राते । धर्म ध्यान को ध्याय हो । तुम ॥ १ ॥ चिन्ते धिक्कार मुझ ने ताई लुब्धी सुख मझार । जाण ता ही पण छोड़ी न सकुं। यो संसार असार । राज कुटुम्ब मे गृद्ध हुवो में । करणी न बने लगार हो ॥ तु. Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १६८ म ॥ २ ॥ ब प्रति मोह घटाने । देइ पुत्र को राज | सर्व प्रपंच को छोडी करी ये । रहूं एकान्त जगाज || श्रावक का व्रत वारेही धारू । त्यों सुधरे कुछ काज हो ॥ तुम ॥ ३ प्रात भया पोषो पारी ने । चारों प्रहार निपजवाय । भाइ पुत्रना आदिदे । सवी परिवार जिमाय । प्रति डम्बर नन्दकुमर ने राज तखत बैठाय हो ॥ तुम ॥ ४ ॥ फिर लेइ सर्व की सो आज्ञा । धर्म उपकरण लेये । पोषधशाला में एकान्ते धर्म करंता रेय । तप जप खप शाख प्रमाणे । करे नित्य प्रत तेय हो ॥ सुणो ॥ ५ ॥ जे निपजे निज कुटुम्ब के घर में । उनके निमित से हर वक्त सिर अचिन्त्य तहां जाइ । मीगवे थोडे जे वार | ज्ञान ध्यान में सदा उद्यमी । हाणी न करे लगारहो || सुणो ॥ ६ ॥ एकदा सन्ध्या समय विजयजी | देवसी प्रतिक्रम कर । तीनों मनोर्थ चिन्तवता ते दीना स्थिर ध्यान धर । अपूर्व भाव चढ्या ते वारे एका ग्रहे तरजी ॥ सुणो ॥ ७ ॥ अहो प्रभु जीप महा सुख सागर । प्रकास्यो जैन धर्म । बिना कष्ट शुद्ध भाव श्राराधे । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म०वि० अर्षे शिव सुख पर्म । तप जप किरिया की न जरूरत घरे द्रढ एकात्मा हो ॥ १६६ ।। तुम ॥ अष्टादश दोषण रहित सो । अरिहंत देव कहाय। शुद्धाचारी निर्ममत्व धरी । निग्रन्थ गुरू गिनाय । सर्व जीवों को एकान्त सुखदाई । धर्म जिनाज्ञा मांय हो ।। |॥ सुणो ॥ ६॥ यह व्यवहारी धर्म तिहुं । तत्व को भव्य जीवो अाराधे त्रिशल्य त्रिकरण से त्यागे । जाम जैन मत लाधे । यथा शक्ति वास किरिया निपाइ। आत्मार्थ को साधे हो ॥ तुम ॥ १०॥ निजात्म निज गुण में तल्नी न हो । सो | ही निश्चय देव जानो । आत्मा ज्ञानानन्दे रमण करे । गुरु तेही पहछानो । पर परिणति तज निज परिति ये । रमे सोही धर्म मानो जी ॥ तुम ॥११॥ यह निश्चयिक तीनो तत्व श्रद्धि । यथा शक्ति में पाल्या। परन्तु ममत्व शरीर की न घटी तासे संयम न धार्या । धिक्कार होवो मेरे प्रमाद को । भव भमण नहीं टाल्या हो IN ॥ तुम ॥ १२ अनित्य पदार्थ तन अशुचि । कुटम्ब स्वार्थी सारा । शरणदाता | कोइ होवे नाहीं । दुःख निवारण हारा ॥ पुद्गलानन्दी होकर आत्मा अपना भान Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० ज०वि०विसाराजी ॥ तुम ॥ १३ ॥ इत्यादि चिन्तवन करत अप्रमत स्थान पाई ॥ आगे क्षपक श्रेणि पडिवजी । कषाय लाय बुझाई ॥ क्षीण मोह को कियो विजय जी। Hशुक्ल ध्यान में रमाईयाजी ॥ तुम ॥ १४ ॥ घोर अन्धारी रात्री मांइ । अनन्त भानु IN के साइ ॥ केवलज्ञान और केवल दर्शन। विजय प्रात्मे प्रकटाइ । जो वस्तु महा - कष्ट से पावे । सो सहजे हाथ अाइजी ॥ तुम ॥ १५ ॥ पिता से पुत्र यों अधिक गिनीजे । सो संयम ले केवल पाय । इनने तो गृहस्थाश्रम मांही । ध्यान से केवल कमाया । यों पुण्य की उत्कृष्टता देखो । ध्यान बली K केसा भाया हो ॥ तुम ॥ १६ साधुलिंग सासणपति देवता तत्क्षीण लाइ दीना। गृही वेस परिहर विजयजी । ताहे धारन कीना । ढाल उन्नीसवी कही अमोलक dविजयजी चिन्तित लीनाजी ॥ तुम ॥ १७ 8 दोहा ॥ केवल महीमा करन को । सुरगण अति उमंगाय । गगने वाजे देव दुंदुभी । जय २ शब्द गर्जाय ॥ १॥ पुरजन कौतुक देखके । अति आश्चर्य मन लाय । कौन पाये केवल इहां । दर्शने । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० नर गम धाय ॥ २॥ आये पोषध शाल में । विजय ऋषि वर देख । जाने यही हुवे केवली । पाये हर्ष विशेष ॥ ३॥ दिन कर भी तब प्रगटा । मिले सज्जन स| ब अाय । पुरजन आदि परिषदा । बहुत ही तहां भराय ॥ ४ ॥ जग तारन जिन रायजी । धर्म देशना फरमाय । सो सुणियो श्रोता सवी । लेजो अात्मे रमाय ॥ ५५॥ गाल २० मी ॥ मे मुख देख्यो गोडी पारस को ॥ यह ॥ चेतो चतुर । शुद्ध सम्यक्त्व धारो। धर्म से खेवा पारजी ॥ टेर ॥ चार अंग अति दुर्लभ जगमें प्रथम नर अवतारजी ॥ चे॥ १॥ नव घाटी में अनन्त परावर्तन । किया जन्म | मरण धारजी ॥ चेतो ॥२॥ अनन्त पुण्ये नर हुवा । पिन सत्र सुणवो हुक्कर NI कारजी ॥ चेतो ॥३॥ मिथ्या वाणी खोटी कहानी । सुण अनंतवारजी ॥ चेतो ॥४॥श्रीजिनवाणी सुणके श्रद्धे।सोही सम्यक्त्व उचारजी॥चेतो॥५॥ कुश्रद्धा और और मिथ्या शल्य सोभमा अनन्त संसार जी ॥ चेतो ॥ ६॥ चौथा बोल श्रद्ध के स्पर्शना । यथा शक्तियानुसार जी ॥ चेतो ॥७॥ ज्ञान सहित चारित्र पाले Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १७२ • तो । हो जावै खेवा पार जी ॥ चेतो ॥ ८ ॥ क्षमा मुक्ति अज्जु ने मार्दव । लाघव सत्य संयम भार जी ॥ ० ॥ ६ ॥ तप ज्ञान ब्रह्मचर्य धारे तो । निश्चय खेवा पार जी ॥ ० ॥ १० ॥ ज्ञान दर्शन चरन त्रय रत्न यह । करे आत्म निस्तार जी ॥ चे० ॥ ११ ॥ आत्मिक गुण तज प्रणति रमणता । सोही रुलावनहार जी ॥ ० ॥ १२ ॥ ममत्व बन्धे जो बन्धे जकडी | वो कैसे छुटकार जी ॥ चे० ॥ १३ || जो छेदे रोहीत मच्छ पर । तस खुल्ला शिव द्वार जी ॥ चेतो० ॥ १४ ॥ यह तन प्रत्यक्ष अशुचि का कूंडा । धर्म करे तो होवे उद्धार जी ॥ चेतो ॥ १५ ॥ असार से सार निकले सो निकालो। जो तुम हो होंशार जी ॥ ० ॥ १६ येही तन है मोक्ष को कारण । कार्य हेतु सो लेवो धार जी ॥ पूर्व और महा लाभ दाता । येह अवसर श्रेयकार जी ॥ चेतो ॥ लाभ लभ्य हुवो लूंटो । मरणो अभी ही विचार जी ॥ चेतो ॥ पुनः वे न किमपि, खोया सोच अपार जी ॥ चेतो ॥ २० ॥ ० ॥ १७ ॥ श्र १८ ॥ अलभ्य १६ ॥ गइ वक्त यों सत्य जाणी Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० चेतो भव्य प्राणी । अक्षय सुख इच्छनार जी ॥ चेतो ॥ २१ ॥ जिनाज्ञा आराधो १७३ | निजात्म साधो । होवो शान्त निर्विकार जी ॥ चेतो ॥ २२ ॥ तरो तारो सब M दुःख निवारो। पावो मोक्ष पद सार जी ॥ चेतो ॥ २३॥ इत्यादि सद्बोध दर्शा। यो । ढाल बीसमी मझार जी ॥ चेतो ॥ २४ ॥ ऋषि अमोलक धर्म पसाये । सदा रहे जय जय कार जी ॥ चेतो ॥ २५ ॥ * ॥ दोहा ॥ सुधासमी सुणी देशना ।। तृप्ति सभा शान्त रस ॥ वैराग्य उर्मि ऊमंगी। काढने वक्त सु-कस ॥ १॥ सम्य| क्त्व बत नियम गुण । धारे बहुत सुज्ञ जन ॥ जयसेण आदि सौ परिवार के । । परम संवेग व्याप्यो मन ॥ २॥ सहू परिषद योगे विशुद्ध । जिनजी को करे नम स्कार ॥ आइ थी उसी दिशी गइ । यथा शक्त धर्म धार ॥३॥ जयसेण जिनवन्द कर । लुलीयों को उचार ॥ श्रध्या परतीता उपदेश यह । स्फरसवा द्रढ निर्धार ॥ ४॥ जिनजी कहे यथा सुख करो । प्रतिबन्ध करीये नाय ॥ सुणी | N] अति हर्षी पुनः वन्दी । निज २ सदने प्राय ॥ ५ ॥ॐ ॥ ढाल २१ वी ॥ गौतम Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० रासा की देशी ॥ परमानन्दि वैरागीया जी । निज २ कुटुम्ब समजाय । दीक्षा | १७४ लेवण सज हुवा । तब सज्जन मौछव मण्डाय जी।शुद्धोदक न्हावण कराय जी॥ दिव्य भूषण वस्त्र सजाय जी ॥ जो सहश्र पुरुष उठाय जी । ऐसी सेविका नवों IN को बैठाय जी ॥ श्री समंकित उत्सव सुखदा सदा ॥ टेर ॥ १॥ आया परिवारे Id परिवार्या जी। विजय केवली पास ॥ सडू यथा विधि वंदन कियो । फिर इशाण M कोण रही खास जी ॥ वस्त्र भूषण तज करी रास जी। पंचमुष्टि लोचन कर्या स 10] जी ॥ साधु वेस धार्या उमंग्या सजी । वन्दी जिनजी से करे अरदास जी ॥ श्री ॥२॥ अलिता पलिता संसार में जी। जरा मरंण प्रज्वलंत ॥ तामे जले जग जंतुना। हम आपके शरण श्रावन्त जी ॥ दया कर हमे तुम बचावन्त जी। अर्को संजम शिष्य करो ससन्त जी ॥ जिनजी कुटुम्ब अाज्ञा लेवन्त जी । नवों | | जनों को दिक्षा देवन्त जी ॥ श्री ॥ ३ ॥ जय १ ऋषि अानन्द २ मुनिजी । सुN न्दर ३ साधु महंत ॥ एह तीनो सन्त सोभिता । अब छे सती नम भणन्त जी ॥ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० जयवति १ विजीया २ गुणवन्त जी । जेतश्री ३ भोगनी ४ दीपन्त जी ॥ जयति । १७५ ५ कामलता ६ सोहंत जी । यों नव ही शिव पन्थ वरन्त जी ॥ श्री ॥ ४ ॥ साधु सतियों संग परिवर्या जी । जिनराय कीयो विहार ॥ गाम सीम लग सहू मिली। पहोंचाइ फिर्यो परिवार जी ॥ झुरता गुण गण प्रिती संभार जी। श्राया सब निज २ श्रागार जी ॥ करे धर्म कर्म यथा सार जी। अब संतों सतीयों अधिकार जी॥ श्री ॥ ५ ॥ जिनराज एकान्त स्थानके जी । बैठा सब परिवार ॥ असेवना गृहणा शिक्षा विस्तारी करी उचार जी। जो ज्ञान गुणे प्राचार जी ॥ ते । लीनी सन्त सती धार जी। और ज्ञान पढ्या सूत्र सार जी। फिर करणी में मड्या एकतार जी ॥ श्री ॥ ६ ॥ ज्ञानानन्दि मगन ध्यान में जी। तपे तप घोर द्रढ जाप ॥ ग्राम नगरा अादि विचरता । साहता परिसहा शीत ताप जी ॥ सद् बोधे उपकार अमाप जी। करता तारता भव्यजन तदाप जी ॥ फेलायो धर्म IN/ सत्य थाय जी ॥ बहूते तारे जगसे सापजी ॥ श्री ॥ ७ ॥ श्री विजय जिनराजवी Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १७६ जी । एक लक्ष वर्ष आयु पार ॥ अनसनी हो द्रढासनी | किया अघातिक कर्म छार जी ॥ पधारे मोक्ष मझार जी । हुवे अजरामर अधिकार जी ॥ अनन्त अक्षय सुख लीन सार जी । कृत कृतार्थता यही धार जी ॥ श्री ॥ ८ ॥ जय पुण्य वृद्धि हुवा जी । होंता सर्वार्थसिद्ध मांय ॥ एकावतारी उत्कृष्ट सुखी । महा विदेह से मोक्ष सिधाय जो || और सबी स्वर्गे जाय जी । अतुल्य महा सुख भुक्ताय जी ॥ थोडा ही भवन्तर मांय जी । पामसी शिव सुख सदाय जी ॥ श्री ॥ ६ ॥ आत्म मेदनी विशुद्ध करी । तामे विनय बीज वौवाय || शील कोट से घेर कर | विविध ज्ञान बगीचा बनाय जी ॥ महाव्रत वाडी फूलाय जी । समता रूप होइ सुखदाय जी ॥ क्षमा रूप नीर भराय जी । वैराग्य रंग दे घोलाय जी. ॥ श्री ॥ १० ॥ सद्बोध पिचकारी भर करी । सुमति गुप्ति सहेली संग || सझाय वाजित्र झकार से | हुवे अनहद नाद में चंगजी । खेले उत्सव विजय सुरंगजी पाये सो सुख अभंगजी । बनो येही आत्म प्रसंगजी ॥ श्री ॥ ११ ॥ उयों विजय जी Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १७७ सपरिवार से । यह उत्सव रमी पाये सुख । त्यों सब श्रोता वक्ता मिली । धारो द्रढ श्रद्धा सम्यक सन्मुखजी । महा उपसर्ग न होवो कलुखजी । तो तैसे गया सो सब दुःखजी । यह कथन सार धारो मुखजी । तो कथन श्रवन सार पुखजी ॥ श्री ॥ १२ ॥ श्री सासनपति महावीर के जी। आचार्य हुवे गुणधार पूज्यलवजी ऋषि सोमजी ऋषि । पूज्य कहानजी ऋषि सिरदारजी । तारा ऋषिजी काला ऋषिजी सारजी । वन्तु ऋषिजी धनजी ऋषि लार्जी । महन्त खूवा ऋषिजी अणगारजी । चेन ऋषि जी गुरु प्राणाधार जी ॥ श्री ॥ १३ ॥ तस्य किंकर अमोल ने यो। वंदिता सूत्रानुसार ॥ कथा पढी कथी रास में । यथामति सुधार बधार जी ॥ प्रक्षेप विक्षेप मतानुसारजी । करतां विरुध सत्य हो उचारजी । तो सर्वज्ञ श्रात्म साक्षीदारजी । मिथ्या दुष्कृत्य मुझे वारम्वारजी || श्री० ॥ १४ ॥ कोविद कवीयों कोए । कहूं कीजो यस सुधार ॥ नहीं कवी में कवी शीशु । तेही बुद्धि विबुद्ध उर वारजी ॥ कीजो सर्व दोपण को निवारजी । प्रसार जो गुण विस्तार Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज०वि० १७८ जी । होवे सर्व लाभ दातारजी । येही प्राप्त पदार्थ सारजी ॥ श्री ॥ १५ ॥ श्रीवीर निर्वाण संवत्सरा वीते चौबीस सो सप्तबीस । विक्रम उन्नीसस अठावने देश दक्षिण सुपुनीश जी || घोड नदी ग्राम धर्माधीश जी ॥ रहे चतुर मांस सु जगीस जी । शुभ विजय दशमी के दीस जी । यह पूर्ण हुइ मुझ जगीस जी ॥ श्री ॥ १६ ॥ सती शिरोमणी महासती जी । श्री रामकवर जी जान । तस अनुज्ञ ए रच्यो । यह सम्यक्त्वोत्सव मण्ड जी ॥ सम्यक्त्व सब गुणों की खान जी । चिन्तामणी काम कुंभ समान जी || पूरे इच्छा देव इष्ट दान जी। जय जय सदा अमोल धर्मवान जी || श्री समकित उत्सव सुखदा सदा ॥ १७ ॥ ॥ ॥ कळश ॥ हरीगीत छन्द ॥ ॐ नमो सिध सहू । सर्वज्ञ प्रणित जैन धर्म जी ॥ चारों शरण येह सदा मुझने । वांछित सुख देवे परम जी ॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज.वि. १७६ सम्यक्त्वोत्सव पढत सुणते । नाशत मिथ्या भरम जी ॥ ऋद्धि सिद्धि सब सुख पावे । अरि होवै नरम जी ॥१॥ श्रीविजय जिनराज गृही रही सम्यक्त्व पसाय केवल वरा । पुण्यात्म गुण पठन श्रवन होत शिव सुख सत्वरा ॥ अमोल ऋषि कहे कृपानाथजी । येही गुण दो सरत्त जो। जय रहो चौ संघकी सदा आनन्द मङ्गल वरतजो ॥२॥ परम पूज्य श्रीकहानजी ऋषिजी महाराज की सम्प्रदाय के बाल ब्रह्मचारी श्रीअमोलक ऋषिजी महाराज रचित सभ्यक्त्वोत्सव-जय विजय चरित्र का समकिताधिकार नामक उत्तरार्ध खण्ड समाप्तम् ॥ ॐ श्रीसम्यक्त्वोत्सव-जय विजय चरित्र समाप्तम् ॐ Page #189 --------------------------------------------------------------------------  Page #190 -------------------------------------------------------------------------- _