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ज०वि० १५६
गारुडी रूष सुरने कही वे प्रभाइ से रेलो ॥ अहो सुणो श्रोताजी। सुर पाम्यो । | चमत्कारनो । चल्या शक्यो नहीं अजुमें द्रढ ताइ से रेलो ॥ १६ ॥ अहो ॥ द्रढ । । धर्मी राजान जों । होवो सर्वही सम्यक्त्व धर्म अाराधबारेलो ॥ अहो ॥ यह हुइN पंचदश ढाल जो । कहे अमोलक सूर बनो मोक्ष साधबारे लो ॥ २० ॥ | दोहा ॥ गारुडी रूपे देवते । सुणी विजय ना वचन ॥ चीडायो अति चित्त में।
देखी नृप कठन ॥१॥ कहेरे नृपति भोलीया । कदाग्रही दयाहीन ॥ निज हिता। | हित न ओलखे। बातों करे प्रवीन ॥ २॥ खोटो भव्य तव्य ताहारे। होतो दीसे । हाल सामार्थ सुरथी न डरे । बोले आल पंपाल ॥ ३॥ रोगी वैद्य बचनने । जो अवगणी तजंत ॥ तो त रोग वृद्धि हुवा । महा पीडा पावंत ॥ ४ ॥ तैसेही तुझे यह कदाग्रह को । फल देशी नागराय ॥ इम बड बडतो गारु । छोड चल्यो ने ठाय ॥ ५॥ ॐ ढाल १६ वी ॥ मुझ विनतडी अवधारो साहिब ॥ यह ॥ देखो भव्य विजय नृप द्रढताइ । राखी अखण्ड प्राणान्त ॥ टेर ॥ गारुडी जाता