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________________ जवि० ४७ वी ॥ निन्दक तूं मति मरजेरे ॥ यह ॥ भविका पुण्य बल देखोजी । गत वस्तु प्रापति होय ॥टेर ॥ एकदा एक वनके विषयजी । शकुन हुवा श्रेय कार । अर्थ | समझी आश्चर्य लहो । इण महा अटवी ने मझार ॥ भ ॥१॥ गत वस्तु कैसे मिले। ये शकुन न निष्फल जाय ॥ स्थान मनोरम देखके बैठा तहां ध्यान लगाय ॥ भ ॥ ॥२॥ अचिन्त्य तिहां आयो तदा जी कपटी अवधूत वेष । जय जी जोगी। जो हर्षायो । नमन कियो विशेष ॥ भ ॥३॥ सेवा साचवे प्रात हितेजी । कुमर । | ओलखीयो तास ॥ बात प्रगट करी नहीं । नहीं पूगे जिहां लण आस ॥ भ ॥ ४॥ ढिग रह्यो शिष्य होय के जी। भक्ति करे अपार । जयजी भीतस पोषताजी। | भोजनादि सत्कार ॥ भ ॥ ५ ॥ अण निपजाया नित्य दिये जी। इच्छित भोजन पान । करामाति जोगी जाणनेजी। धूर्त हो असमान ॥ भ ॥ ६॥ एकदा का- " र्य साधवाजी । करे गुरू ने प्रसन्न । कुमर मन तस अोलखी। निज श्लाघा करे ।। कथन ॥ भ ॥ ७ ॥ मंत्र जंत्र मणी औषधी जय । मुझ से छिपी न लगार।।
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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