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________________ १२४ परवीन ॥ शंकित कांक्षित न हुवे । लियो शुद्ध मत चीन ॥ ३॥ परन्तु प्रत्यक्ष | दाखवी । जैन की विपरीत रीत ॥ चलावू जो इण भणी। तोही महारी होवे / जीत ॥ ४ ॥ मिथ्या वचन सुरेन्द्र को । किया विना न जवाय ॥ यों द्रढता फिर INI चित्त धरी ॥ बोले सो सुणी वाय ॥ ५ ॥ ॥ ढाल ७ वी ॥ सखी पणीया भ रन के साजाण ॥ विणजारा के राग में ॥ तुम सुणीयो जी राय हमारी । कोन - जैन धर्म शुद्ध धारी॥टेर ॥ भेप धारी सुर कहे मधु वाणी । धन्य तुमने जैनागम N रहस्य जाणीजी। जावू तुम बुद्धि की बलीहारी ॥ कौन ॥ १॥ जिन वचन सच्च | में श्रध्या । मुझ संशय आप सब मरद्याजी ॥ अपूर्व युक्ति जमारी ॥ कौ० ॥२॥ जैन मत सत्य जग मांही । अन्य नहीं इण सहीजी ॥ पण कौन सामर्थ्य पालवारी ॥ कौ०॥३॥ राय कहे चौसंघ अराधे । यथा शक्ति क्रिया सब साधे जी॥ | देखो साधुजी शुद्ध प्राचारी ॥ कौ० ॥ ४ ॥ महा व्रतादि क्रिया महा पाले । जिनाज्ञा प्रमाणे चालेजी । अन्यमत में न कोइ इसारी ॥ कौन ॥ ५ ॥ तब सुर
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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