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________________ ज०वि०। १२५ पर आश्चर्य धर बोले । तुम भूलो हो भाव भोलेजी ॥ सब साधु कपट भन्डारी ॥ कौ०॥६॥ वाह्य आडम्बर से राजी । माल खाइ करे देही ताजीजी । सब किरिया जाणो ठगारी ॥ कौ०॥७॥ रायजी कहे अरे मूंडा । ऐसा वचन म बोलो कूडाजी । इन से होवे अनन्त संसारी ॥ कौ०॥८॥ क्यों मुनि करे कपट | किरिया । जो ज्ञान गुणा के दरीयाजी ॥ लगी सुरत मुक्ति से एकतारी ॥ कौ० | ॥६॥श्राहार वस्त्र पात्र शुद्ध लेवे । निर्दोष स्थानक में रहवेजी। निकले छती ऋद्धि छिटकारी ॥ को० ॥ १० ॥ सुर कहे लोक देखावू छोडा । पण अन्तर मन नहीं मोडाजी ॥ गुप्त करे अनर्थ अपारी ॥ कौ०॥ ११ ॥ जो सरस ताजा माल खावै । देही लाल कुन्दासी बनावैजी । वै कैसे होवै ब्रह्मचारी ॥ को० ॥ १२ ॥ सधवीयां को भणावे । नारीयों को धर्म सुणावैजी । यह बात लो हीये विचारी॥ को० ॥ १३ ॥ भधव सुण ऐसी सुरवाणी । लियो ५ तारो तास पैठाणीजी । पण तोडे न जेष्ट मार्यादारी ॥ कौ० ॥ १४ ॥ कहे पापिष्ट ऐसा मत बोले । कौन जग
SR No.600301
Book TitleSamyktotsav Jaysenam Vijaysen
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmolakrushi Maharaj
PublisherRupchandji Chagniramji Sancheti
Publication Year
Total Pages190
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size15 MB
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