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ज०वि०
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रूपी काय वर्णादियुत ॥ सुणो ॥ दृष्टि न आवे वाय ॥ अहो ॥ १७ ॥ श्री जिनेश्वर के वचन में ॥ सुणो ॥ शंका का नहीं काम ॥ अहो || झूठो लवे किस कार -
॥ सुणो ॥ जिन तजी सब हाम ॥ अहो ॥ १८ ॥ शंका तहां सम्यक्त्व रहे नहीं ॥ सुणो ॥ कहाचरांग मझार ॥ अहो || जो बात कोइ नहीं जचे ॥ सुणो ॥ तो निज मति खामी धार ॥ अहो ॥ १६ ॥ अजाण मोल जवेरात को ॥ सु० ॥ माने जोहरी करे तेम ॥ अहो | अल्पज्ञ जिनोक्त सब बात ने ॥ सुणो ॥ साची श्रद्धेही तेम ॥ अहो ॥ २० ॥ यों सुए सुर शरभावीयो ॥ श्रोता जन हो ॥ ट्टी ढाल के मांय ॥ अहो श्रोता जन हो । अमोल कहे धन्य जे नरा ॥ श्रोता ॥ संवादे मिथ्या हराय ॥ अहो श्रोता जन हो ॥ २१ ॥ ॥ दोहा ॥ ज्यों महा मयंगल मद बक्यो । सूंडा दंड प्रसङ्ग ॥ पंखंज खूता पंख ने विषे । खेची कहाडे उतंग ॥ १ ॥ कुंजर नृप मद ज्ञाना नन्द । वीतर्क प्रचंड सूंड ॥ संशय पखंथी ऊधर्यो । सम्यकत्व कुसुम सूतुंड ॥ २ ॥ त्रिदश चमक्यो चित्त में । जाण्यो नृप